चुनावी बॉन्ड बींध रहा लोकतंत्र, वोटरों के साथ चुनाव आयोग को भी बनाया जा रहा पंगु
इलेक्शन बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों को कानून न सिर्फ अनाम बने रहने की छूट देते हैं बल्कि कंपनियों और शेल कंपनियों को चुनावी बॉन्ड खरीदने की अनुमति भी देते हैं। कंपनियों को राजनीतिक दलों के नाम और लाभ-घाटे के एकाउंट में डोनेशन का उल्लेख करने से छूट मिली है।
अप्रैल 2019 में भारत के प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कोर्ट में पूछा कि 'आप (चुनावी बॉन्ड खरीदने वालों की) पहचान क्यों गुप्त रखना चाहते हैं'। इस पर अटार्नी जनरल (एजी) के.के. वेणुगोपाल ने जवाब दिया कि 'सभी उद्योगपतियों को लाइसेंस छूट आदि के लिए समय-समय पर सरकार का दरवाजा खटखटाना पड़ता है। अगर यह पता चल जाए कि उन्होंने किसी पार्टी को 50 करोड़ या 100 करोड़ दिए तो प्रतिद्वंद्वी पार्टियां उसे निशाना बना सकती हैं।'
खंडपीठ में शामिल न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने इस पर आश्चर्य जताया कि 'आप डोनर की गोपनीयता के अधिकार की बात कर रहे हैं। लेकिन पारदर्शिता होने का वोटर का अधिकार लोकतंत्र का महत्वपूर्ण हिस्सा है!'इसकी प्रतिक्रिया में एजी ने उत्तेजित होते हुए जो कहा उसे लाइव लॉ ने इस तरह उद्धृत किया: 'वोटर को क्या जानने का अधिकार है, वे उम्मीदवार के हर पक्ष के बारे में पहले से जानते हैं! उन्हें राजनीतिक दल के धन के स्रोत के बारे में क्यों चिंतित होना चाहिए।'
सरकार की बेचैनी साफ थी। आम चुनाव होने ही वाले थे और वह विवादास्पद चुनावी बॉन्ड पर कोर्ट की रोक या उन विशेष खातों पर रोक के आदेश को संभवतः बर्दाश्त कर सकने की हालतमें नहीं थी जो बॉन्ड की प्रक्रिया में लगे हुए थे। आम चुनाव फिर लगभग 15 माह दूर हैं और सुप्रीम कोर्ट को इस योजना को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर फिर सुनवाई करनी है। पिछले पांच साल में इस पर न तो रोक लगाई गई है या न इस पर अंतिम आदेश पारित किया गया है। ऐसे में पर्यवेक्षकों को उम्मीद नहीं है कि कोर्ट इसे रद्द कर देगी।
न्यायमूर्तियों ने यह कहते हुए इसके पक्ष में बातें कही हैं कि इस योजना में पर्याप्त नियंत्रण और संतुलन हैं। रंजन गोगोई अब राज्यसभा सदस्य हैं और उन्होंने अपनी आत्मकथा 'जस्टिस फॉर द जज' में इस मामले का उल्लेख नहीं किया है। इस किताब के प्रमोशन के एक कार्यक्रम में जब एक टीवी इंटरव्यूअर ने उनसे इस बारे में जानना चाहा तो गोगोई ने कहा कि उन्हें इसकी याद नहीं है।
चुनावी बॉन्ड के इर्दगिर्द राजनीतिक या क्राइम थ्रिलर लिखने के लिए किसी को भी ब्रिटेन में हाउस ऑफ लॉर्ड्स के सदस्य रहे उपन्यासकार जेफ्रे आर्चर या ब्रिटिश.आयरिश लेखक जॉन ले कैर जैसी प्रतिभा या कल्पनाशीलता की जरूरत होगी। इस विषय पर फिल्म या वेब सिरीज बनाने के लिए किसी श्रीराम राघवन या अनुराग कश्यप की जरूरत होगी। इसका रिसर्च थकाऊ होगा। सरकार और स्टेट बैंक सभी छोटे से छोटे विवरण तक को अपने पास रखे हुए हैं। आखिरकार हम नहीं जानते कि राजनीतिक दलों को धन उपलब्ध कराने के लिए पूरी तरह शैतानी योजना के पीछे किसके कमाल का दिमाग काम कर रहा था। क्या यह कोई अकेला प्रयास था या कई दिमाग जुड़े हुए थे।
यह हम जरूर जानते हैं कि यह योजना भारत के चुनाव आयोग से नहीं जन्मी थी; कि भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्रीय कानून मंत्रालय को इसे लेकर गंभीर आपत्तियां थीं जिन सबको नामंजूर कर दिया गया। राजनीतिक दलों से बात नहीं की गई। बिना विचार विमर्श संसद द्वारा इस योजना को पारित कर दिए जाने के तीन माह बाद मई 2017 में उन्हें इसमें बेहतरी के लिए सुझाव के रास्ते बताने के लिए चिट्ठी भेज दी गई। सिर्फ चार राजनीतिक दलों ने इस योजना का विरोध करते हुए पत्र लिखे। सिर्फ बीजेपी ने इसे पथप्रवर्तक बताते हुए इसका स्वागत किया। कांग्रेस ने साफ तौर पर कहा कि मतदाता को, पैसा देने वाले, इसे ग्रहण करने वाले और दान की गई राशि जानने और पारदर्शिता का अधिकार है और उसने मांग की कि इन सबकी ठीक तरीके से घोषणा की जानी चाहिए।
यह भी निर्विवाद है कि 2018 के बाद से पहले पांच वर्षों में योजना ने भारतीय राजनीति और लोकतंत्र को आधारभूत ढंग से बदल डाला है। इसने न सिर्फ चुनाव आयोग के अख्तियार को नीचा दिखाया है और स्वतंत्र तथा निष्पक्ष चुनावों को सुनिश्चित करने के लिए सभी को समान सुविधा देने की इसकी क्षमता को क्षति पहुंचाया है, इसने राजनीतिक दलों को धन देने पर निगाह रखने तथा इसका पर्यवेक्षण करने की इसकी शक्तियों को कम किया है। पहले के तरीकों के बिल्कुल विपरीत आयोग इस बारे में बिल्कुल अंधेरे में है कि कौन किस राजनीतिक दल को कितना धन दान दे रहा है। चूंकि आने के बारे में कोई सूचना नहीं है इसलिए स्वाभाविक ही इसकी वेबसाइट पर यह सूचना भी नहीं है कि कितना धन जा रहा है।
नवंबर 2022 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों से पहले केन्द्र सरकार ने बॉन्ड की बिक्री जारी करने का एकतरफा फैसला लिया तो निर्वाचन आयोग ने प्रेस विज्ञप्ति हासिल भर की क्योंकि इसे प्रेस सूचना ब्यूरो ने इसे सरकारी वेबसाइट पर लगभग साथ ही जारी किया था। भले ही चुनाव आचार संहिता लागू हो चुकी थी, लेकिन आयोग की अनुमति लेने को जरूरी नहीं माना गया था।
चुनावी बॉन्डों ने वोटरों से एजेंसी को दूर करते हुए भारतीय लोकतंत्र को भी विकृत कर दिया है। राजनीतिक दलों द्वारा किसी मुद्दे पर अपनाए गए रुख को लेकर पहले भारतीय वोटरों पर जो भी थोड़ा बहुत प्रभाव पड़ता था प्रत्याशियों का चयन और इस तरह की चीजें अब और भी दूर हो गई हैं।
इस योजना ने राज्यस्तरीय क्षेत्रीय नेताओं और डोनरों को भी कमजोर किया है। राजनीतिक दलों को अब छोटे या मध्यम श्रेणी के बिजनेस वालों या लोगों के बीच डोनरों को खोजने की जरूरत नहीं रह गई है, न अपने राज्यों में पारंपरिक चंदा जुटाने वालों और नेताओं पर निर्भरता रह गई है। हालांकि पांच अन्य राज्यों में यह कमोबेश खरीदे जाते हैं, योजना की केन्द्रीयता इस बात से स्पष्ट है कि 80 प्रतिशत बॉन्ड दिल्ली में भुनाए जा रहे।
इतिहासकार और लेखक विलियम डेलरिम्पल ने अपनी किताब अनार्कीः द रिलेन्टलेस राइज ऑफ द ईस्ट इंडिया कंपनीज में लिखा है कि यह संभवतः पहली व्यापारिक कंपनी थी जो औपनिवेशिक सत्ता बन गई थी जिसका लगभग पूरे भारत पर 'लंदन में बोर्डरूम से प्रभावी तरीके से शासन' चलाया जा रहा था। जिस तरह मुगल साम्राज्य की जगह 'विदेश में एक छोटे.से ऑफिस, पांच खिड़कियों वाले और सिर्फ इसके शेयरहोल्डरों के लिए उत्तरदायी खतरनाक अनियंत्रित प्राइवेट कंपनी' ले रही थी। चुनावी बॉन्ड दूसरे 'कंपनी राज' में तब्दील होता लग रहा है।
2018 से पहले राजनीतिक दलों की कॉरपोरेट फंडिंग कुछ सैकड़ा करोड़ या लगभग इतना ही हर साल होती थी। कोविड महामारी और इस कारण लगाए गए लॉकडाउन की वजह से करीब डेढ़ साल तक बॉन्ड की बिक्री में तेज गिरावट के बावजूद पिछले पांच वर्षों में कंपनियों ने राजनीतिक दलों के लिए लगभग 12000 करोड़ कीमत के चुनावी बॉन्ड खरीदे और धन दिए हैं। इसका 80 प्रतिशत भारी.भरकम हिस्सा सिर्फ बीजेपी को गया है।
आलोचक पूछ सकते हैंः हम कैसे जानते हैं कि बॉन्ड कॉरपोरेट ने खरीदे हैं। संकेत.चिह्न यह हैः ज्यादातर बॉन्ड एक करोड़ मूल्य वर्ग के हैं। ट्रांसपेरेंसी ऐक्टिविस्ट कमोडोर लोकेश बत्रा (रिटायर्ड) को स्टेट बैंक की ओर से उपलब्ध सूचना के अनुसार, हालांकि बॉन्ड 1000 रुपये 10000 रुपये, 1 लाख रुपये और एक करोड़ रुपये मूल्य वर्ग के हैं, 97 प्रतिशत बॉन्ड सबसे ऊंचे मूल्य वर्ग के ही बिकते हैं। यह साफ तौर पर किसी व्यक्ति या छोटे व्यापारी को नामुमकिन बना देता है।
इस योजना में आरबीआई कानून, आयकर कानून, कंपनीज कानून के साथ-साथ जन प्रतिनिधित्व कानून और विदेशी अंशदान विनियमन कानून; एफसीआरए में संशोधन अपेक्षित था। एफसीआरए में संशोधन अब विदेशी कंपनियों और सैद्धांतिक तौर पर सरकारों एवं खुफिया एजेंसियों को भी अनाम रहते हुए भारत के राजनीतिक दलों को अब चंदा देने की अनुमति देता है।
राजनीतिक दलों को चुनाव आयोग को चुनावी बॉन्डों के जरिये पाए गए धन के विवरण बताने की अपेक्षा से मुक्त कर दिया गया। इसलिए आयोग के पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि सरकार के स्वामित्व वाली कंपनियों और या विदेशी स्रोतों ने राजनीतिक दलों को धन दिया है। पहले विदेशी स्रोतों से धन हासिल करना जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 29 बी के अंतर्गत प्रतिबंधित था।
कंपनीज कानून में संशोधनों ने उन प्रतिबंधों को हटा दिया कि राजनीतिक डोनेशन पिछले तीन वित्तीय वर्षों में कंपनी के कुल औसत लाभ से 7.5 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। इसका परिणाम यह है कि नई निगमित (इनकॉरपोरेटेड) कंपनियां भी बॉन्ड खरीद सकती हैं। घाटा उठा रही कंपनियों को राजनीतिक डोनेशन देने की अनुमति दे दी गई और सैद्धांतिक तौर पर किसी कंपनी को अपना पूरा शेयर पूंजी किसी राजनीतिक दल को हस्तांतरित कर देने से नहीं रोकती है। किसी नई कंपनी की पूरी शेयर पूंजी इन बॉन्ड में वैधानिक तौर पर डाल दी जा सकती है। इस तरह की कितनी शेल कंपनियों ने राजनीतिक दलों को धन दान किया है, हम नहीं जानते हैं। यह पूरी तरह हास्यास्पद ही है कि 2000 रुपये से अधिक के अनाम नगद दान प्रतिबंधित हैं जबकि एक करोड़ के अनाम दाम प्रतिबंधित नहीं हैं!
इस माह के आरंभ में एसोसिएशन ऑफ डिमॉक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) द्वारा आयोजित वेबिनार में सीपीएम के डॉ फुआद हलीम ने कहा कि चुनावी बॉन्ड ने कंपनियों को राजनीतिक दलों के साथ सीधा और अधिक ढिठाई के साथ संपर्क करने को कहीं अधिक आसान बना दिया है। कानून ने इनकी गुमनामी और उन्मुक्ति की गारंटी दे दी है और वे विपक्ष को धन देने से मुक्त हो सकते हैं। उन्होंने कहा कि संक्षेप में यह योजना सत्ताधारी दल को लाभ पहुंचाने के लिए बनाई गई है।
और पूछा जा सकता है कि घाटा उठा रही इकाइयों को राजनीतिक दलों को दान देने की अनुमति (बल्कि उन्हें इसके लिए प्रेरित करने) का क्या तुक है, निर्लज्ज इरादा संभावित डोनर के तौर पर शेल कंपनियों को बनाने की अनुमति देना लगता है। जैसा कि सीपीएम नेता ने कहा भी, किसी दिन कंपनी खोलने और अगले दिन अपनी पूरी शेयर पूंजी किसी राजनीतिक दल को सौंप देने पर कोई रोक नहीं है।
पूरी संरचना यह है जब हम जानते हैं कि चुनाव आयोग और आम आदमी अनभिज्ञ बना रहता है जबकि धन उगाही के स्रोत के बारे में केन्द्र सरकार और स्टेट बैंक को जानकारी रहती है। केन्द्र सरकार जानती है कि कौन.सी कंपनियां क्षेत्रीय पार्टियों और विपक्ष को दान दे रही हैं लेकिन चुनाव आयोग इस बारे में नहीं जानता। यह तिरछी नजर सत्ताधारी पार्टी को अन्य राजनीतिक दलों के साथ अनुचित मोल.भाव की शक्ति देती है जो सुविधा और समय के अनुरूप धौंस दे सकती है या ब्लैकमेल कर सकती है।
कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के निदेशक वेंकटेश नायक ने विस्तार से बताया है कि इस योजना ने किस तरह मतदाताओं से सूचना के अधिकार खास तौर से राजनीतिक फंडिंग के बारे में जानने के अधिकार को छीना है। 2016-17 में राजनीतिक दलों ने अनाम अन्य स्रोतों से 83 प्रतिशत दान में धन हासिल किए। सभी राष्ट्रीय और मान्यता प्राप्त दलों द्वारा घोषित डोनेशन 1361 करोड़ रुपये थे। कुल में से सिर्फ 10 प्रतिशत ही कॉरपोरेट डोनेशन थे। लेकिन 2019-20 तक चुनावी बॉन्ड कुल डोनेशन के 69 प्रतिशत थे। एडीआर का आकलन है कि पिछले चार साल में बीजेपी ने 4261 करोड़ हासिल किए जो कांग्रेस से छह गुना ज्यादा हैं। कांग्रेस को इस अवधि में 706 करोड़ रुपये मिले।
अनुत्तरित प्रश्न कई सारे हैं। उदाहरण के लिए, सत्ताधारी पार्टी ने रिजर्व बैंक के इस उचित दावे को नामंजूर क्यों किया कि केन्द्रीय बैंकर के तौर पर करेंसी की तरह के वचन पत्र जारी करने का अधिकार क्षेत्र उसका है, यह सुझाव क्यों नहीं स्वीकार किया गया कि इसे कागजी तौर पर नहीं बेचा जाए बल्कि सिर्फ डिजिटल रूप में बेचा जाए।
जब निर्वाचन आयोग ने आपत्ति की कि बॉन्ड को ऐसी मान्यता प्राप्त और राज्यस्तरीय पाटियों तक सीमित रखना जिन्होंने एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो पक्षपाती है। क्योंकि यह स्वतंत्र उम्मीदवारों और नई राजनीतिक पार्टियों तक पहुंच से रोकता है। इस आपत्ति को नामंजूर कर दिया गया।
यह भी रहस्य ही है कि निर्वाचन आयोग ने 2019 में सुप्रीम कोर्ट में 105 सीलबंद लिफाफों में क्या सौंपा। माना जाता है कि इनमें राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त बॉन्ड के विवरण हैं। स्टेट बैंक एकमात्र ऐसी इकाई है जो इन्हें बेचता है, इसके बदले धन देता है और विशेष बैंक खातों में धन को रखता है, कोर्ट स्टेट बैंक को विवरण देने को कह सकता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया।
कमोडोर लोकेश बत्रा के पूछे सूचना के अधिकार (आरटीआई) आवेदनों के जवाब में स्टेट बैंक ने इस बात पर जोर दिया कि चुनावी बॉन्ड के लिए सिर्फ 24 राजनीतिक दलों को विशेष खाते आवंटित किए गए हैं। अगर यह सच है तो 105 राजनीतिक दलों ने चुनाव आयोग के पास किस तरह और क्यों विवरण दाखिल किए।
शायद सरकार के दावे को इस तरह साधारण तरीके से विश्वसनीय बना सकता है कि चुनावी बॉन्ड कोई भी खरीद सकता है और अपनी इच्छा के मुताबिक किसी पार्टी को दान में दे सकता है। स्टेट बैंक इसकी गोपनीयता और राजनीतिक दलों के साथ परस्पर संबंध का दावा करता है, चुप्पी का नकाब बना रह सकता था। लेकिन सूची लीक हो गई और रिपोर्टर्स कलेक्टिव ने 105 में से कुछ पार्टियों से संपर्क किया तो स्पष्ट हो गया कि इनमें से अधिकांश ने चुनावी बॉन्ड से एक नया पैसा भी हासिल नहीं किया था। उन्होंने किया महज यह था कि उन्होंने यह भाव पैदा करने के लिए इसमें भाग लिया था कि वे इसमें शामिल हैं।
कलेक्टिव के असिस्टेंट एडीटर श्रीगिरीश जहिल ने 5 जनवरी, 2023 को एडीआर के वेबिनार में इस बारे में कुछ जानकारी दी। इन राजनीतिक दलों में असली 'देसी पार्टी' और 'हम' और आप पार्टी जैसे कुछ अनसुने नाम थे। एक का नाम तो 'सबसे बड़ी पार्टी' था। एक के पास कोई बैंक एकाउंट नहीं था। एक अन्य के बैंक खाते में सात सौ रुपये थे।
चुनावी बॉन्ड उस दंडमुक्ति के बारे में बताता है जिससे सत्ताधारी पार्टी चुनाव आयोग, रिजर्व बैंक, अपने कानून मंत्रालय, अपनी राज्य इकाइयों और नेताओं की अब अनदेखी कर सकती है। वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि विपक्ष क्यों कमजोर होता जा रहा है। अगर पहले से ही अपूर्ण लोकतंत्र को और अधिक अलोकतांत्रिक और अपारदर्शी बनाना लक्ष्य है, तो यह ऐसा करने का और भी कुटिल तरीका हो सकता है।
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