त्रिपूरा: चुनाव के बाद जारी हिंसा पर ‘चुप्पी’ नहीं है विकल्प
यह सच्चाई कि सीपीएम भी अतीत में हिंसा में शामिल रही है, उससे अभी उसके खिलाफ हो रही हिंसा जायज नहीं हो जाती। लोकतंत्र बदले की कार्रवाई और प्रतिद्वंदी हिंसा के सहारे नहीं चल सकता।
क्या त्रिपूरा में हो रही हिंसा की निंदा करने के काम को अकेले सीपीएम पर छोड़ देना चाहिए जो बीजेपी और उसके सहयोगियों की ‘विजयी सेना’ त्रिपूरा में हारी हुई सीपीएम पर कर रही है? क्या यह अकेले सीपीएम का काम था कि वह हमें विजेता बीजेपी द्वारा अपने सदस्यों के प्रति की जा रही क्रूरता और अपने कार्यालयों पर हमलों, विध्वंस और आगजनी के बारे में हमें सूचित करे?
क्यों राजनीतिक पार्टियों, मीडिया और हमारे उदार बुद्धिजीवीयों ने एक गहरी चुप्पी साध ली जब बीजेपी नेतृत्व द्वारा त्रिपूरा के पूर्व सीएम माणिक सरकार का मजाक उड़ाते हुए धमकी दी गई कि वे पश्चिम बंगाल, केरल या बांग्लादेश में अपने लिए छत तलाश सकते हैं?
हालांकि मीडिया ने लेनिन की मूर्ति को तोड़-फोड़ मचाते उत्सवधर्मी बीजेपी सदस्यों द्वारा ढहाए जाने की घटना की खबर एक सामान्य चीज की तरह दी। बीजेपी ने एक वक्तव्य जारी कर अपने सदस्यों से नियंत्रण बरतने को कहा है, और अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया जाएगा। क्या यह चेतावनी सिर्फ लोगों को दिखाने के लिए दी गई है? अगर नहीं तो क्यों पार्टी लेनिन की मूर्ति को ढहाए जाने की घटना और सीपीएम कार्यालयों पर हो रहे हमलों को सीपीएम के प्रति जनता के गुस्से का इजहार करार देते हुए सही ठहरा रही है?
सीपीएम द्वारा अपने ऊपर की जा रही हिंसा के दावों की सच्चाई जानने को लेकर भी मीडिया में उदासीनता है, खुद पहल लेकर तोड़-फोड़, हिंसा और आगजनी की रिपोर्ट करने की बात तो बहुत दूर है। यह दिखाता है कि मीडिया कितने गहरे दलदल में जा चुकी है। क्या यह हिंसा इतनी महत्वहीन है कि उसकी उपेक्षा कर दी जाए? या, फिर मीडिया को लगता है कि यह स्वाभाविक है? क्या यह मीडिया का कर्तव्य नहीं है कि वह यह पता लगाए कि सीपीएम हिंसा के आरोपों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा है या नहीं? या, मीडिया को यह लगता है कि कुछ हद तक विजेताओं द्वारा की जा रही हिंसा जायज है और इसे बर्दाश्त किया जाना चाहिए?
पिछले 25 सालों से राज्य की सत्ता पर काबिज सीपीएम इतनी निरीह हो चुकी है कि वह सिर्फ बीजेपी से ही यह अपील कर सकती है कि जबरदस्त जीत के बाद वह हिंसा को अंजाम न दे। हिंसा का प्रतिरोध करने की उसकी अक्षमता यह दिखाती है कि पार्टी के पास अपनी कोई ताकत नहीं है, इसके पास सिर्फ राज्य प्रशासन की ताकत थी। जिस तरह से इसने हिंसा को होने दिया, उससे तो यही साबित होता है कि पार्टी सिर्फ ताश के पत्तों का ढेर थी और उसके कार्यकर्ताओं का जन विचारधारा की बड़ी-बड़ी बातों में कोई खास भरोसा नहीं था। पश्चिम बंगाल में भी उसकी स्थिति कुछ ऐसी ही थी और सत्ता के अपने दिनों से उसे सिर्फ इतना हासिल हो पाया कि इसने लंपटों की एक फौज खड़ी कर ली, जिन्होंने सत्ता हाथ से जाते ही उन्हें छोड़ दिया। और उसके पास अपने प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं को देने के लिए कुछ भी नहीं बचा।
दूसरी तरफ, यह सच्चाई कि सीपीएम भी अतीत में हिंसा में शामिल रही है, उससे अभी उसके खिलाफ हो रही हिंसा जायज नहीं हो जाती। लोकतंत्र बदले की कार्रवाई और प्रतिद्वंदी हिंसा के सहारे नहीं चल सकता।
इस तरह की घटनाएं सभी राजनीतिक दलों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए, न कि सिर्फ उस राजनीतिक दल के लिए, जिसको निशाना बनाया जा रहा है। सबसे बेहतर ये है कि राजनीतिक दलों को इस मुद्दे को संसद में उठाना चाहिए और इसे सर्वदलीय मुद्दा बनाकर इसको लेकर राष्ट्रपति के पास जाना चाहिए।
त्रिपूरा में पुलिस का जो रवैया इन हमलों के प्रति है उससे भी यह पता चलता है कि वह भी दूसरे राज्यों की पुलिस की है और सत्ता में बैठे लोगों की गुलाम है। कल तक वे सीपीएम की सुन रहे थे और आज वे उस पर हमला करन वालों की बात मान रहे हैं। ऐसा लगता है कि उसे यह समझ नहीं है कि वह राज्य की मशीनरी का हिस्सा है और सौहार्द और कानून को बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है।
शुरूआत से ही बीजेपी का चुनावी अभियान हिंसक था। सीपीएम को बंगाल की खाड़ी में फेंक देने और हीरा के लिए माणिक को त्रिपूरा से निकाल देने की इसकी धमकी प्रतीकातमक रूप से हिंसक थी।
हमें इसे लेकर चिंतित होना चाहिए कि चुनाव अब युद्ध की तरह लड़े जा रहे हैं और बीजेपी अपने कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ाने के लिए हिंसक छवियों का इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकती। ऐसा लगता है कि ‘भारत को कब्जे’ में करने का अभियान चला रही है और वह सही या गलत हर तरीके से अपने इस लक्ष्य को पाना चाहती है।
बीजेपी की इस प्रतीकात्मक और शारीरिक हिंसा के खिलाफ नागरिक समाज, मीडिया और राजनीतिक वर्ग की चुप्पी सिर्फ सीपीएम के लिए नहीं, बल्कि सबके लिए बहुत महंगी साबित होगी।
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