दीपावली के साथ नफरत को नकारती दरगाहें, रौशन करती आ रही हैं गंगा-जमुनी तहजीब का चिराग
देवा शरीफ दरगाह के दरवाजे को कौमी एकता का दर कहा जाता है। उसके परिसर में नफरत या उत्तेजना फैलाने वाले नारे लगाने की सख्त मनाही होती है। वहां कौमी एकता बढ़ाने वाले नारे ही लगाए जाते हैं।
नफरत के कारोबारियों की बेबसी देखनी हो तो दीपावली के मौके पर गंगा-जमुनी तहजीब के दयार में आना चाहिए। अवध में जहां 'मारो-काटो, बांधो-बांटो, लूटो और जलाओ' की धरती चिंटुओं की तमाम तिकड़मों के बावजूद दीपावली हो या होली, दोनों के उल्लास के रंग सबसे ज्यादा सूफी संतों की दरगाहों में ही निखरते नजर आते हैं। खासकर दो विश्वप्रसिद्ध दरगाहों में जिनमें से एक को देवा शरीफ तो दूसरी को किछौछा शरीफ के नाम से जाना जाता है।
देवा शरीफ उत्तर प्रदेश की वर्तमान और अवध की पुरानी राजधानी लखनऊ से 42 और अवध का हृदय कहलाने वाले बाराबंकी जिले के मुख्यालय से महज 12 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। किछौछा शरीफ फैजाबाद (जो अब अयोध्या है) को बांटकर बनाए गए आम्बेडकर नगर जिले के मुख्यालय से अलग-अलग मार्गों से 17 से लेकर 22 किलोमीटर तक दूर है।
ये दोनों दरगाहें अरसे से हर दीपावली और होली पर पूरी शिद्दत से गंगा-जमुनी तहजीब का चिराग रौशन करती आ रही हैं। नफरत के कारोबारियों द्वारा पैदा की जा रही विपरीत परिस्थितियों से कोई वास्ता नहीं रखतीं।
देवा शरीफ की सीख है कि दीन को मानकर जो झगडे़ हैं, दीन को जानकर नहीं होते। इस दरगाह में ‘जो रब है, वही राम है’ के नारों के बीच होली के रंग और गुलाल उड़ने लगते हैं, तो किसी को भी अपना हिन्दू, सिख या मुसलमान वगैरह होना याद नहीं रह जाता।
देश के विभिन्न हिस्सों से दरगाह की होली में शामिल होने आए विभिन्न धर्मों, बोलियों और भाषाओं वाले श्रद्धालु लौटते हुए अपने साथ और कुछ ले जाएं या नहीं, अनेकता में एकता, शांति और सौहार्द के संदेश जरूर ले जाते हैं।
यह दरगाह अवध के अपने वक्त के जाने-माने सूफी संत हाजी वारिस अली शाह की स्थली है जिन्हें वारिस सरकार के नाम से भी जाना जाता है। यहां विभिन्न धर्मों के अनुयायी होली पर तो परस्पर मिलकर सौहार्द पूर्वक अबीर-गुलाल उड़ाते ही हैं, दीपावली पर दीये जलाकर दरगाह को भरपूर रौशन करते हैं और जश्न-ए-चरागां मनाते हैं।
दरगाह के दरवाजे को कौमी एकता का दर कहा जाता है। उसके परिसर में किसी भी अवसर पर किसी भी तरह की नफरत या उत्तेजना फैलाने वाले नारे लगाने की सख्त मनाही होती है। वहां कौमी एकता बढ़ाने वाले नारे ही लगाए जाते हैं।
कई लोग इसकी परंपराओं को अवध के नवाबों, खासकर नवाब वाजिद अली शाह और उनकी बेगम हजरत महल द्वारा पाली-पोसी जाती रही उस तहजीब से भी जोड़ते हैं जिससे हिन्दू-मुस्लिम का भेदभाव पनाह मांगता आया है।
यह भी कहा जाता है कि गंगा-यमुना के इलाकों में इस तहजीब को जिन भी लोगों ने पाला-पोसा हो, प्रवर्तित सूफी संतों ने ही किया। अवध में ऐसे कई सूफी संतों की जन्मस्थलियां और साधना स्थलियां स्थित हैं। इनमें मलिक मुहम्मद जायसी ने, जैसा कि उनके नाम से ही जाहिर है, जायस में जन्म पाया था। हालांकि जानकारों में इस बाबत मतभेद है कि वह उस जायस में जनमे थे जो रायबरेली जिले में है या उस जायस में जो पहले सुल्तानपुर जिले में था और अब उसको बांटकर बनाए गए अमेठी जिले का हिस्सा है।
किछौछा शरीफ में दीपावली के अवसर पर जैसा मेला लगता है, इस अर्थ में अलबेला है कि वैसा मेला कहीं और नहीं लगता। दीपावली के दिन से शुरू होने वाला यह मेला 40 दिनों तक लगा रहता है। यह अगहन मेला कहलाता है। इसमें देश के प्रायः हर कोने से लोग आते हैं। क्या शहरी और क्या ग्रामीण। इसमें दीपावली और एकादशी के अलावा बृहस्पतिवार के दिन को महत्वपूर्ण माना जाता है। दीपावली की रात दरगाह स्थित नीर शरीफ (सरोवर) के तट पर मोमबत्ती और घी के दीये रौशन किए जाते हैं और दरगाह परिसर को खुशबूदार अगरबत्तियों से सुवासित किया जाता है। इस दीपोत्सव को अगहन मेले का असली तेवर कहा जाता है जिसमें छोटे बच्चों का मुंडन भी करवाया जाता है।
इसके अतिरिक्त है गुस्ल मुबारक का दो दिन का मेला जिसमें जलसे के बाद दरगाह के संत मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी की मजार को 40 घड़े गुलाब और केवड़ा जल से नहलाया जाता है। फिर यह जल श्रद्धालुओं में वितरित किया जाता है। इस दरगाह की सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसका हर रंग सूफियाना और लासानी है। इस पर प्रायः साल भर अकीदतमंदों और फकीरों का जमावड़ा लगा रहता और कोई न कोई मेला होता रहता है।
संत मखदूम अशरफ जहांगीर सिमनानी की बाबत कहा जाता है कि वह ईरान के सिमनान प्रांत में पैदा हुए और 13 साल की उम्र में ही उसके शासक बन गए थे। लेकिन राजकाज में अपना मन नहीं लगा पाए, तो गद्दी छोटे भाई को सौंप दी और फकीरी की राह चल पड़े। दुनिया भर में सूफी मत का प्रचार करते हुए भारत आए और किछौछा पहुंचे, तो उसी के होकर रह गए। दरगाह के नीर शरीफ नामक सरोवर के बारे में प्रसिद्ध है कि सवा छह शताब्दी पहले उन्होंने खुद ही उसे खुदवाया था। इस सरोवर से यह मान्यता जुड़ी हुई है कि जो भी उसमें नहा लेता है, उसकी सभी बीमारियां ठीक हो जाती हैं।
दरगाह का सालाना उर्स मेला मोहर्रम महीने की 25वीं से 28वीं तारीख तक चलता है। यह 28वीं तारीख ही संत सिमनानी के दुनिया को अलविदा कहने की तारीख भी है।
परंपरा के अनुसार, इस मेले में सज्जादानशीन संत का सैकड़ों वर्ष पुराना खिरका मुबारक (खास तरह की पोशाक) धारण करता है जिसके दर्शन करने और दुआएं मांगने के लिए श्रद्धालुओं का मजमा लगा रहता है। मान्यता है कि इससे श्रद्धालुओं की सारी मन्नतें और मुरादें पूरी होती हैं।
उर्स के अलावा मोहर्रम का मेला मोहर्रम की तीसरी से 10वीं तारीख तक लगता है। इस दौरान दरगाह के आस्ताने से चौकी, अलम, निशान और ताजिये के जुलूस निकलते हैं जिनका दसवीं की रात्रि समापन होता है। तब नीर शरीफ के तट पर बड़े ताजिये के साथ कई छोटे-बड़े ताजिये भी दफनाए जाते हैं। इनमें बड़ा ताजिया अकीदतमन्दों द्वारा दरगाह पर चढ़ाई जाने वाली चादरों से ही बनाया जाता है।
रज्जब के महीने में लगने वाले दो सप्ताह के अजमेरी मेले का भी अलग ही आकर्षण होता है जिसमें अजमेर शरीफ जाने वाले जायरीन अपनी रवानगी से पहले यहां हाजिरी देकर संत की दुआ लेते हैं। इतना ही नहीं, हर महीने के पहले बृहस्पतिवार को नौचंदी मेला लगता है जिसे मासिक मेला भी कहते हैं।
(कृष्ण प्रताप सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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