बिहार के भागलपुर में हिरासत में इंजीनियर की मौत अकेला उदाहरण नहीं है पुलिस बर्बरता का, लेकिन कर कोई कुछ नहीं रहा
भागलपुर में आशुतोष का शव देखने से लगता है कि पुलिस ने उसके शरीर पर बेहिसाब डंडे बरसाए। यह तो एक तरीका है ही, हिरासत में प्रताड़ना के लिए पुलिस कई अन्य तरीके भी अख्तियार करती है। ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार को इन घटनाओं की गंभीरता का अंदाजा नहीं है।
घटना ताजा है...इसीलिए शुरुआत उससे ही। बिहार के भागलपुर में 26 अक्टूबर को बैरियर हटाने के मसले पर हुई आपसी तू-तू, मैं-मैं में बिहपुर पुलिस ने इंजीनियर आशुतोष कुमार की थाने में ले जाकर इतनी पिटाई की कि उनकी मौत हो गई। परिजनों और आसपास के लोगों ने सड़क जाम कर दी, तब इसकी जांच की औपचारिकता शुरू की जा सकी।
यह पुलिस का ऐसा चेहरा है जिससे हम सब परिचित हैं। पुलिस हिरासत में होने वाली मौतें दबंगई और उस खास वर्ग का निर्दयी काम है जिसे अलग- थलग कर नहीं देखा जा सकता। जब कानून-व्यवस्था लागू करने वाली एजेंसियां हिंसा करने वाली बन जाएं, तो यह अधिकार के दुरुपयोग का मनहूस मामला बन जाता है और यह उस लोकतांत्रिक शासन की कानून- आधारित व्यवस्था के नियमों के विपरीत है जहां मानवाधिकार सबसे ऊपर है।
भागलपुर में आशुतोष के शव को देखने से लगता है कि पुलिस ने उसके शरीर पर बेहिसाब डंडे बरसाए। यह तो एक तरीका है ही, हिरासत में प्रताड़ना के लिए पुलिस कई अन्य तरीके अख्तियार करती हैः शरीर में लोहे के कील चुभोना या ठोक देना, गुप्तांगों पर प्रहार करना, यौन अंगों पर बिजली के झटके देना, मलद्वार में डंडा या रॉड घुसेड़ देना, मुंह में पेशाब कर देना, विभिन्न अंगों को आग से जलाना, एड़ी पर डंडे बरसाना, दोनों पैरों को अलग-अलग दिशाओं में खींच देना आदि। कई बार तो आरोपी को बिजली के झटके दिए जाते हैं, उसके गुप्तांगों पर पेट्रोल या लाल मिर्च के पाउडर डाल देते हैं, हथकड़ी लगी हो, तब भी पिटाई की जाती है, सुइयां चुभोते हैं, लोहे की गर्म छड़ों से दागते हैं, नंगा कर या हाथ-पैर बांधकर उलटा लटकाकर पिटाई करते हैं, यहां तक कि कई बार ओरल सेक्स तक करते हैं, गर्भवती महिला के पेट पर लात या डंडे मारते हैं। इस तरह की घटनाएं वस्तुतः लोकतंत्र के लिए शर्मनाक ही हैं।
आम तौर पर ऐसी घटनाओं के बावजूद पुलिस वाले को दंडित नहीं किया जाता। 2017 और 2019 के बीच पुलिस हिरासत में हुई 255 मौतों को देखकर तो यही लगता है। 2006 में प्रकाश सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने और विभिन्न पुलिस सुधार आयोगों और समितियों ने भारतीय पुलिस कानून, 1860 में संशोधन के सुझाव- निर्देश दिए हैं। उन पर कार्रवाई की सख्त जरूरत है। इस बात की सबसे अधिक जरूरत है कि कानून- व्यवस्था लागू करने वाली पुलिस से जांच का जिम्मा अलग किया जाए और पुलिस फोर्स में भारी भ्रष्टाचार को कम करने के लिए यह काम इसी के लिए पूरी तरह समर्पित जांच एजेंसी को दिया जाए।
ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार को इन घटनाओं की गंभीरता का अंदाजा नहीं है। पिछली 13 जुलाई को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को पुलिस हिरासत में होने वाली मौतों को लेकर लागू कानून और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के दिशा निर्देशों के पालन पर राज्य, जिला और उससे नीचे के अधिकारियों को संवेदनशील बनाने को कहा है। वैसे, मंत्रालय पहले भी इस तरह के निर्देश दे चुका है लेकिन उससे कोई लाभ हुआ तो नहीं दिखता है।
अत्याचारों के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र समझौता, 1984 को 1987 में लागू किया गया। इस पर भारत ने भी हस्ताक्षर किए हैं। लेकिन इनसे संबंधित कानून देश में लागू नहीं हैं। जब यूपीए की सरकार थी, तब उसने लोगों के बंधन मुक्त मानवाधिकारों के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने के लिए हिरासत में या वैसे भी पुलिस की प्रताड़ना समाप्त करने के खयाल से संयुक्त राष्ट्र समझौते को लागू करने के लिए लोकसभा में विधेयक पेश किया था। लेकिन तब उन विपक्षी दलों ने उसका विरोध किया जो आज सत्तारूढ़ हैं। इसलिए उनसे ज्यादा उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए। एनएचआरसी को भी आंशिक तौर पर दोष दिया जाना चाहिए जो इस मामले में लोगों की अपेक्षा पर खरा नहीं उतरा है।
यह भी ध्यान में रखने की बात है कि अपने यहां जेलें भी बदहाल हैं। अभी अपने देश में 1,350 जेल हैं। लगभग सब में कैदियों की संख्या क्षमता से अधिक है। इनमें लोग अमानवीय स्थितियों में रहते हैं। संविधान में इन्हें सुधार का केंद्र माना गया है, पर हम जानते ही हैं कि ये वैसे नहीं हैं।
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