मृणाल पाण्डे का लेखः सड़क पर जनगणतंत्र विधाता
छात्रों की इस पीढ़ी के पास यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह की मजबूत वजहें हैं। शिक्षण संस्थाएं, शोध संस्थान और लाइब्रेरियां सबका पिछले छ: बरसों में विशुद्ध राजनीतिक बदले की भावना से और योजनाबद्ध तरीकों से पटरा बिठाया गया है। अर्थनीति तबाह और नौकरियां गायब हैं।
जिस गणतंत्र की तीन चौथाई आबादी 40 से कम उम्र की हो, यह मानना तर्कसंगत होगा कि उसकी दिशा-दशा वही तय करे। पर नहीं। प्राइम टाइम टीवी पैनलों और सुबह के संपादकीयों से इुस तर्क को सिरे से दफा करने वाली आवाजें निकलने लगी हैं। ये आवाजें सीएए के विरोध में सड़क पर उतरे युवाओं से कह रही हैं, चलो बहुत हुआ अब जाकर कुछ पढ़ाई की चिंता करो, इम्तेहानों की तैयारी में जुटो। कुछ नेता यह भी सीधे कहे दे रहे हैं कि छात्रों को राजनीति से वास्ता ही नहीं रखना चाहिए। समय आ गया है कि सारे छात्र संगठनों पर रोक लगाकर युवाओं की सारी विद्रोही हरकतों पर एकबारगी से ताला जड़ दिया जाए। भला कोई बात है, कि बजुुर्गों की अनसुनी करते हुए आप दा खिले नहीं होने दे रहे, कक्षाओं में नहीं जा रहे। नेट पर बस गंदी-गंदी छवियां देखते हैं और सड़कों पर मलिन बस्ती की औरतों-बच्चों के साथ रात-रात भर भाषण देकर, कविताएं गाकर बहुमूल्य समय गंवा रहे हैं! अरे मां-बाप पेट काटकर पढ़ा रहे हैं उसकी परवाह करो!
विडंबना यह, कि नेताओं की जो बुजुर्ग जमात छात्रों के भविष्य पर इतनी चिंता जता रही है, उसके कई सदस्यों की खुद की शैक्षिक योग्यता संदिग्ध है। 21वीं सदी के युवा वोटरों को अपनी विचारधारा में रंगने के लिए उनकी सरकार ने शासकीय मशीनरी की मदद से पुराने अनुभवी किंतु वैचारिक रूप से भिन्न मतवाले लोगों को हटा हटू कर अनुशासनात्मक कार्रवाइयों और नए उपकुलपतियों, निदेशकों की भर्ती से देश की कई अनमोल शिक्षा संस्थाओं को तबाह कर दिया है। खुद उसके छात्र संगठन पिछले बरसों में कितनी हिंसक झड़पों में शामिल पाए गए उससे उनको मतलब नहीं।
इससे भी उनको कोई आपत्ति नहीं कि आए दिन उनके अनेक जानेमाने नवरत्न नेता सार्वजनिक जनसभाओं में, दीक्षांत समारोहों में अंधविश्वास पर आधारित कूढ़मग्ज बयान देते रहते हैं, कि हमने रामायण काल में ही वायुयान बना लिए थे, कि गणेश का कायाकल्प हमारी प्राचीन शल्यक्रिया प्रवीणता का नमूना है, कि अर्जुन के बाणों में परमाणवी ताकत थी, आदि। जब ऐसे लोग छात्रों को नियमित कक्षाओं में जाने, गुरुओं का कहा और संस्थागत अनुशासन मानने, परीक्षा की तैयारी करने और सरकारी कानूनों को समर्थन देने को कहें तो उस पर हंसा ही जा सकता है।
पिछले सत्तर सालों से संविधान तले एकजुट भारतीय गणतंत्र के नागरिकों की दिली महत्वाकांक्षा रही है कि वे हजारों साल पुरानी सभ्यता के वारिस तो बनें, लेकिन साथ ही नवीनतम सोच और तकनीकी से एक आधुनिक राष्ट्रराज्य की ऐसी इमारत भी उनके चुने हुए जननेता बनाते जाएं, जिसके लिए जरूरत पड़ने पर दुनिया के दूसरे गणतंत्रों से नवीनतम गारा, सीमेंट और नई टेमप्लेटें बेहिचक आयात हों। छात्रों, युवाओं को परीक्षा में न्यायपूर्ण तरीकों से पास या फेल किया जाए। रोजगार दफ्तरों में नाम लिखाना इतना निरर्थक न बनता जाए।
याद रखें युवा जमात पहली बार किसी सरकार का विरोध नहीं कर रही है। पर जब तक वह विरोध आज के विपक्षी और तब के सत्तारूढ़ दलों के खिलाफ उमड़ता रहा, यही नेता ताली बजाकर कहते थे, बेटा तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। आज जब विरोध के निशाने पर वे खुद हैं तो बिना जायज आज्ञा के परिसरों में घुसे पुलिस और गुंडो के दस्तों से परिसरों पर आतंक फैलाया जा रहा है और प्राथमिकी तक ठीक से दर्ज नहीं की जा रही। यही नहीं, पहली बार सत्तारूढ़ दल के नेता दस्ते बनाकर मुख्यधारा के जेबी मीडिया से लेकर शिक्षण संस्थानों तक के बीच छात्रों को नए नागरिकता संशोधन कानून के महान गुणों और विपक्षी दलों के नापाक इरादों पर पर भाषण देने लामबंद हो रहे हैं।
आज का युवा अपने अभिभावकों से अधिक जानकारियां रखता है। नई सूचना संचार तकनीकी और सोशल मीडिया उसके बीच मुख्यधारा मीडिया की खामोशी के बावजूद तमाम संदिग्ध राजनीतिक फैसलों, प्रशासनिक कार्रवाइयों की सचित्र खबरें पलक झपकते वायरल कर रहा है। पहले की पीढ़ियों में जनविद्रोह की आंच आग बनने में समय लेती थी। पर आज हांगकांग, अमेरिका, यूरोप और भारत हर कहीं भूसे के ढेर में चिंगारी की तरह मिनटों में नया मीडिया किसी युवा ग्रेटा थनबर्ग, कन्हैया, आइशी घोष को फटाफट अकल्पनीय लोकप्रियता का कवच पहनाकर उसके पक्ष में भीड़ जुटा देता है।
सूचना और संवाद का यह प्रवाह इतना गहरा, इतना सर्वव्यापी और तेज है कि इस पर प्रभावी बांध बांधना एक गणतंत्र में असंभव है। कश्मीर में यह किया गया तो दुनियाभर से गहरी आलोचना ने सरकार को परेशान कर दिया। इस बार दिल्ली में जामिया से उठी लपटों ने विपक्ष शासित प्रदेश के नेतृत्व को नए काननू के प्रतिरोध का हौसला तो दिया ही है, अब उसने एनडीए शासित उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक को भी लपेट में ले लिया है। विपक्ष से उम्मीद करना कि वह सरकार की किरकिरी का लाभ नहीं उठाएगी बेवकूफी ही है क्योंकि खुद मौजूदा सरकार भी जब वह विपक्ष में थी ऐसी किसी भी स्थिति का फायदा उठाने से चूकी नहीं थी।
कुछ दिन उसे भ्रम रहा कि पुलिस सख्ती दिखाए तो डरकर छात्र वापिस लौट जाएंगे और सड़कों पर बैठी औरतें उनके बिना अपनी घर गृहस्थी की बाध्यताओं की वजह से धरने समाप्त कर देंगी। पर वह होता नहीं दिख रहा। इन धरनों के डिजाइन, किलेबंदियां, छात्रों के स्थानीय आमजन से मजबूत गठजोड़ और सभी धर्मों के संगठनों से सबके खानपान, रात की ठंड से बचाव की व्यवस्था, इस पीढ़ी की बुद्धिमानी के लक्षण हैं। छात्रों के चूजे जैसे दिलवाले हितू यह भी शायद भूल गए थे, कि छात्रों की इस पीढ़ी के पास यथास्थिति के खिलाफ विद्रोह की मजबूत वजहें हैं।
जैसा हमने पहले कहा, हमारी शिक्षण संस्थाएं, शोध संस्थान और लाइब्ररेियां सबका गुजिश्ता छ: बरसों में विशुद्ध राजनीतिक बदले की भावना से और योजनाबद्ध तरीकों से पटरा बिठाया गया है। शीर्ष नेतृत्व के सोशल मीडियाई सेल और चुनावी जुमलेबाजी ने एनडीए को दोबारा ताज तख्त भले दिला दिया हो, पर उसके उन वादों का खोखलापन आज छुपाए नहीं छुपता। अर्थनीति तबाह हो रही है, नौकरियां लगातार कम हो रही हैं और बेरोजगारों की तादाद विस्फोटक बन रही है। छात्रों के गुस्से की फौरी वजह जो हो, स्थायी वजह यही धोखाधड़ी है। और उसके प्रमाण सोशल मीडिया उनको 24x7 सबूत सहित दिखा रहा है।
अगर नागरिकता की बहस नए कानून के बहाने आज भी जारी है तो शुरुआत इसी मुद्दे से क्यों न की जाए? देश के सभी राज्यों की रायशुमारी के बिना असम में विफल साबित होने के बाद भी संविधान की बुनियाद को बदलने वाले कानून को केंद्रीय संसद से हर हाल में अपने बहुमत की धौंस से अभी के अभी पास करवाने की जिद क्या एक भारी गलती नहीं थी? एक संघीय गणतंत्र में क्या यह संभव था कि जर्राही के सारे औजार तो केंद्र के हाथों में हों, और राज्यों को हुक्म दिया जाए कि वे चुपचाप बेहोशी की दवा लेकर सर्जरी की टेबल पर लेट जाएं? सरकार को असल तकलीफ इसी बात से हो रही है। हिंदुत्व की क्लोरोफॉर्म दवा उनको ऊपर से सरल और कारगर लायक भले लगती हो पर वे मरीज का हक एक सिरे से कैसे भूल गए?
सत्तर सालों में यह अहसास पक्का होता गया है कि भारत का गणतंत्र जिस सांस्कृतिक धरातल से जीवनी पाता है वह मिलाजुला है। वह सिर्फ हिंदुओं की किसी अज्ञात इकहरी संस्कृति से नहीं बना और 2020 में विशुद्धतम हिंदू भवन निर्माण सामग्री भी अकेले एक टिकाऊ कारगर और जीवंत नया गणतंत्र नहीं रच सकती। रच सकती तो उनका वह अमर सांस्कृतिक फॉर्मूला छ: सौ बरसों तक किसी अजरअमर राजनीतिक संसार को काहे नहीं जिला सका?
भारत में कोई भी नया गणतंत्र बनाना है तो उसके लिए भी हर प्रांत से लाई मिट्टी, गारा, रोड़ी उसी तरह मिक्स करनी होगी, जैसा प्रतीकात्मक रूप से दुर्गा की प्रतिमा रचते समय किया जाता है। जो भाई लोग दुनियाभर में उपलब्ध नायाब निर्माण सामग्री को अछूत करार देते हुए भारत के गणतंत्र का इलाज अपने अकुशल हाथों से हिंदू निर्माण सामग्री से करने की बात करते हैं, वे मरीज के जीवन से खेल रहे हैं।
देश के हाल से जाहिर है कि उनका विशुद्ध हिंदू कौशल बहुत क्षिण, बहुत सीमित, बहुत अवैज्ञानिक आधार वाला है। असली हिंदू संस्कृति का सबसे कारगर उत्पाद समावेशी सहिष्णुता और विविधताओं को एक साथ पिरोने की क्षमता है। नई तकनीकी ने यह क्षमता कई गुना पुख्ता कर दी है और यह खुशी की बात है कि हमारे युवा नया भारत रचने में कहीं की ईंट कहीं के रोड़े वाली भानुमती बनकर अखिल भारतीयता का कई सालों बाद एक रचनात्मक इस्तेमाल कर रहे हैं। हमारे संविधान निर्माताओं की आत्माएं उनको, जहां भी वे हैं, वहां से निश्चित ही असीसती होंगी।
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