राष्ट्रबलि से गौपूजा; 1966 का वो दौर जब गोहत्या रोकने के लिए कानून बनाने के चले आंदोलन
पशुओं के लिए चारागाह और चारा कम होता जा रहा है। दूध के लिए पशु रखने वाले गाय के नाम से ही आतंकित हैं। परेशान हैं कि गाय के सूख जाने और बूढ़ी हो जाने पर क्या होगा?
सांप्रदायिक मदांधता और उत्तेजना के परिणाम यह देश खूब भुगत चुका है। इस देश का भौगोलिक रूप और आकार तक ऐसी उत्तेजना की आग से झुलस चुका है परंतु हमारी जनता उन अनुभवों को बहुत जल्दी भूलने लगी है। सात नवंबर को दिल्ली में गोवध-विरोध आंदोलन के प्रसंग की घटनाएं चेतावनी दे रही हैं कि हमारी जनता फिर सांप्रदायिक उत्तेजना का शिकार बन सकती है। इसमें संदेह नहीं कि इस देश की बहुत बड़ी जनसंख्या के सांप्रदायिक विश्वास के अनुसार अनुपयोगी गाय-बैल का भी वध निषिद्ध और पाप है। यह भी मानना होगा कि इस देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो सांप्रदायिक आस्था के कारण किसी भी पशु-पक्षी, मछली तक का आहार निषिद्ध और पाप मानते हैं और ऐसे भी संप्रदाय हैं जो किसी भी जीव, यहां तक कि खटमल, मक्खी और महामारियां उत्पन्न और प्रसार करनेवाले कीट-पतंग-जीवाणुओं तक का विनाश पाप मानते हैं। यदि राष्ट्रीय समस्याओं और जनजीवन से संबद्ध प्रश्नों के लिए सरकारी कानूनों का आचार विभिन्न जनसमूहों की सांप्रदायिक भावनाओं को मान लिया जाए तो उपर्युक्त सांप्रदायिक विश्वासों की भी उपेक्षा नहीं की जा सकेगी। परंतु इस राष्ट्र और देश की लोकायत (सेक्यूलर) धर्मनिरपेक्ष सरकार राष्ट्रीय रक्षा की चिंता में मानव स्वास्थ्य के लिए घातक जीवों का संहार निरंतर करवा रही है। उसका शुभ परिणाम मलेरिया आदि रोगों के उन्मूलन के रूप में सामने है। अनेक लोगों के निरामिष भोजन के सांप्रदायिक विश्वासों के बावजूद हमारी सरकार सार्वजनिक स्वास्थ्य सुधार और खाद्य समस्या के हल के लिए अंडे, मुर्गी, मछली और सुअरों के उत्पादन और वितरण को सरकारी व्यय से प्रोत्साहन दे रही है। निरामिष में आस्था रखनेवाले लोग मांस-मछली के प्रयोग के लिए कोई विवशता अनुभव नहीं कर रहे और इन सब व्यापारों के प्रति सहिष्णुता का व्यवहार कर रहे हैं। ऐसे ही व्यवहार की आशा अन्य जन की वैयक्तिक स्वतंत्रता और सार्वजनिक हित के विचार से गोवध को निषिद्ध और पाप माननेवालों से भी की जानी चाहिए। हमारे देश और राष्ट्र का संविधान और शासन लोकायत है। हमारे गणतंत्र में संविधान और शासन की दृष्टि से सभी संप्रदायों की स्वतंत्रता का समान मूल्य है। विभिन्न संप्रदायों की आस्थाओं के अनुसार उनके लिए विभिन्न पदार्थों का उपयोग निषिद्ध या पवित्र हो सकता है परंतु संपूर्ण लोकायत राष्ट्र के लिए संविधान और कानून के आधार पर दो ही या व्यवहार निषिद्ध हो सकते हैं- प्रथम किसी भी वर्ग की विशिष्ट स्थिति की इच्छा और दूसरा राष्ट्रघात। केवल दो ही लक्ष्य पवित्र हो सकते हैं- मानव हित और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए विकास। इस देश की समस्याओं, गोवध-गोपूजा की समस्या को भी हमें राष्ट्र के सार्वजनिक हित के दृष्टि से देखना और स्वीकार करना होगा। गोपूजा की भावना से राष्ट्रहित का बलिदान नहीं किया जा सकता।
हम विश्वास करना चाहते हैं कि गोवध विरोधी आंदोलन के मूल में भी राष्ट्रहित की भावना है। गोवध विरोध का आंदोलन करने वाले राष्ट्र के स्वास्थ्य के लिए दूध और खेती की अवस्था सुधारने के लिए देश में गाय-बैल की मौजूदा संख्या पर्याप्त नहीं समझते। पर वास्तविक स्थिति उसके विपरीत है। भारत में दूध और दूध से उत्पन्न पदार्थों की कमी जरूर है परंतु गौओं की संख्या हमारे देश में संसार के सब देशों से अधिक है, और प्रति पांच मनुष्यों के लिए हमारे देश में तीन से अधिक गायें मौजूद हैं, वे दूध दे सकें, न दे सकें। भैंसों की संख्या इसके अतिरिक्त है जो दूध का प्रमुख साधन हैं। देश में संभवतः सत्तर प्रतिशत दूध भैंसों से ही मिल रहा है। सरकार के पशुपालन (एनिमल हस्बैण्डरी) विभाग के किसी भी जिम्मेदार कार्यकर्ता से जानकारी प्राप्त की जा सकती है। पशुपालन विभाग के जिन अफसरों से मिलने का अवसर हुआ, वे सभी हिन्दू थे। सभी जानकार लोग इस विषय में एकमत हैं कि 1947 से देश के अनेक राज्यों में गाय-बैल के वध पर प्रतिबंध आ जाने के परिणामस्वरूप उन राज्यों में गाय-बैलों की अवस्था गिरती जा रही है और उनकी समस्या में सुधार की कोई संभावना नहीं है। कारण स्पष्ट है। जनसंख्या की बढ़ती के कारण खेती के लिए अधिकाधित भूमि जोती जा रही है। पशुओं के लिए चारागाह और चारा कम होता जा रहा है परंतु इनकी संख्या- बकरी, भैंस की ही नहीं बढ़ती जा रही है। दूध के लिए पशु रखने वाले गाय के नाम से ही आतंकित हैं। गाय के सूख जाने व बूढ़ी हो जाने पर क्या होगा? भैंस से यह आतंक नहीं है। भैंस के अनुपयोगी हो जाने पर उससे छुटकारा कठिन नहीं। इस गोपूजक देश में परिणाम यह है कि आज गाय की कीम पूर्वापेक्षा बहुत गिर गई है और भैंस की कीमत कई गुना बढ़ गयी है। किसान यदि गाय रखता है तो केवल बैलों के प्रयोजन से। गाय यदि बछड़ी देती है तो उसका मुंह उतर जाता है। पशुओं की अवस्था में सुधार का एकमात्र उपाय, आवश्यकता के अनुकूल उनकी संख्या का नियंत्रण ही हो सकता है। दूसरी संभव कल्पना है अन्न की उपज की चिंता न कर देश की भूमि बूढ़े गाय-बैलों के लिए घास-चारा उत्पन्न करने में लगा दी जाए। यदि गोवध विरोधी आंदोलन का ऐसा सुझाव है तो आगामी चुनाव इसी प्रश्न पर हो जाएं।
यह भी मनोरंजक स्थिति है कि गोवधविरोधी आंदोलन की उत्तेजना दिखाई देती है राजधानियों, चुनाव के अखाड़ों- नगरों में जहां चार-पांच हजार व्यक्तियों में कोई बिरला ही गाय पालता है। दूध अस्सी प्रतिशत लोग पीते हैं भैंस का। इस आंदोलन का प्रयोजन है गोभक्ति के नाम पर भोली जनता के वोट बटोरना। गोपालन का बोझ तो है गांवों में किसानों पर। किसी भी देहात में अस्थिपंजर मात्र, भूख से सूखी गौओं और बूढ़े बैलों को आवारा घूमते पाइएगा। किसान को बैल चाहिए इसीलिए वह गाय पालने को मजबूर हो जाता है, वर्ना वह गाय को समीप न फटकने दे। उसकी विकट समस्या है कि अपने अति सीमित साधनों से हल जोतनेवाले बैल या दूध देनेवाली भैंस का पेट भरे या अनुपयोगी हो चुकी गौओं और बूढ़े बैलों का। किसान सिर पर बोझ बने बूढ़े गाय-बैलों को खुला छोड़कर हांक देते हैं। भूखे पशु पड़ोसी का खेत चरते हैं। परिणाम में सिरों पर लाठियां और छप्परों में आग। बूढ़े गाय-बैल के लिए कांजी हौज का भी द्वार बंद। उसे छुड़ाने के लिए कौन पैसा देगा? इन बेकार पशुओ को रुपये दो रुपये में भी नीलाम नहीं किया जा सकता। गाय-बैल ऊसर-बंजर में भूखे सिसक-सिसककर दम तोड़ते हैं, तब उनकी खाल का कुछ बन जाता है, जीवित अवस्था में नहीं। भैंस को ऐसी दुर्गति नहीं सहनी पड़ती। जब देती है, भरपेट चारा-पानी पाती है, उस की देख-भाल की जाती है। बूढ़ी हो जाने वह दूसरे उपयोग के लिए बिक जाती है। उसे भूखे सिसक-सिसककर दम नहीं तोड़ना पड़ता। नगरों-कस्बों में भी स्थिति भिन्न नहीं है। भैंस शायद कभी ही लावारिस आवारा घूमती दिखाई देगी किंतु गाय किसी भी बाजार चौराहे पर कूड़ा- करकट, गंदे, चीथड़े और मैला खाती और बाजार में सड़क पर रात काटती दिखाई देगी। सम्मान से पालन किया जाता है भैंस का, आंदोलन किया आता है गोरक्षा का। यदि हम स्वयं अनुपयोगी गाय का पेट भरने, उसकी सेवा के लिए तैयार नहीं, तो दूसरे लोगों या राष्ट्र से ऐसी मांग किस अधिकार से कर सकते हैं? पशुओं के संबंध में एक ही दृष्टिकोण व्यावहारिक और न्यायसंगत हो सकता है- पशु का मालिक उसे कब तक पाल या संभाल सकता है। इस संबंध में आंदोलन का क्या प्रश्न? गाय की अवस्था में सुधार तभी हो सकता है जब वह जनता के लिए उपयोगी हो और उनकी संख्या आवश्यकता के अनुसार हो। गोरक्षा में या गो-पूजा के लिए जनहित का बलिदान करने की नीति राष्ट्र-हत्या के अतिरिक्त और क्या होगी?
हमारा देश और राष्ट्र लोकायत गणतंत्र है। इस राष्ट्र के संविधान के अनुसार सभी उक्तियों, सांप्रदायिक समाजों को अपनी आस्था और विश्वास के अनुसार किसी भी पदार्थ के व्यवहार को पवित्र-अपवित्र, भक्ष्य-अभक्ष्य मानने का पूरा अधिकार है। परंतु अपने धर्मविश्वास को दूसरों पर लादने की इच्छा, दूसरों की धार्मिक स्वतंत्रता पर आक्रमण होगा। अंडा-मुर्गी, सुअर, भैंस, बैल सभी जीवों के संबंध में यह सिद्धांत समान रूप से लागू होने चाहिए। गोवध और गोरक्षा की राष्ट्रीय समस्या केवल राष्ट्र के पार्थिव और आर्थिक हित की दृष्टि से मानी जा सकता है, किसी संप्रदाय की रागात्मक भावना या इमोशन के आधार पर नहीं। आजकल हम अपने देश के नगरों, कस्बों के स्टेशनों, मार्गों, चौराहों पर पत्र-पत्रिकाओं में परामर्श और चेतावनी के विज्ञापन देखते हैं: सीमित या नियोजित परिवार, सुखी परिवार। हमारी सरकार भी देश की जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ जाने से चिंतित है। सभी समझदार लोग इस प्रश्न पर सहमत हैं। वह कितने विस्मय और चिंता की बात है कि हम अपनी जनसंख्या को देश के साधनों के अनुकूल सीमित रखना तो आवश्यक समझें परंतु अपने गाय-बैल की संख्या को देश के साधनों के अनुकूल रखना पाप मानने का आग्रह करें। हमें साधनों के अभाव में देश की जनता के स्वास्थ्य के ह्रास या निरन्न मर जाने की चिंता तो है परंतु चारे और स्थान के अभाव में गाय-बैल की अवस्था में ह्रास और उनके भूख से सिसक कर दम तोड़ने की चिंता नहीं- यही गोपूजा है? क्या हमारे राष्ट्र के बहुमत के लिए मानव की अपेक्षा गाय-बैल अधिक पवित्र और पूज्य हैं? ऐसे विश्वास मानवहित और राष्ट्रहित के लिए कल्याणकारी नहीं माने जा सकते।
किसी भी संप्रदाय- चाहे वह बहुसंख्यक ही क्यों न हो, की रागात्मक भावना को मानवहित और राष्ट्रहित से ऊंचा मानकर उसे अन्य संप्रदायों पर लादने की महत्वाकांक्षा लोकायत गणतंत्र के आदर्श और व्यवहार के विरुद्ध और अन्य संप्रदायों के प्रति घोर अन्याय होगा। ऐसा व्यवहार स्वयं अपने लोकायत गणतंत्र को विरूप और असफल करने का प्रयत्न होगा। ऐसी महत्वाकांक्षाओं का परिणाम अनंत सांप्रदायिक संघर्षों को ही जन्म देना होगा।
यह चिंता और खेदजनक पहेली है कि गोरक्षा के प्रश्न पर जनता की रूढ़िगत सांप्रदायिक भावनाओं को उत्तेजना देकर बहकानेवाले तो सक्रिय हैं परंतु राष्ट्र को सशक्त, स्वस्थ, आत्मनिर्भर और विकासशील बनाने के लोकायत लक्ष्यों को ध्येय बताने वाले सबल राजनैतिक संगठन- कांग्रेस, कम्युनिस्ट (दक्षिण और वाम), प्रसोपा, संसोपा इस महत्वपूर्ण समस्या पर भ्रम फैलाने के प्रयत्नों की उपेक्षा कर रहे हैं। सब से अधिक विस्मय तो है केन्द्रीय सरकार और विभिन्न राज्य सरकारों की बेपरवाही पर। इन सरकारों के सूचना विभाग जनसंख्या नियोजन की सद्बुद्धि तो जनता को देते हैं परंतु पशु संख्या के नियोजन के प्रश्न पर चुप हैं। राजनैतिक प्रभाव रखनेवाले व्यक्तियों और संगठनों के मौन का कारण यदि आगामी चुनावों में भ्रम में फंसी भीड़ के वोट खो देने की आशंका है तो इस संकीर्ण समझदारी को जनता के प्रति विश्वासघात और राष्ट्रहत्या में मौन सहयोग के अतिरिक्त क्या कहा जा सकता है?
(लेख का संदर्भ नवंबर, 1966 में गोहत्या रोकने के लिए कानून बनाने के चले आंदोलन से है। यह यशपाल की पुस्तक ‘यथार्थवाद और उसकी समस्याएं’ में संकलित है।)
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