मृणाल पाण्डे का लेखः दुनिया के लिए अभूतपूर्व चुनौती है कोविड-19

यह महामारी जो सवाल हमारे बीच फेंक रही है, उनके लिए न चाहते हुए भी कई ऐसे भौतिक कायदे-नियम जो बेकार साबित हुए हैं, उन्हें कूड़ेदान में फेंककर राज और समाज-दोनों के वास्ते ऐसे नए ब्लूप्रिंट बनाने पड़ेंगे जो एक बहुधर्मी, बहुवर्गीय समाज को अब और बिखरने न दें।

अतुल वर्धन
अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

अब तक दुनिया के हर देश को मालूम हो गया है कि कोविड19 की भयावह सर्वव्यापी चुनौती स्वास्थ्य और ग्लोबल अर्थव्यवस्था के लिए मानव इतिहास का सबसे बड़ा खतरा बन चुकी है। बात-बात में घर-घर घुस कर मारने की धमकी देते नेतृत्व को भी मालूम है कि इस चुनौती से निबटने के लिए कानून की राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे, काननू-प्रशासन के ठप्प हो जाने या आर्थिक आपातकाल के खिलाफ अनुच्छेद 352, 356 या 360 नाकाफी हैं। इस समय महान से महान नेता भी सिर्फ नैतिक बल का उपयोग करके सारे देश को अपने ही बचाव के लिए अनिश्चित समय तक घर में बंद रहने को प्रेरित कर सकता है।

रविवार 22 मार्च के लिए प्रधानमंत्री का राष्ट्र के नाम गंभीर संदेश इसी कारण उनके सामान्य भाषणों के झागदार उफान से काफी अलग दिखता था। लेकिन शायद उनको भी अनुमान नहीं होगा कि शाम पांच बजे घर से बाहर आकर थाली और ताली बजाने का उनका आह्वान एक सही कदम के अंत में लगातार धार्मिकता के दिखावे को हुमकती जनता के बीच उससे भारी अवैज्ञानिक गलतियां करा जाएगा। सो जनता कर्फ्यू द्वारा राष्ट्रीय संकल्प का एक प्रतीकात्मक प्रदर्शन शाम को लगभग गणेशोत्सव या प्रभातफेरी की तरह भीड़ जुटा कर किया गया।

इसमें हाथ हिलाते मटकते बच्चे, बूढ़े, जवान, मीडिया और बॉलीवुड सब शामिल हुए। ऐसी भीड़भाड़ से, जानकारों के अनुसार, वायरस से बचाव की बजाय संक्रमण का खतरा और भी बढ़ गया। नतीजतन सोमवार 23 मार्च को देशभर में पूरे लॉकडाउन की घोषणा कर दी गई, सार्वजनिक यातायात रोक दिया गया और इतिहास में पहली बार रेलों की आवाजाही पूरी तरह बंद कर दी गई। इस लॉकडाउन की अवधि इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अज्ञात बनी हई है।

यह सही है कि 2020 का भारत पहले की तरह विपन्न या अनपढ़ नहीं है। पहले की प्लेग या हैजे या चेचक- जैसी महामारियों का खतरा अब नहीं रहा। पर न भूलें कि यह जो महामारी है, उसका मिजाज या निरोधक टीका अब तक वैज्ञानिक भी पता कर ही रहे हैं। फिर भी सारे देश को चुटकी बजाते ठप्प कर देने के अपने खतरे हैं, जो महामारी के निबट जाने के बाद भी दूर तक जाएंगे और अब तक की तरक्कियों की एक हद तक वाट लगा देंगे।

लोगों या माल की आवाजाही पर पूरी रोक का पहला और सबसे गहरा असर उस वर्ग पर होगा जो अभी-अभी निपट गरीबी की कगार से ऊपर उठ चला था। सरकारी खजाने से या ठेकेदारों से उनको सीधे भत्ते दिलवाना हंसी-खेल नहीं। दिहाड़ी पर जीते रहे गरीबों की भारी तादाद है जिनको जीवित रहने के लिए तुरंत अन्न-धन की मदद चाहिए। लेकिन नेकनीयती के बाद भी सरकारी फैसलों, कार्रवाई का ब्लूप्रिंट रचने के बाद उसके द्वारा असली जरूरतमंदों को वितरित होने की गति अक्सर कैसी घोंघे- जैसी साबित होती है, यह दुहराने की जरूरत नहीं।


लोकल ट्रेनें बंद होने से सरकार द्वारा दो अबाधित घोषित की गई सेवाओं से जुड़े लोगों- स्वास्थ्य कर्मियों और मीडिया की सुरक्षा तथा आने-जाने की क्षमता पर गहरा असर पड़ा है। पुलिस कर्फ्यू लगते ही हर मौके पर जनता पर दबंगई कैसे दिखाती है, इसका प्रमाण एक टीवी चैनल से जुड़े पत्रकार नवीन कुमार का ताजा फेसबुक ब्लॉग है, जिसके अनुसार, लॉकडाउन के अगले ही दिन काम पर जाते हुए कर्फ्यू पास तथा पत्रकारिता का प्रमाणपत्र दिखाने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने उनकी जमकर धुनाई कर दी। उन्होंने उन पुलिसकर्मियों के नाम भी दिए हैं, पर उन पर कठोर कारवाई होगी, इसका अब तक कोई प्रमाण नहीं।

खतरा भारी है लेकिन अंतत: इस बंध के पूरे पालन की अपेक्षा नागरिकों से ही की जाती है, जिनमें से कई के रोजमर्रा के जीवन पर गहरा खतरा बन गया है। इतनी बड़ी भूखी विकल आबादी से मारपीट या पुलिसिया दमन किया गया तो उसके उलटे नतीजे निकल सकते हैं। ताइवान और चीन ने थोक के भाव नहीं, सैटेलाइट ट्रैकिंग और क्यूआरकोड की मदद से सुरक्षित और असुरक्षित माने गयों की पहचान की और असुरक्षित नागरिकों पर रोक लगाई।

वहां अब बीमारी ढलान पर है, लेकिन उसकी कीमत हजारों अनाम नागरिकों ने दी है जो लंबे समय से एकछत्र तानाशाहों की हुकूमत तले रहते आए हैं। सबको पता है कि उनकी सरकारों ने शुरुआती महीनों में कोरोना वायरस से बड़ी तादाद में हुई मौतों को छुपाया और उसका खुलासा करने वाले डॉक्टर को प्रताड़ित किया। क्या हम भी यही चाहते हैं?

गरीब आम नागरिकों के पास हमारे यहां वैसे ही बहुत सीमित निजत्व के अधिकार हैं, अब सुनते हैं सरकार जिन घरों में बीमार हैं, उनको चिह्नित करेगी। यह खतरनाक है। उत्तर-पूर्वी राज्यों के कई छात्रों को चीनी बताकर दिल्ली के कुछ लोगों द्वारा उनको सरेआम अपमानित करने के कई मामले सामने आए हैं। जाहिलपने से भरे और लगातार असहिष्णु बना दिए गए देश में पूरी की पूरी बस्ती या प्रांत विशेष के लोगों को चिह्नित करना बारूद को तीली दिखाना साबित न हो और इसकी गाज सरकार पर भी गिरेगी। यह स्मरणीय है कि 1897 में महामारी फैलने पर पुणे के प्लेग कमिश्नर ने जब जनता के साथ कठोर बरताव किया तो उसकी हत्या कर दी गई।

सभी अर्थशास्त्री इस पर एकमत हैं कि महामारी की चपेट में आकर घरेलू ही नहीं सारी दुनिया में अचानक कारोबार रुकने, शेयर बाजारों की भारी गिरावट और आयात-निर्यात ठप्प पड़ जाने से हमारी पहले से ही सुस्त पड़ चुकी अर्थव्यवस्था और उपक्रमों पर भी आज भारी विनाश मंडरा रहा है। भारत के सामने दोहरी चुनौती है। नाजुक दौर से गुजर रहे उसके अनेक छोटे और मंझोले उपक्रम जब पहले ही बैंकों के कर्जे न चुका पा रहे हों, ऐसे में आज उनको सहारा देने के लिए सरकार क्या उनको और भी कर्जा देकर पैसा पानी में जाने का खतरा मोल ले या उनको मिट जाने दे?

डर है कि यह उपक्रम मिट गए तो लाखों नए बेरोजगार बाजार में उतर कर सरकार के प्राण अकच्छ कर सकते हैं। तो क्या सरकार खाली हाथ उपक्रमों को सरकारी हस्पतालों के लिए तुरंत सैनिटाइजर, मास्क, दस्ताने और अन्य जीवनरक्षक मेडिकल सामान बनाने के लिए पैसा दे दे जिनकी इस समय चिकित्सा क्षेत्र के बीच भारी कमी है?


पर फिर वही लालफीताशाही आड़े आएगी। बाबू पूछेंगे कि सर टेंडरों की प्रक्रिया का क्या होगा? तब क्या स्थानीय विकास कार्यक्रमों के लिए आवंटित राशि को निपट गरीबों को कैश अनुदान के वास्ते खर्चा जाए? बाबू कहेंगेः सर, उसके लिए पहले क्षेत्रवार गरीबों की सरकारी लिस्टें बनानी होंगी। यहां राजनीति भी अपनी टांग अड़ाएगी। उसकी अपनी चुनावी प्राथमिकताओं के तहत विपक्ष के सुशासित प्रदेशों की बजाय कई बहुमतवाली सरकार शासित प्रदेशों की पौबारह हो सकती है, जहां न तो सही चिकित्सा उपकरण वाले अस्पताल हैं और न ही चिकित्सक।

इन सवालों के फिलहाल साफ जवाब दे सकना नाममुकिन है। हम एक ऐसे अभूतपूर्व महायुद्ध की सी स्थिति से गुजर रहे हैं, जिसका अंत अभी वेदव्यास भी नहीं बता सकेंगे। जो सवाल यह महामारी हमारे बीच फेंक रही है, उनके लिए न चाहते हुए भी कई ऐसे भौतिक कायदे-नियम जो बेकार साबित हुए हैं, कूड़ेदान में फेंककर राज और समाज-दोनों के वास्ते ऐसे नए ब्लूप्रिंट बनाने पड़ेंगे, जो एक बहधुर्मी, बहवुर्गीय समाज को अब और बिखरने न दें।

राजनीति के उलट विज्ञान की भाषा इस मायने में हमेशा धर्मनिरपेक्ष होती है कि दुनियाभर के वैज्ञानिकों का सारा समुदाय अपने पेशे के संदर्भ में उसको मानता-जानता है। इसीलिए राजनीति जहां हमारे नेताओं को धर्म, जाति और क्षेत्र के आधारों पर इस या उसके पक्ष में झुकाती है, विज्ञान की तरफ से हमेशा धर्म-जाति निरपेक्षता की तरफ दबाव पैदा होता है क्योंकि सभी सच्चे वैज्ञानिक एक ही सत्यनिष्ठ मनोभूमि के बनाए हुए जीव हैं। इसीलिए उनके बीच राष्ट्रीय और धार्मिक पहचान भले ही बनी रहे, ज्ञान का आपसी आदान-प्रदान नहीं रुकता।

जब आइनस्टाइन गीता पढ़ते हैं या कलाम वीणा बजाते भी हैं, तो हिंदू या भारतीय कलाकार बन कर नहीं, विश्व मानव बन कर। जबकि यही काम राजनेता करते हैं, तो मूल भावना भाषण के तमाम बांकपन और भाषागत चुस्ती के बावजूद सामंती रहती है। धर्मसत्ता सापेक्ष राजनेता के जनता कर्फ्यू के ऐलान वाले भाषण की परिणति जनता को घर से निकल कर धार्मिक घंटा-घड़ियाल बजाकर कीर्तन करने की तरफ खींचती है। यह होना हर मंच पर एक धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक गणतंत्र के भीतर बढ़ते दुचित्तेपन (स्कित्सोफ्रीनिया) का प्रतीक है।

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