एक बार फिर आर्थिक संकट में घिरा हुआ है देश, लेकिन सरकार ने तो जैसे हथियार ही डाल दिए
बात चाहे 1991 की नीतिगत ढांचे में बदलाव की हो या 2012-14 की नीतिगत पहल से किसी संकट से निपटने का तरीका, यह स्पष्ट सोच और साहसिक निर्णय लेने की हिम्मत पर निर्भर करता है। आज देश फिर आर्थिक संकट में है,लेकिन फैसलों के बजाए सरकार ने हथियार ही डाल दिए हैं।
देश की अर्थव्यवस्था को नई राह पर ले जाने वाला 1991 का बजट पेश करने वाले तत्कालीन वित्तमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने हाल ही में सरकार को आगाह किया है कि यह वक्त आनंद और उल्लास का नहीं बल्कि आत्मनिरीक्षण और चिंतन का है और प्रत्येक भारतीय को स्वस्थ और सम्मानजनक जीवन देने के लिए एक राष्ट्र के तौर पर जरूरत इस बात की है कि हम हमारी प्राथमिकताओं को नए सिरे से तय करें।
वास्तव में आगाह करने का यह सही समय है जब देश आजादी के बाद सबसे संकटपूर्ण हालात से गुजर रहा है। कोविड-19 ने न केवल बड़ी संख्या में भारतीयों का जीवन तबाह कर दिया है बल्कि इसने अर्थव्यवस्था को भी बर्बाद कर दिया है। करोड़ों लोगों का काम-धंधा छूट गया है और करीब 20 करोड़ लोग वापस गरीबी रेखा के नीचे चले गए हैं। यह ऐसी स्थिति है जिसे पलटने में देश को सालों लग जाएंगे। इसलिए यह जरूरी हो जाता है कि हम दोबारा इस बात पर विचार करें कि हमने क्या-कुछ हासिल करने के सपने देखे थे और कहां क्या चूक रह गई।
नियामक चक्रव्यूह वाली व्यवस्था से निकलने और नियंत्रित माहौल में आगे बढ़ने के लिए मशक्कत करती सरकार-नियंत्रित अर्थव्यवस्था ने 1991 में उदारीकरण के रूप में ऐसे नए युग में प्रवेश किया था जिसके मूल में निजी क्षेत्र को रखते हुए उसके लिए तमाम तरह के बंधन खोल दिए गए थे और इसी के साथ शासन के दर्शन में भी एक आदर्श बदलाव दिखा। भले 1991 के बाद से विभिन्न विचारधाराओं वाली पार्टियों ने देश पर शासन किया हो लेकिन हर सरकार ने उसी रास्ते का अनुसरण किया है। उदारीकरण के सिद्धांतों पर मोटे तौर पर एक उल्लेखनीय राष्ट्रीय सहमति रही।
दुर्भाग्यवश हाल के वर्षों में ऐसे तमाम ठोस साक्ष्य मिल रहे हैं जो संकेत दे रहे हैं कि सरकार वापस नियंत्रित अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रही है। इसके साथ ही सत्ताधारी दल द्वारा अपने वोट बैंक को खुश करने के उद्देश्य से किए गए फैसलों की एक श्रृंखला भी दिखती है जिसने अर्थव्यवस्था को तोड़कर रख दिया। नोटबंदी ऐसा ही एक फैसला है।
1991 में उदारीकरण के साथ ही निजी क्षेत्र तेजी से बाजारोन्मुखी हो गया। इस माहौल में अमीर व्यापारियों का एक वर्ग उभरा और शहरों में छोटा ही सही लेकिन मुखर मध्यवर्ग का उद्भव हुआ। लेकिन इसके साथ ही आर्थिक असमानता की खाई भी चौड़ी हुई। इस समस्या के निराकरण के लिए यूपीए-1 सरकार ने वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को लागू करने का अभूतपूर्व कदम उठाया जिसके जरिये ग्रामीण क्षेत्रों में हर घर को साल में सौ दिन के काम की गारंटी दी गई।
इस अकेली योजना ने न केवल ग्रामीण परिवारों के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित की बल्कि इस फैसले के कारण एक झटके में ही अमीर किसानों और रियल एस्टेट डेवलपर्स आदि के सामने मजदूरी की तोलमोल करने की गरीबों की ताकत बढ़ गई। इसके परिणामस्वरूप भारत में गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई। भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार मनरेगा को ‘कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की विफलताओं का जीवंत स्मारक’ बताया था लेकिन पहले लॉकडाउन के बाद उन लाखों प्रवासी श्रमिकों समेत गरीबों तक सीधी राहत पहुंचाने के लिए मौजूदा सरकार को अंततः उसी योजना का सहारा लेना पड़ा।
हालांकि, 2014 के बाद से, शासन के दर्शन में बदलाव के साथ, न केवल घरों की आय और खपत बल्कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच और फिर विकासशील और विकसित राज्यों के बीच भी आई व्यापक असमानता को देखा जा सकता है। महामारी के पिछले दो वर्षों में डिजिटल विभाजन और आयुष्मान भारत-जैसी स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के माध्यम से निजी क्षेत्र पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता ने स्वास्थ्य और शिक्षा और दूसरे तमाम अन्य मानव-विकास संकेतकों तक पहुंच के मामले में असमानताओं की खाई को गहरा किया है।
रोजगार के मोर्चे पर भी स्थिति उतनी ही चिंताजनक है। नवीनतम आंकड़े बताते हैं कि रोजगार में जबर्दस्त गिरावट और बेरोजगारी दर में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। सीएमआईई के अनुसार, जुलाई, 2021 में देश में बेरोजगारी दर 7.02 प्रतिशत रही। शहरी इलाकों में यह 8.32 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्रों में 6.43 प्रतिशत थी। ऐसे तमाम अध्ययन हैं जो बताते हैं कि मांग के बैठ जाने के कारण वास्तविक खपत में पहली बार गिरावट आई है।
भारतीय अर्थव्यवस्था इतने मुश्किल हालात में संघर्ष करती क्यों दिख रही है? महामारीके कारण। दि इकोनॉमिस्ट ने भारत को “एशिया का बीमार आदमी” करार दिया है। क्या सरकार के पास इस स्थिति से निपटने के लिए कोई नीतिगत उपाय नहीं है? इसे याद रखना चाहिए कि एक दृढ़-निश्चयी सरकार ऐसे उपाय कर सकती है जो अर्थव्यवस्था को गोते लगाने वाले दौर से बाहर ला सकें। 2012 के आते-आते मुद्रास्फीति के दोहरे अंक में टिके रहने और राजकोषीय घाटे के बढ़ते रहने के साथ अर्थव्यवस्था गंभीर मंदी के दबावों में आ गई थी। 2013 में भारत को “रुपये के नखरे” झेलने पड़े जब भारतीय मुद्रा तेजी सेगिरकर 68 रुपये प्रति डॉलर के तब के रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गई। 2-जी, कोयला और अन्य संकटों के साथ-साथ इन मुद्दों पर गर्म हो चुकी संसद के कारण सरकार ही गंभीर संकट में आ गई थी।
लेकिन फिर 2012-14 के बीच भारत सरकार ने ऐसे तमाम अपरंपरागत और दूरगामी नीतिगत निर्णय लिए जिसके परिणामस्वरूप अगले दो वर्षों में अर्थव्यवस्था में तेजी से सुधार हुआ। बुनियादी ढांचे से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं के लिए बाधाओं को दूर करने के अलावा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नीति को उदार बनाया गया। सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट ट्रस्ट (इन-वीआईटी) और रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट (आरईआईटीएस) जैसे पूंजी बाजार के साधन को पेश किया जो आज सार्वजनिक और निजी- दोनों क्षेत्रों में लोकप्रिय हैं। सब्सिडी कम करने के लिए डीजल के मूल्य को नियंत्रण मुक्त किया गया जिसका राजकोषीय घाटे पर बड़ा असर पड़ रहा था। इसी के साथ केलकर समिति की सिफारिशों के अनुसार राजकोषीय सुदृढ़ीकरण का रोडमैप निर्धारित किया गया। फॉरेन करेंसी नॉन रेजिडेंट (बैंक) यानी एफसीएनआर-(बी) बॉण्ड और अन्य उपायों के माध्यम से रुपये में विश्वास बहाल किया गया। इसके परिणाम नाटकीय रहे। 2013-14 में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर बढ़कर 6.9% हो गई जबकि पिछले वर्ष यह 5.1% थी। 2014-15 में आर्थिक विकास दर भी 7.4% रही और यह उपलब्धि पिछले दो वर्षों में रखी गई नींव पर हासिल की गई थी।
बात चाहे 1991 की नीतिगत ढांचे में आमूल-चूल बदलाव की हो या फिर 2012-14 की नीतिगत पहल के माध्यम से किसी संकट से निपटने का तौर-तरीका, यह स्पष्ट सोच और साहसिक निर्णय लेने की हिम्मत पर निर्भर करता है। 1991 के 30 वर्षों के बाद देश एक बार फिर आर्थिक संकट में घिरता जा रहा है और इसके लिए मजबूती लेकिन चतुराई से निपटने की जरूरत है। लेकिन समझ में नहीं आता कि इस संकट के सामने सरकार इतनी ज्यादा लाचार क्यों दिख रही है?
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