कोरोना संकटः सरकार ने तो लॉकडाउन कर दिया, पर दूसरे शहरों में फंसे लोग किससे और कैसे मदद मांगें!

ऐसे तमाम लोग हैं जो किसी काम के कारण बाहर गए और अब जहां-तहां फंस गए हैं। अब न ट्रेन है, न फ्लाइट। जहां-तहां फंसे हैं। लाॅकडाउन की जरूरत पर किसी को आपत्ति नहीं है। लेकिन इस कठिन दौर में सारे कठिन दिखने वाले इंतजामों के बीच कुछ स्पेस निकालने की जरूरत तो है।

फोटोः सोशल मीडिया
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नागेन्द्र

इलाहाबाद के एक मित्र किसी पारिवारिक आयोजन में मार्च के दूसरे हफ्ते में गाजियाबाद गए थे। इसी दौरान पहले ‘जनता कर्फ्यू’ का सामना करना पड़ा। उससे वह खुश भी थे। लगा, वक्त की जरूरत है और ऐसे संदेश इसी तरह दिए भी जा सकते हैं। खुद भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। शाम पांच बजे घंटा भी बजाया, शंख भी। लेकिन शाम होते-होते पहले कुछ घंटे और फिर कुछ दिन के लिए जनता कर्फ्यू का एक्स्टेंशन, और दो दिनों बाद ही पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन... बेचारे पत्नी और बेटी के साथ गाजियाबाद में बेटे की ससुराल में फंस गए हैं। वापसी का कोई रास्ता नहीं दिख रहा। कोई सुनने वाला नहीं मिल रहा।

वह अकेले शख्स नहीं हैं। ऐसे तमाम लोग हैं जो किसी कार्यवश बाहर गए और अब जहां-तहां फंस गए हैं। वाराणसी की एक लड़की लखनऊ में काम करती है। पीजी हॉस्टल में रहती है। जनता कर्फ्यू और लॉकडाउन के पहले दौर तक तो सब ठीक था। ‘वर्क फ्राॅम होम’ कर रही थी। पढ़ाई करने वाली बच्चियां तो काॅलेज बंद होने के कारण घर चली गईं। यह लॉकडाउन में ‘वर्क फ्राॅम होम’ की सुविधा के साथ यहीं रह गई। अब 21 दिनों के लॉकडाउन की घोषणा होने और कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए पीजी वालों ने उसे घर जाने को कह दिया है। वे अब तक तो नाश्ता-खाना दे रहे हैं, लेकिन अब आनाकानी भी हो रही है। कुल मिलाकर उसे जैसे भी घर चले जाने का संकेत है। दोस्त और परिवार के लोग उसके वापस बनारस जाने का इंतजाम कर रहे हैं।

अब इसमें पीजी वालों को भी आखिर कितना और कैसे दोष दिया जाए! स्वाभाविक है संक्रमण-संकट के इस दौर में वे भी कोई जोखिम क्यों उठाना चाहेंगे! अकेली लड़की की लंबे समय तक जिम्मेदारी क्यों और कैसे लेना चाहेंगे? स्वाभाविक है, ये इक्का-दुक्का मामले नहीं हैं। ऐसे मामले तमाम हैं। इतनी बड़ी संख्या में देश भर में चल रहे पीजी होस्टल्स का ही जायजा लिया जाए तो तमाम ऐसे सच सामने आएंगे। कितने ही लोग हैं जो स्टडीज के लिए या किसी अन्य काम के लिए दूसरे शहरों में थे। यह होली बाद का दौर है, सो रिजर्वेशन नहीं मिल पाने से नहीं लौट पाए। अब न ट्रेन है, न फ्लाइट। जहां-तहां फंसे हैं।

लेखक, उपन्यासकार, नाटककार हृषीकेश सुलभ पटना के हैं। 7 मार्च की सुबह बेंगलुरु पहुंचे थे बेटी-दामाद और नाती के साथ होली मनाने। 10 मार्च को होली थी, 15 को वापसी होनी थी। पर कुछ सोचकर यात्रा निरस्त कर दी। अब बेंगलुरु में ही कैद हैं। सकारात्मक सोच है और बेटी के घर में हैं तो बहुत परेशान तो नहीं हैं, लेकिन अब दिन लंबे खिंचने और बेंगलुरु में बढ़ते कोरोना मामलों से व्यथित तो हैं ही। उन्होंने फेसबुक पोस्ट पर लिखाः ‘बेंगलुरू में हूं। कैद। यह समय की मांग है।’


अगली पोस्ट में लिखते हैंः ‘बेंगलुरु में किताबें हैं लेकिन कम हैं और जो हैं अधिकांश पढ़ी हुई हैं।’...कहीं से रेणु रचनावली मंगाकर उसमें डूबे हुए हैं। परिवार साथ है, सो कोई बड़ी दिक्कत भी नहीं। लेकिन पटना का घर जिसे एक सप्ताह में लौटने की तैयारी से बंद कर के गए थे, उसने चिंता में जरूर डाला हुआ है।

मैं जब इन पंक्तियों को लिख रहा हूं, पटना में कैद हूं। पत्नी की मां की हालत काफी गंभीर थी, सो मौजदूा हालात में न चाहते हुए भी पत्नी को लेकर लखनऊ से आना पड़ा। हालांकि जब तक सोचता, पता चला कि मां नहीं रहीं। ट्रेन-प्लेन रद्द होने का अंदेशा था, सो अपनी कार से आया कि अगले ही दिन लौट जाऊंगा। कार वहां भी सैनिटाइज करा ली थी, यहां से भी यही प्लान था। रास्ते भर कहीं चाय के लिए भी नहीं रुके। सारे इंतजाम गाड़ी में ही रख लिए थे। लेकिन अब पटना में कैद हूं।

सोच रहा हूं कि क्या पूरी तरह सैनिटाइज कार, रास्ते में कहीं न उतरने, न खाने-पीने की खुद पर थोपी शर्तों के साथ भी वापस जा पांऊगा! लखनऊ में घर में सबकुछ व्यवस्थित है क्योंकि दो ही दिनों में वापस चला जाना था। अब चिंता हो रही है कि वहां तो बहुत कुछ बिगड़ेगा ही, बेटा साथ में है, इसका बड़ा नुकसान हो रहा है। मैं तो यहां से भी ‘वर्क फ्रॉम होम’ किसी तरह कर लूंगा, लेकिन बेटे के अंतिम सेमेस्टर की तैयारियों को झटका लगा है। उसका सारा कुछ यूं भी लखनऊ में ही है। दो दिनों के लिए क्या-क्या लेकर आता! उसके सारे असाइनमेंट, सारी तैयारी वीडियोज पर निर्भर हैं, यानी तेज चाल वाले इंटरनेट पर।

लेकिन सुशासन बाबू के प्रदेश के इस इलाके में तो नेटवर्क के भी तमाम सारे इशूज हैं (डिजिटलाइजेशन के इस हाईटेक दौर के बावजूद)। नेटवर्क की इन्हीं दिक्कतों से उसका एक ऑनलाइन इंटरव्यू भी प्रभावित हो चुका है। हालांकि कंपनी वाले अच्छे हैं, सो शायद आगे इसे फिर से शेड्यूल कर दें। लेकिन चिंता तो वही न कि आखिर कब तक? 21 दिन की सीमा आगे भी बढ़ सकती है। शायद बढ़नी ही चाहिए ...! फिलहाल तो नई जगह, नए हालात उसका तनाव बढ़ा रहे हैं। स्वाभाविक है मेरा भी।

खैर, इतना सब बताने का मकसद यह बिलकुल नहीं कि लॉकडाउन गलत है। दरअसल इसे तो बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था और तब शायद यह संख्या इतना आगे भी न जा पाती। केरल की तरह अन्य राज्यों को भी समय रहते कुछ करना था। खैर, बात बिगड़ने के बाद ऐसी बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता... लेकिन इस कठिन दौर में सारे कठिन दिखने वाले इंतजामों के बीच कुछ स्पेस निकालने की जरूरत तो है।


कोविड-19 के संक्रमण के इस डरावने सच के दौर में इस चेन को तत्काल तोड़ने की जरूरत है और यह लॉकडाउन के बिना संभव नहीं है। इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं हो सकती। यह दरअसल मेडिकल इमरजेंसी का दौर है। यह भी कि जनता ने जिस तरह खुले मन से ‘जनता कर्फ्यू’ का साथ दिया और शंख-थाली तक बजा दी, वह आश्वस्त करता है कि लोग सब कुछ करने की स्थिति में हैं, सक्षम हैं, सफल हैं। लेकिन सख्त एक्शन और सफल नतीजों के लिए सिस्टम का संवेदनशील होना भी बहुत जरूरी है।

‘सख्ती’ का संदेश इतना सख्त है कि नीचे वाले किसी की सुन ही नहीं रहे। कोई स्कूटर-बाइक से सब्जी-सामान लेने निकले पड़े तो उसकी चाबी लेकर गाड़ी सीज हो रही है। बकायदे पीसीआर पर ऐसे संदेश सुने जा रहे हैं। सच है कि तमाम इंतजामों के बावजद ‘तंत्र’ की ऐसी बेरुखी इंतजामों के प्रति अविश्वास पैदा करती है, क्योंकि यह ‘रुख’ ही है जो ‘बड़े से बड़े’ और ‘सख्त से सख्त’ संदेश को भी जनप्रिय बना देता है और मुलायम से संदेश को भी अलोकप्रिय। इस वक्त इस पर भी सोचने की जरूरत है।

कोरोना संकट और लॉकडाउन को लेकर सरकार ने तमाम एडवाइजरी जारी की हैं। उनमें वह सब कुछ है जो रोजमर्रा के लिए जरूरी है लेकिन बहुत कुछ है जिसे एड्रेस ही नहीं किया गया। ऐसा नहीं कि नियम और एडवाइजरी बनाने वालों को इन दिक्कतों का अहसास ही नहीं है। उन्हें बखूबी पता है कि ये दिक्कतें आएंगी। बस, वे एड्रेस नहीं करना चाहते। ऐसे ही इंतजामों में अगली पंक्ति में रहने वाले एक अफसर की मानें तो ऐसे प्रावधान इसलिए भी नहीं रखते अफसर, कि उन्हें ऊपर वाले की फटकार का भय रहता है।

फिर भी, लगता है कि कुछ तो ऐसा होना चाहिए था जो बताता कि ऐसी मुसीबत के मारे, दूसरे शहरों में फंसे लोग आखिर ऐसे वक्त में कहां संपर्क करें, किससे मदद मांगें? यह सवाल सोशल मीडिया पर भी जेरे बहस है कि इस अत्यंत जरूरी पहल पर कोई तवज्जो ही नहीं दी गई। ऐसे दौर में जब हमारी बहुत बड़ी आबादी होस्टल, मेस, कैंटीन और पीजी के भरोसे हो, दैनिक मजदूरी करने के लिए दूर-दराज से आए लाखों-करोड़ों लोग बिना किसी स्थायी ठीहे के रह रहे हों, अचानक इस लॉकडाउन ने उन्हें दर-बदर कर दिया है।

वे जहां हैं, वहां उनके लिए न काम रहा न ठौर। ऐसे में, इन या उन जैसे लोगों को सुरक्षित वापस उनके घोसले तक पहुंचाने की जिम्मेदारी इसी तंत्र की थी। इसी तंत्र को यह भी सुनिश्चित करना था कि किसी मजबूरी में दूसरे शहरों में फंस गए लोगों की कोई सुनता और उनकी वापसी का सुरक्षित रास्ता देता।

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