कोरोनाग्रस्त स्वार्थी राजनीति है श्रमिकों पर आई विपदा का कारण, इसका वैक्सीन खोजना है असल चुनौती
मजदूरों के पैदल घर निकल जाने का दर्द किसी को नहीं हुआ, क्योंकि इनको रखने का नुकसान उठाने को कोई तैयार नहीं। प्रधानमंत्री तक ने कभी नहीं कहा कि हमारे ये श्रमिक ही कोरोना के खिलाफ जंग के असली सिपाही हैं। हमारे ये अनपढ़-अकुशल श्रमिक वे पुर्जे हैं जो किसी भी मशीन में, कहीं भी, कभी भी फिट हो जाते हैं।
एक नया शब्द गढ़ा गया है- कोरोना वारियर्स!! कौन हैं ये? वे सारे सफेदपोश लोग जो अपने-अपने सुरक्षित आरामगाहों में बैठकर हमें ललकारते हैं, क्या वे कोरोना वारियर्स हैं? जिनके लिए हमसे थाली-ताली बजवाई गई, जिनके लिए हमसे पटाखे और चिराग जलवाए गए, जिनके लिए हवाबाजों ने हवाई करतब किए, अगर वे सब कोरोना के सिपाही हैं तो फिर हम यह जंग जीत क्यों नहीं पा रहे हैं?
नहीं, आप वह सब मत समझाइए जिसे खुद बिना समझे सारे विशेषज्ञ हमें रोज समझाते हैं, और रोज ही हम यह समझ कर अगली सुबह का इंतजार करते हैं कि किसी की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा है। उस रोज एक सरकारी विशेषज्ञ कह गया कि हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना होगा। अरे, तुमने बताया भी तो क्या बताया, हम तो उसके साथ ही जी रहे हैं भाई!
हर संक्रमण हमें सिखा कर जाता है कि जो मर-मर कर जीना सिखाता है, वही कोरोना के भी और दूसरे हर तरह के संक्रमण के खिलाफ युद्ध का सिपाही है। वह सिपाही अभी भी सड़कों पर है- उसके पास पीपीई (पर्सनल प्रोटेक्शन इक्विपमेंट) नहीं है, वह हर वक्त सेनेटाइजर से हाथ नहीं धोता, उसने नाक-मुंह बंद करने वाला मुखौटा भी नहीं लगा रखा। वह हमारे विमान-रेल-बस-टैक्सी का इंतजार किए बगैर मौत की बेरहम दुनिया से निकल पड़ा है। वह पैदलमन आया था, पांव-पैदल लौट रहा है।
उसे मार्क्स ने समझाया था न कि तुम्हारे पास खोने को अपनी बेड़िेयों के सिवा दूसरा कुछ नहीं है! वह उसे याद है। इसलिए लॉकडाउन के साथ ही उसने बेड़िेयों से निकलकर वापसी की यात्रा शुरू कर दी थी। उसे यही तो परंपरा ने, माता-पिता ने, गांव ने सिखाया है कि कमाने-खाने के लिए जहां किस्मत ले जाए, जाओ लेकिन मरने के वास्ते यहीं, अपनों में आ जाना। मिट्टी अपनी मिट्टी में मिलती है तो मोक्ष मिलता है।
हम न जाने कब से इन मजदूरों को हजारों किलोमीटर की यात्रा पर निकलता देख रहे थे। इस महानिभिष्क्रमण, महापलायन में सभी शरीक हैं- बूढ़े माता-पिता जो अपने पांवों के जवाब देने पर जवानों के कंधों पर बैठ कर जा रहे हैं, एकदम दुधमुंहे जो मां-बाप की गोदी में चिपके हैं, वह भावी पीढ़ी भी जो मां के साथ उसके पेट में ही चल रही है। इनका सारा संसार कंधे पर धरे-लटकते बैगों में बंद है क्योंकि इनकी असली दौलत तो वे हथेलिेयां और पांव हैं जिनसे दुनिया नापकर इन्होंने यह सारा संसार रचा है। वह साथ हैं तो ये इंसान और भगवान से एक साथ भिड़ते आए हैं, भिड़ने निकल पड़े हैं।
इनके जाने का दर्द किसी को नहीं हुआ क्योंकि इनको रखने का नुकसान उठाने को कोई तैयार नहीं था। प्रधानमंत्री तक ने कभी नहीं कहा कि हमारे ये श्रमिक ही कोरोना के खिलाफ लड़ाई के असली सिपाही हैं। क्या कभी प्रधानमंत्री या सारे करामाती मुख्यमंत्रियों में से किसी ने सोचा कि यदि इन्हें सुरक्षित कर लिया जाए, संभालकर अपने साथ रख लिया जाए तो कोरोना से लड़ने में भरपूर मदद मिलेगी क्योंकि ये अपनी जगह होते तो ऐसा आर्थिक अंधेरा नहीं होता। उत्पादन का चक्का इस तरह एकदम रुक नहीं जाता। बाजार भी चलता होता। खेतों-खलिहानों में अनाज होता। इस व्यवस्था को चलाए रखने के लिए लोगों की कमी नहीं होती।
हमारे अनपढ़-अकुशल श्रमिक वे पुर्जे हैं जो किसी भी मशीन में, कहीं भी, कभी भी फिट हो जाते हैं।इक्कीस दिनों के पहले लॉकडाउन से पहले यह हिसाब कर लेना था कि हमारी यह ताकत कहां-कहां है, कितनी है और इसे टिकाए-बनाए-चलाए रखने के लिए क्या-क्या व्यवस्थाएं अनिवार्य हैं। उन्हें कौन, कैसे बनाएगा और कौन, कैसे संचालित करेगा?
पचास दिनों की तालाबंदी और सड़कों पर कट-मर गए मजदूरों को देखने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री को लगा कि यह व्यवस्था पूरी तरह विफल हो गई है। उन्होंने मजदूरों से अपील की कि वे दिल्ली से न जाएं, दिल्ली सरकार उनकी पूरी व्यवस्था करेगी। इतनी देर लगी उन्हें यह समझने में कि वह और उनके जैसे तमाम मुख्यमंत्री, सरकारें और करिश्माई प्रधानमंत्री किसके कंधों पर बैठे हैं?
जिसकी अभ्यर्थना में ये सब रात-दिन झुके रहते हैं, सभी सरकारें जिनकी सुविधा के लिए हैं, इस अंधेरे दौर में भी जिसके इशारे पर श्रम-कानूनों में ऐसे अंधे परिवर्तन किए गए हैं कि श्रमिक पहले से भी ज्यादा कवच-विहीन हो गया है, वह सारा काॅरपोरेट जगत आज घुटनों पर है, क्योंकि यह नंगा-भूखा-उपेक्षित मजदूर उनके साथ, उनके पास नहीं है।
श्रमिकों के साथ जैसा व्यवहार हम कर रहे हैं, वह अमानवीय भी है और अदूरदर्शी भी। देश का भला इसी में है और कोरोना की लड़ाई भी तभी श्रेयस्कर होगी जब श्रमिकों की वापसी का पूरा और पक्का इंतजाम हर राज्य में किया जाए- वह मुफ्त हो और सम्मानपूर्ण भी। गांवों में उनके लिए अनाज-पानी की पक्की व्यवस्था कर दी जाए, उनसे कह दिया जाए कि वे जब भी अपने काम पर लौटना चाहेंगे, उनके लौटने की व्यवस्था भी की जाएगी।
इस बीच हर उद्योगपति अपने उद्योग-क्षेत्र में साफ-व्यवस्थित श्रमिक-आवासों का निर्माण करवाएंगे और श्रम-कानूनों का पूरा पालन करते हुए, कोरोना-काल और उसके बाद भी श्रमिकों से काम लिया जाएगा। यह मंहगा नहीं पड़ेगा क्योंकि यह न्यायपूर्ण होगा। किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं होगा, सम्माजनक होगा। न्याय, सम्मान और समान भाव का परिणाम होगा कि श्रमिक लौटेंगे, ईमानदारी से काम भी करेंगे। पटरी से उतरी उत्पादन, दैनिक कार्य-व्यवहार, सेवा-क्षेत्र की गाड़ी पटरी पर लौटेगी।
तालाबंदी की इस पूरी अवधि में मजदूरों के कई वर्ग हैं जिनका सबसे अधिक दुरुपयोग हुआ है। उसमें पहले नंबर पर है, पुलिस! यह हमारे लोकतंत्र का वर्दीधारी मजदूर वर्ग है। राजधानी दिल्ली के एक प्रमुख पुलिस थाने का अधिकारी झुंझला कर बोला था कि हमें इसी थाने में क्वारंटाइन कर दिया गया है, जहां सामान्य मानवीय सुविधाएं भी नहीं हैं। यहीं हम सुबह से चूल्हा जलाकर पूड़ियां सेंकते हैं, खिचड़ी बनाते हैं, पैकेट बनाते और भरते हैं और फिर जिप्सी में डालकर ले जाते हैं, वितरण के लिए। जाना कहां है, देना किसे है, यह भी हमें बताया नहीं जाता। हम बस बांट भर आते हैं। उसी पैकेट में से हम भी खा लेते हैं, यहीं सो जाते हैं। फिर अचानक कहीं, कुछ गड़बड़ होती है तो हम ही वर्दी डालकर अपनी ड्यूटी पर दौड़ते हैं। घर जाना मना है क्योंकि हम संक्रमण फैला सकते हैं।
इस पुलिस का बोझ कम किया जा सकता था और उसे पुलिस का काम करने दिया जा सकता था, यदि बेचैन हो कर गांव भागते मजदूरों को योजनापूर्वक रोका जाता। नागरिकों को घरों में ठूंसने की जगह उनसे सावधानी के साथ अपनी मानवीय भूमिका निभाने को कहा जाता और व्यवस्था उनकी सहायक की भूमिका निभाती। यह सब हो सकता था और अब तक हम कोरोना के कई दांत तोड़ चुके होते। काश कि हमारी स्वार्थी राजनीति खुद ही कोरोनाग्रस्त नहीं होती! लोकतंत्र की अगली चुनौती इसका वैक्सीन बनाने की है।
(लेख सप्रेस से साभार)
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Published: 22 May 2020, 8:00 PM