खरी-खरीः ‘न्यू इंडिया’ में संवैधानिक मूल्य खतरे में, नहीं बचाया तो अपनी ऐतिहासिक धारा से भटक जाएगा देश
भारत ने आजादी के बाद जिन मूल्यों और मान्यताओं को अपनाया, वे सभी भारत को एक उदार और आधुनिक राष्ट्र बनाने के रास्ते थे। लेकिन पीएम मोदी का ‘न्यू इंडिया’ वैचारिक रूप से गांधी, नेहरू और आंबेडकर के भारत से भिन्न है। उनका ‘न्यू इंडिया’ संघ के विचारों का भारत है।
स्वतंत्रता दिवस निःसंदेह अत्यंत गौरव और अपार उल्लास का दिवस है। लंबे संघर्ष और बलिदान के बाद प्राप्त होने वाली स्वतंत्रता पर जितना भी हर्ष प्रकट किया जाए, कम है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बहादुर शाह जफर से गांधी जी तक अपार तेजस्वी व्यक्तियों के संघर्ष और त्याग का फल है। अंततः 15 अगस्त, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता का उदय हुआ।
गांधी जी और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में भारतवर्ष ने एक उदार और आधुनिक देश के निर्माण की यात्रा आरंभ की। डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में लोकतांत्रिक प्रणाली के निर्माण के लिए जल्द ही देश को एक संविधान भी प्राप्त हो गया। सन 1947 से अभी हाल तक मूलतः कांग्रेस के नेतृत्व में भारत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में उभरा। साथ ही देश की बहुत कुछ कमियों के बावजदू भारत संसार की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था के रूप में गौरवान्वित भी हुआ।
भारत के इन सात दशकों के सफर में देश में भारतीय संविधान के रूप में जो सर्वसम्मति बनी थी, उसका सभी राजनीतिक दलों ने मान, सम्मान और पालन किया। परंतु भारत के आधुनिक इतिहास में नरेंद्र मोदी वह पहले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने गांधी, नेहरू और आंबेडकर जैसे राष्ट्रनेताओं द्वारा निर्मित राजनीतिक सर्वसम्मति से अलग चलने का मार्ग अपनाया। वह बहुत ही गर्व से एक ‘न्यू इंडिया’ की बात करते हैं और स्वयं को उस ‘न्यू इंडिया’ का निर्माता मानते हैं।
अभी हाल में अयोध्या में मोदी जी ने उसी ‘न्यू इंडिया’ की चर्चा की। इतना ही नहीं, उन्होंने मंदिर निर्माण के संघर्ष की तुलना स्वतंत्रता संग्राम से की और 5 अगस्त को 15 अगस्त के समान एक नए स्वतंत्रता दिवस का अवसर बताया। अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण से उनके ‘न्यू इंडिया’ का स्वरूप काफी हद तक उभर कर सामने आया। अब यह स्पष्ट है कि मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ वैचारिक रूप से गांधी, नेहरू और आंबेडकर के भारत से भिन्न है।
जिस प्रकार मोदी जी ने ‘अयोध्या संग्राम’ को स्वतंत्रता संग्राम से जोड़ा उससे यह भी स्पष्ट है कि उनका ‘न्यू इंडिया’ वैचारिक रूप से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों का भारत है। संघ ने वैचारिक रूप से भारतीय संविधान को पूर्णतः कभी स्वीकार ही नहीं किया। सन 1925 में संघ की स्थापना से लेकर सन 1947 और उसके बाद भी संघ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पीढ़ी से हर स्तर पर वैचारिक रूप से विपरीत धारा में विश्वास रखता रहा है। राष्ट्रीय ध्वज से लेकर संविधान और लोकतांत्रिक प्रणाली तक हर मुख्य बिंदु पर संघ के विचार देश की मुख्यधारा के विचारों से भिन्न रहे हैं।
सन 1929 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में तिरंगा ध्वज देश ने स्वीकार किया और 26 जनवरी, 1930 को ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा की तो उस समय संघ के सरसंघचालक केशवराम बलिराम हेडगेवार ने देश से ‘भगवा ध्वज’ के सामने नमन की बात उठाई। हद तो यह है कि 14 जलुाई, 1946 को नागपुर में दिए गए एक भाषण में तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने कहा कि “अंततः संपूर्ण भारत भगवा ध्वज के आगे सिर झुकाएगा।”
इसी तरह गोलवलकर ने संविधान को भी स्वीकार नहीं किया। उनके अनुसार, भारतीय संविधान में “कोई ऐसी बात नहीं है जिसको हम अपना कह सकें।” इसके विपरीत वह ‘मनुस्मृति’ की प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि “हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका (मनुस्मृति का) कोई मूल्य नहीं है।” गोलवलकर के विचारों में भारत ‘एक झंडे, एक नेता और एक विचारधारा’ के नेतृत्व में ही आगे बढ़ सकता है।
मूलतः संघ के विचारों का भारत केवल एक मेजोरिटेरियन (अधिनायकवादी) देश होना चाहिए जिसमें सारे अधिकार बहुसंख्यक समाज के पास ही होने चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि संघ के भारत में अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुस्लिम समाज, के लिए कोई स्थान नहीं है। वे केवल दूसरे दर्जे के नागरिक के रूप में भारत में रह सकते हैं। मोदी जी का ‘न्यू इंडिया’ कुछ ऐसे ही विचारों और आधारों का भारत है।
यह बात अब पूरी तरह से स्पष्ट है कि नरेंद्र मोदी स्वयं को आधुनिक भारत को ‘हिदं भारत’ बनाने के निर्माता के रूप में देखते हैं। उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के समय से ही स्वयं यह रूप धारण किया और संपूर्ण देश में खुद को ‘हिंदू हृदय सम्राट’ के रूप में पहचनवाया। मोदी जी ने सन 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद गुजराती मुसलमान को अपने राज्य में दूसरी श्रेणी के नागरिक की स्थिति में पहुंचा दिया।
सन 2019 में दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री के रूप में भारत की बागडोर संभालते ही उनकी प्राथमिकता केवल यही रही कि वह संघ का मूल एजेंडा स्थापित कर दें। इसी कारण मोदी जी ने संविधान में वे बदलाव आरंभ किए जो देश को संघ की हिंदुत्व विचारधारा की दिशा में ले जा रहे हैं। चाहे वह तीन तलाक का मसला हो, संशोधित नागरिकता कानून का मुद्दा हो या फिर अनुच्छेद 370 की समाप्ति और अंततः अयोध्या में मंदिर निर्माण- ये सब भारत की स्वतंत्रता संग्राम की धारणाओं और संवैधानिक मूल्यों से एकदम उलट धारा है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद भारत ने जिन मौलिक मूल्यों और मान्यताओं को अपनाया था , वे सभी भारत को एक उदार एवं आधुनिक राष्ट्र बनाने के रास्ते थे। यही रास्ता भारतीय सभ्यता का भी सदियों पुराना मार्ग है। सन 1947 में भारत के बंटवारे के साथ भारतीय उपमहाद्वीप में वैचारिक रूप से दो विचारधाराएं उत्पन्न हुईं। एक, महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में उदार, यानी धर्म अथवा पहचान (आइडेंटिटी) से परे, भारतीय मान्यताओं पर आधारित सेक्युलर राजनीति थी।
इसके विपरीत पड़ोस में मोहम्मद अली जिन्ना के पाकिस्तान ने धर्म और पहचान की राजनीति स्वीकार कर पाकिस्तान निर्माण का मार्ग चुना। जबकि सत्तर वर्षों में भारत की गणना संसार के चोटी के देशों में होने लगी। इसके विपरीत सन 1971 में पाकिस्तान के दो टुकड़े हो गए और पाकिस्तान आज संसार के अति पिछड़े राष्ट्रों की पंक्ति में खड़ा है। राजनीति में धर्म अथवा पहचान का मिश्रण राजनीतिक दलों को सत्ता तो दिलवा सकता है, परंतु देशों का भविष्य बनाने के बजाय पाकिस्तान की तरह भविष्य बिगाड़ सकता है।
हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने सन 1947 में इसी दूरदृष्टि से भारत को एक उदारवादी और आधुनिक राष्ट्र का मार्ग दिया था जिस पर चलकर भारत संसार में गौरवान्वित हुआ। परंतु नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतवर्ष ने हिंदुत्व की राजनीति अपनाकर स्वयं पाकिस्तानी राजनीति की राह अपना ली है। यह भारत के भविष्य के लिए अत्यंत हानिकारक मार्ग है।
इस राजनीति से देश को जो क्षति पहुंची है, वह बीते छह वर्षों के शासनकाल में दिखाई पड़ने लगी है। भारतीय अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो चुकी है। करोड़ों भारतीय बेरोजगार हैं। सरकारी खजाना खाली होता जा रहा है। पिछले सात दशकों में देश ने सार्वजनिक क्षेत्र (पब्लिक सेक्टर) के रूप में जो संपत्ति इकट्ठा की, सरकार तेजी से उसको बेचकर काम चला रही है। उधर, चीनी फौज भारतीय जमीन पर डटी है और हम अभी तक बेबस हैं। कोरोना महामारी ने देश को इस रोग के श्रेष्ठतम नंबर पर पहुंचा दिया है और सरकार असहाय दिख रही है।
लब्बोलुआब यह है कि, इस स्वतंत्रता दिवस पर भारत अपने राष्ट्र निर्माताओं के दिखाए मार्ग से भटक कर हिंदुत्व के मार्ग पर निकल पड़ा है। संघ की यह राजनीति भारतीय संविधान और उस पर आधारित लोकतांत्रिक प्रणाली के एकदम विपरीत है। ऐसी स्थिति में भारत को जो खतरा है, वह स्पष्ट है। ऐसे में विपक्ष, विशेषकर कांग्रेस का यह कर्तव्य है कि वह भारत को एक बार पुनः उसके संवैधानिक मूल्यों पर लाने के वैसे ही प्रयास करे जैसे सन 1947 से पूर्व किया गया था। वरना भारत एक दूसरा पाकिस्तान जैसा देश बनकर भटक जाएगा।
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