संविधान @ 75: शासन में खत्म होती संवैधानिक नैतिकता के बीच कैसे बचाएं बुनियादी मूल्य!

हमें खुद को यह याद दिलाना चाहिए कि संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सभी पर है। भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी पहचान को सही मायने में बनाए रखने के लिए सभी को संवैधानिक आदर्शों और शासन के बीच की खाई पाटने के लिए काम करना होगा।

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भारत आज अपने संविधान को अंगीकार करने की 75वीं वर्षगांठ मना रहा है। ऐसे में आज के दिन इस बात को याद करने का यह आदर्श अवसर कि आखिर संविधान की बुनियाद किस विचारधारा पर आधारित है। भारतीय संविधान को 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया और 26 जनवरी, 1950 को इसे देश में लागू किया गया था। हमारा संविधान भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार की नींव है, जिसकी प्रस्तावना में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के आदर्शों को शामिल किया गया था।

हमारा संविधान दरअसल संविधान सभा के 284 सदस्यों द्वारा तैयार किया गया एक दृष्टिकोण है। इसी प्रतिबद्धता को 14 अगस्त, 1947 को आधी रात में में ली गई शपथ में व्यक्त किया गया था, जब पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने मशहूर "ट्रिस्ट विद डेस्टिनी" भाषण में सभा के सदस्यों से "भारत और उसके लोगों की सेवा के लिए" स्वयं को समर्पित करने का आह्वान किया था, और यह सुनिश्चित करने का आग्रह करते हुए कहा था कि अब भारत "विश्व में अपना उचित और सम्मानित स्थान प्राप्त करेगा", साथ ही "समूची मानवता के लिए शांति और कल्याण" को प्रोस्ताहित करेगा। 

हमारा संविधान उपनिवेशवाद के बाद के भारत के लिए एक साहसिक और प्रगतिशील खाका था, जिसे न सिर्फ एक कानूनी दस्तावेज के रूप में तैयार किया गया था, बल्कि सभी नागरिकों के लिए समान अधिकार और अवसर सुनिश्चित करने के लिए एक नैतिक मार्गदर्शक के रूप में भी तैयार किया गया था।

दुनिया के सबसे विशाल और सबसे विस्तृत संविधानों में से एक के रूप में, हमारा संविधान भारत के बहुलवादी मूल्यों को दर्शाता है। सौ से अधिक संशोधनों का सामना करने के बावजूद प्रासंगिक है।

आज, हमें खुद से पूछना चाहिए कि क्या हम संविधान के सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहे हैं या सिर्फ प्रतीकात्मक तौर पर दिखावे के लिए इसका पालन कर रहे हैं। डॉ.
आंबेडकर ने कहा था, "संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे नहीं हैं, तो यह बुरा साबित होगा। संविधान कितना भी बुरा क्यों न हो, अगर इसे लागू करने वाले अच्छे हैं, तो यह अच्छा साबित होगा।"


संकट में न्याय और स्वतंत्रता

भारत के संविधान में " सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय" को आधारशिला के रूप में स्थापित किया गया है, लेकिन फिर भी समाज में आर्थिक असमानता बनी हुई है। समाज के सबसे अमीर 10 फीसदी लोगों का राष्ट्रीय संपत्ति के 77 फीसदी से अधिक पर कब्जा है। 2018 और 2022 के बीच, भारत में लगभग हर दिन 70 नए करोड़पति उभरे, और अरबपतियों की दौलत में करीब दस गुना वृद्धि हुई। संवैधानिक सुरक्षा उपायों के बावजूद दलितों, आदिवासियों और हाशिए के समूहों को एक खास तरीके से भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। इस तबके के लिए सामाजिक न्याय अभी भी सिर्फ कागजी ही है।

संविधान का एक और मौलिक सिद्धांत है स्वतंत्रता, जिसे धीरे-धीरे कमजोर किया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस और असहमति पर पाबंदियां बढ़ती जा रही हैं। 2024 के विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैंक 180 में से 159 पर आ गई है। नागरिक अधिकारों और स्वतंत्रता में यह गिरावट पर दिखावटी राष्ट्रवाद का आवरण चढ़ा दिया गया है जहां वफादारी का भौंडा प्रदर्शन किया जाता है। सड़कों का नाम बदलना, और भाषणों में संविधान का हवाला देकर - राष्ट्र के संस्थापक आदर्शों को कमजोर करने वाली कार्रवाइयों को छिपाया जाता है।

सिद्धांत में समानता, लेकिन व्यवहार में नहीं

समानता के प्रति संविधान की प्रतिबद्धता स्पष्ट है इस पर कोई संदेह भी नहीं है। फिर भी लगातार आर्थिक और सामाजिक असमानताएं इस दृष्टिकोण को कमज़ोर करती रहती हैं। अनुच्छेद 15 धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, और एक समावेशी समाज के लिए एक मज़बूत नींव रखता है। लेकिन समाज में लैंगिक असमानता अभी भी बहुत गहरी है, जिसमें महिलाओं को राजनीतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में कम प्रतिनिधित्व दिया जाता है। भारत की आबादी का लगभग आधा हिस्सा होने के बावजूद, संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है।

हाल ही में पारित महिला आरक्षण विधेयक का मकसद यूं तो इस असंतुलन को दूर करना है, लेकिन वास्तविक परिवर्तन को बढ़ावा देने में इसकी प्रभावशीलता पर अभी भी अनिश्चिततता का साया है। इसके अलावा, पितृसत्ता के अस्तित्व को कम करके आंकने वाले राजनीतिक नेताओं के बयान भी महिलाओं के सामने आने वाली व्यवहारिक अड़चनों को नकारने की चिंताजनक बात दर्शाते हैं।

असमानता खत्म करने के बुनियादी मकसद के बावजूद जाति-आधारित असमानता बरकरार है। दलितों और अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों को शिक्षा, रोजगार और सामाजिक अवसरों से व्यवस्थित रूप से वंचित रखा जाता है, शहरी और ग्रामीण दोनों ही संदर्भों में भेदभाव जारी है। इन असमानताओं को दूर करने के लिए निरंतर और व्यापक प्रयासों के बिना, समानता की संवैधानिक गारंटी एक अप्राप्य आदर्श बनकर रह जाने का जोखिम है।


धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे में गिरावट

संविधान की बुनियाद का स्तंभ धर्मनिरपेक्षता चुनौती से जूझ रहा है जिसे व्यवस्थित रूप से कमज़ोर किया जा रहा है। संविधान निर्माताओं ने एक ऐसे देश की कल्पना की थी जो सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करता हो, जो जवाहरलाल नेहरू के "तटस्थ, लोकतांत्रिक देश" के विचार को मूर्त रूप देता हो। फिर भी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण, धार्मिक असहिष्णुता और बहिष्कार के बयानों ने धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों को अलग-थलग कर दिया है।

धार्मिक बहुसंख्यकवाद की प्रवृत्ति ने लोगों को हाशिए पर धकेलने का काम किया है, जिससे भाईचारे की उस अवधारणा को सीधे चुनौती मिली है, जो भारत के विविध समुदायों के बीच एकता और भाईचारे का आह्वान करती है। संविधान की प्रस्तावना में निहित भाईचारा भारत की राष्ट्रीय पहचान के लिए जरूरी है; लेकिन जाति संघर्ष, क्षेत्रीय तनाव और बढ़ते सांप्रदायिक विभाजन इस आधारभूत भावना को खत्म करने के लिए खतरा बने हुए हैं।

जैसे-जैसे हिंदू पहचान को भारतीय पहचान के साथ जोड़ा जा रहा है, राष्ट्रीय एकता और अखंडता का मूल ढांचा खतरे में पड़ रहा है। धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे की रक्षा के लिए, सरकार और नागरिकों दोनों की ओर से एक ठोस प्रयास की आवश्यकता है - ताकि सहिष्णुता, सहानुभूति और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए नीतियों और सामाजिक प्रतिबद्धता के माध्यम से - राष्ट्र के बुनियादी मूल्यों को खतरे में डालने वाली गहरी खाई को पाटा जा सके।

शासन में संवैधानिक नैतिकता

डॉ. आंबेडकर ने जोर दिया था कि शासन में संविधान के मूल सिद्धांतों और नैतिकता का पालन करना आवश्यक है। लेकिन देश में आज लोकलुभावनवाद और बहुसंख्यकवाद बढ़ता जा रहा है, और निर्वाचित नेता इन आदर्शों को भूलते जा रहे हैं। संविधान में शासन के लिए संतुलन की परिकल्पना की गई है, जिसमें संसद कानून बनाने और निगरानी के लिए केंद्रीय मंच है। फिर भी, मौजूदा शासन में प्रमुख कानून बिना किसी या बेहद न्यूनतम बहस के साथ पारित किए जाते हैं, या अध्यादेशों का सहारा लिया जाता है जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का उल्लंघन है।

न्यायपालिका भी चुनौतियों का सामना कर रही है, जिसमें लंबित मामलों का बोझ और इसकी अपनी स्वतंत्रता खतरे झेल रही है। यूं तो संविधान नागरिकों को अधिकार देता है, लेकिन नागरिक अपने मौलिक कर्तव्यों और जिम्मेदारी की अनदेखी करते हैं जिससे लोकतांत्रिक ताना-बाना कमजोर होता है। ऐसे में संविधान की समझ इसके सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण है।


संवैधानिक भावना का पुनर्जागरण

इस संविधान दिवस पर, यह याद रखना बहुत ज़रूरी है कि संविधान की ताकत सिर्फ़ उसके शब्दों में नहीं बल्कि उसके लोगों की उसकी भावना को बनाए रखने की प्रतिबद्धता में निहित है। भारतीय लोकतंत्र के सामने चुनौतियां बहुत बड़ी हैं, लेकिन वे इतनी भी बड़ी नहीं हैं कि उनसे पार पाना असंभव हो। आखिरकार, संविधान को एक जीवंत दस्तावेज़ के रूप में डिज़ाइन किया गया था, जो समाज की बदलती ज़रूरतों को पूरा करने में सक्षम हो, लेकिन, इन सुधारों से इसके बुनियादी मूल्यों से समझौता नहीं होना चाहिए।

देश में दिखावे की देशभक्ति की प्रवृत्ति असहमति को व्यवस्थित रूप से दबाने और आलोचना को गद्दारी के रूप में पेश करने तक फैली हुई हैं। लोकतंत्र में असहमति एक मौलिक अधिकार है, फिर भी एक्टिविस्ट, पत्रकार और शिक्षाविदों को सरकार को चुनौती देने के लिए देशद्रोह और यूएपीए के सख्त कानून के साथ निशाना बनाया जा रहा है। आलोचकों को "एंटी नेशनल" के रूप में लेबल करना संविधान की उस दृष्टि को धुंधला करता है, जो जवाबदेही और लोकतांत्रिक भागीदारी के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करती है।

संविधान दिवस पर हमें खुद को यह याद दिलाना चाहिए कि संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सभी पर है। भारत को एक लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में अपनी पहचान को सही मायने में बनाए रखने के लिए कानून निर्माताओं और न्यायपालिका से लेकर आम नागरिकों तक – सभी को संवैधानिक आदर्शों और रोजमर्रा के शासन की वास्तविकताओं के बीच की खाई को पाटने के लिए सक्रिय रूप से काम करना चाहिए।

संविधान को अपनाने के 75 साल बाद भी संविधान भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि और सामाजिक परिवर्तन के लिए सबसे शक्तिशाली साधन है। जब हम इसकी विरासत पर विचार करते हैं, तो हमें इसके मूल्यों का सम्मान करने की अपनी प्रतिज्ञा को नए सिरे से दोहराना चाहिए – न सिर्फ बयानबाजी में, बल्कि अपने कार्य व्यवहार के जरिए। तभी हम इस महत्वपूर्ण दस्तावेज़ का मसौदा तैयार करने वालों की आशाओं-आकांक्षाओं को पूरा करने और एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण जारी रखने की उम्मीद कर सकते हैं जो वास्तव में इसमें निहित आदर्शों को मूर्त रूप देता है।

(रवींद्र गरिमेला एक लेखक और संसदीय मामलों के विशेषज्ञ हैं, लोकसभा सचिवालय में संयुक्त सचिव के रूप में कार्य किया है। अमल चंद्रा एक लेखक, राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार हैं।)

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