कांग्रेस को सबसे ज्यादा जरूरत सहयोग और समन्वय की
पूर्व राष्ट्रपति की नागपुर यात्रा और उनके द्वारा आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ मंच साझा करने के एक सप्ताह के भीतर राहुल गांधी का मुंबई आना हुआ। राहुल गांधी ने देश की सत्ता चलाने वालों को कट्टरता और विभाजनकारी राजनीति के बारे में बताने का मौका नहीं गंवाया।
आरएसएस और देश की सत्ताधारी ताकत से उलझने का जो खतरा राहुल गांधी उठा रहे हैं वह कांग्रेस के किसी नेता के लिहाज से असाधारण है। मेरा अनुभव यह है कि आमतौर पर आजादी के बाद के ज्यादातर सालों में केंद्र और देश के कई राज्यों की सत्ता पर काबिज रहने के बाद कांग्रेसजनों के पास छिपाने के लिए काफी कुछ है, इसलिए वे सरकार के खिलाफ मजबूती से खड़े नहीं होते हैं क्योंकि उन्हें डर रहता है कि उनके खिलाफ ही कार्रवाई हो जाएगी। कुछ युवाओं को छोड़कर, जिनका राजनीति में अभी इतना वजन नहीं हुआ है कि उनका नोटिस लिया जाए, एकमात्र अपवाद मुंबई के कांग्रेस अध्यक्ष संजय निरुपम हैं। इसलिए राहुल गांधी की मंगलवार को हुई हालिया मुंबई यात्रा के दौरान उन दोनों की जोड़ी अच्छी रही। आरएसएस को महात्मा गांधी का हत्यारा कहने को लेकर अपने खिलाफ दायर मानहानि के मुकदमे की सुनवाई में शामिल होने के लिए राहुल गांधी थाने जिले के भिवंडी में स्थित कोर्ट पहुंचे थे। हालांकि कोर्ट की सुनवाई बहुत पहले से तय थी, लेकिन यह कांग्रेस के लिए भाग्यशाली संयोग था कि पूर्व राष्ट्रपति की नागपुर यात्रा और उनके द्वारा आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत के साथ मंच साझा करने के एक सप्ताह के भीतर राहुल गांधी का मुंबई आना हुआ। आरएसएस को दिए प्रणब मुखर्जी के उत्साही संबोधन को चाहे जितना घुमाया जाए, सच्चाई यह है कि आरएसएस के कार्यक्रम में उनकी मौजूदगी मात्र से ही कांग्रेस के मानस को गहरा नुकसान पहुंचा है और राहुल गांधी ने पार्टी के इतने वरिष्ठ नेता के खिलाफ एक शब्द बोला तो नहीं, लेकिन उन्होंने देश की सत्ता चलाने वालों को कट्टरता और विभाजनकारी राजनीति के बारे में बताने का मौका नहीं गंवाया।
कांग्रेस के जानकार सूत्रों के अनुसार, राहुल गांधी लंबे समय से पार्टी के बूथ प्रबंधन को लेकर चिंतित रहे हैं। बीजेपी के उलट, कांग्रेस के पास उस संसाधन का जरा सा भी हिस्सा नहीं है जिसे बीजेपी बूथ और मतदाताओं का प्रबंधन करने के लिए वेतनभोगी कार्यकर्ताओं पर खर्च करती है और इसलिए कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को प्रेरित करने के लिए पैसे के अलावा किसी और समाधान की तलाश में है। यह सरोकार कई पार्टी नेताओं तक पहुंच चुका है और निरुपम ने मुंबई में इसे जल्दी शुरू करते हुए कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी के संपर्क में लाने की कोशिश की। निरुपम को उम्मीद है कि कांग्रेस अध्यक्ष के प्रति निजी प्रतिबद्धता उन्हें पार्टी के प्रति प्रतिबद्ध रहने में मदद करेगी।
हालांकि राहुल गांधी और संजय निरुपम शायद यह बात नहीं जानते हैं जो प्रदेश के कुछ नेता जानते हैं कि उन्हें कुछ मदद मिल रही है। एक साल से भी पहले खुद को डेमोक्रेट कहने वाला सार्वजनिक बुद्धिजीवियों का एक समूह देश के उदारवादी मूल्यों के हित में एक साझा मंच पर इकट्ठा हुआ। उनमें अलग-अलग माध्यमों के पत्रकार, वकील, डॉक्टर, सामाजिक कार्यकर्ता, चार्टर्ड एकाउंटेंट, प्रोफेसर और कई और तरह के लोग शामिल हैं। उनकी शुरूआत में मुख्य प्रतिबद्धता लोकतंत्र और उदारवाद के प्रति थी। धीरे-धीरे, अर्थव्यवस्था के धाराशायी होने और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती असहिष्णुता को देखते हुए समाधान ढूढ़ने की उनकी आकुलता उन्हें सार्वजनिक गतिविधि की तरफ ले गई और उन्होंने खुद को एक ट्रस्ट में बदल लिया, उन्होंने सभी भाषाओं में वेबसाइट बनाई और ऐसी किसी भी पार्टी का समर्थन करने के लिए तैयार हुए जो भारत को उदारवाद और लोकतंत्र दे सकती है। हालांकि उनमें सारे लोग कांग्रेस को पसंद करने वाले नहीं हैं, लेकिन एक व्यवहारिक समझ यह है कि सिर्फ कांग्रेस ही बीजेपी को मात देने की स्थिति में है और उन्हें हर तरह से पार्टी को ऐसा करने में मदद करनी चाहिए।
इसमें सिर्फ एक समस्या है। मुंबई में रहने वाले ज्यादातर कांग्रेस नेताओं की दिलचस्पी इस मदद में नहीं है। इन डेमोक्रेट्स में से ज्यादातर लोग सोशल मीडिया पर आपस में संवाद कर रहे थे और सब एक-दूसरे को जानते भी नहीं थे। लेकिन, पिछले सप्ताह, वे कई मसलों पर चर्चा के लिए आमने-सामने एक कार्यक्रम में जुटे। इस कार्यक्रम में माननीय अतिथि के तौर पर महाराष्ट्र कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चव्हाण को आमंत्रित किया गया था (वे इस समूह का हिस्सा नहीं हैं), पर वे नहीं आ सके। इस बात से कुछ आयोजक खफा हुए। लेकिन राहुल गांधी की मुंबई यात्रा, जिसमें उन्होंने कार्यकर्ताओं का काफी उत्साहवर्धन किया, ने मुझे शरद पवार की वह बात याद दिला दी जो उन्होंने मुझे 2004 के चुनाव अभियान के दौरान बताई थी। उस समय उनकी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का कांग्रेस से गठबंधन हुआ था। तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सोलापुर में पवार के साथ एक संयुक्त रैली की थी और शासन कर रहे तत्कालीन मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे के आंखों में आंसू आ गए। वे इस बात से राहत महसूस कर रहे थे कि उनके अभियान के बाद वे निश्चित रूप से चुनाव जीत जाएंगे।
पवार ने मुंह बनाते हुए मुझे बताया, “दुर्भाग्य से कांग्रेस के नेता यह बात नहीं जानते हैं कि चुनाव कैसे जीता जाता है। मैंने दूसरी पीढ़ी के कई नेताओं को तैयार किया है जो मेरे कंधे का बोझ हल्का कर सकते हैं और मेरी तरह ही चुनाव प्रचार कर सकते हैं।”
उस समय उन्होंने विलासराव देशमुख की तरफ इशारा किया था कि वह अकेले ऐसे कांग्रेस नेता हैं जो ऐसा कर सकते हैं, “बाकी सब तो सिर्फ पांर्टी अध्यक्ष से विनती करते रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में पार्टी अध्यक्ष की एक यात्रा जादू कर देगी। वे नहीं जानते कि अपने बलबूते पर धारा को कैसे अपने पक्ष में किया जाता है। वे नहीं जानते कि वैसे लोगों से कैसे जुड़ा जाए जो हो सकता है कि आपके पक्ष में न हों, लेकिन आपके विरोधी भी नहीं हैं।”
मैं देख सकती हूं कि यह कांग्रेस के बड़े हिस्से में अभी भी हो रहा है, हालांकि राहुल गांधी ने कई प्रदेश नेताओं को सशक्त किया है और उन्हें संचालित करने की बजाय उनके द्वारा संचालित होने के लिए तैयार हैं। यह जरूर है कि कर्नाटक का प्रयोग उतना सफल नहीं हुआ, लेकिन मुझे विश्वास है कि बाकी राज्यों में यह जरूर सफल होगा। लेकिन राहुल गांधी समेत अन्य कांग्रेस नेताओं में एक कमी रह जाती है, वह यह है कि वे उन बुद्धिजीवियों से जुड़ने की उतनी कोशिश नहीं करते जो कांग्रेस खेमे के नहीं है लेकिन पार्टी के प्रति दुराग्रह भी नहीं रखते हैं। अगर इस कमी को दूर नहीं किया गया तो कांग्रेस के पास संसाधनों की हमेशा कमी रहेगी, बौद्धिक और वित्तीय दोनों, और पार्टी वह मदद नहीं जुटा पाएगी जिसकी उसे जरूरत है।
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