कांग्रेस महाधिवेशन: कांग्रेस को अपनी नैतिक और राजनीतिक विचारधारा को स्पष्ट रूप से बताना होगा
कांग्रेस को एक बार फिर पूरी स्पष्टता के साथ अपने विचार सामने रखना चाहिए। पार्टी को हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वालों या फिर पूरे समुदाय को बदनाम करने वालों के आगे झुकने की जरूरत नहीं है। उसे साफ-साफ बताना चाहिए कि उसके नैतिक और राजनीतिक विचार क्या हैं।
रायपुर में कांग्रेस का पूर्ण अधिवेशन हो रहा है। इसकी प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए, इसकी बात करने से पहले इस पर गौर करना जरूरी है कि अधिवेशन किस पृष्ठभूमि में हो रहा है। बेहद सफल ‘भारत जोड़ो यात्रा’ को एक माह हो रहा है और इसका कई तरह से असर हुआ है।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं और समर्थकों का मनोबल ऊंचा है। राहुल गांधी के खिलाफ चलाया जा रहा विद्वेषपूर्ण अभियान फिलहाल के लिए थम गया है। नफरत फैलाने के लिए कुख्यात एक पत्रकार ने हाल ही में ट्विटर पर एक पोल किया जिसमें 55 फीसदी से ज्यादा लोगों ने कहा कि वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना चाहेंगे। इसमें 2,00,000 से ज्यादा लोगों ने भाग लिया।
ऐसे ही, नरेंद्र मोदी के एक जाने-माने प्रशंसक के सर्वेक्षण से पता चला है कि राहुल ने क्रोएनिज्म, यानी मित्रवादी पूंजीवाद और एकाधिकारवाद वगैरह पर संसद में जो भाषण दिए, उसे 67 फीसदी और प्रधानमंत्री के संबोधन को 33 फीसदी ने ही पसंद किया। यहां तक कि जमीन पर भी ज्यादातर लोगों को इस बात का एहसास हो रहा है कि राहुल कोई राजनीतिक नौसिखिया नहीं हैं। उन्हें काम से मतलब है। भारत जोड़ो यात्रा के दिल्ली में प्रवेश करने पर उन्होंने मुझसे जिन ‘बड़े कदमों’ के बारे में कहा था, उनमें से कुछ का वक्त आ गया है।
संगठन के स्तर पर जो ‘बड़े कदम’ उठाए जाने हैं, उस दृष्टि से रायपुर अधिवेशन एक मौका है। भारत जोड़ो यात्रा ने राहुल की छवि को बदला है जो बहुत जरूरी था। इसके अलावा इसने कांग्रेस को लोगों की राजनीतिक सोच में फिर से अपने लिए जगह बनाने का भी मौका दिया है। इस ऐतिहासिक मौके पर पार्टी को मुड़कर अपने ही इतिहास को देखना चाहिए।
पार्टी का 1931 का कराची अधिवेशन ऐसा ही ऐतिहासिक मौका था। उस अधिवेशन की पृष्ठभूमि को याद करें:
भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी पर चढ़ा देने से आम लोगों से लेकर नेताओं में भारी गुस्सा था; संविधान के मामले में अंग्रेज कोई भी प्रतिबद्धता नहीं जता रहे थे और सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस लिया जा चुका था। उस पीड़ा को जवाहरलाल नेहरू ने बड़े ही मार्मिक शब्दों में अभिव्यक्त किया- ‘मार्च की उस रात लोगों ने एक गहरा खालीपन महसूस किया जैसे कोई बेशकीमती चीज बहुत-बहुत दूर चली गई हो।’ नेहरू ने टी.एस. इलियट को उद्धृत किया: 'यह धमाके नहीं बल्कि फुस्स से दुनिया का खत्म होना है’।
फिर भी, कुछ हफ्ते बाद ही, कराची अधिवेशन में कांग्रेस जोरदार तरीके से जीवंत हो उठी।
कांग्रेस को आज इससे क्या सीखने की जरूरत है? इतिहास के उस महत्वपूर्ण क्षण में पार्टी का कायाकल्प न तो किसी नेता के व्यक्तिगत करिश्मे का नतीजा था और न ही सिर्फ संगठन में फेरबदल का। एक साफ सियासी नजरिये, सोच-समझकर तैयार रणनीति और सत्ता को वापस पाने की मजबूत इच्छाशक्ति के बिना आप न तो किसी राजनीतिक संगठन का कायाकल्प कर सकते हैं और न ही इसके सदस्यों में उत्साह भर सकते हैं।
कराची अधिवेशन के पहले से ही कांग्रेस लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को आवाज देती रही थी; केवल एक साल पहले लाहौर में इसने नेहरू समेत दूसरे युवा नेताओं के आग्रह पर डोमिनियन दर्जे के प्रस्ताव को खारिज कर ‘पूर्ण स्वराज’ को राजनीतिक लक्ष्य के रूप में अपनाया था। स्वराज की भावना को लोग समझ सकें, उसे समर्थन दें, इसलिए कांग्रेस ने आजाद भारत के बाद की अपनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि को कराची अधिवेशन में लोगों के सामने रखा।
प्रस्ताव में सभी नागरिकों की समानता और जाति, पंथ, नस्ल या लिंग के आधार पर सभी प्रकार के भेदभाव को खत्म करने का इरादा जताया गया; श्रम और किसान अधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक स्वतंत्रता को रेखांकित किया गया; सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के ढांचे के भीतर अलग-अलग सांस्कृतिक परंपराओं के संरक्षण और औद्योगीकरण के जरिये गरीबी दूर करने की इच्छाशक्ति दिखाई गई।
भारत के भविष्य के प्रति नजरिये को साफ करने का प्रत्यक्ष असर यह हुआ कि आम लोग इससे जुड़े जबकि अप्रत्यक्ष असर शीर्ष नेताओं के बीच आमसहमति बनाने में मदद के रूप में हुआ। नेहरू और बोस ने मिलकर इसे बनाया था। गांधी ने इसे पेश किया था और अधिवेशन की अध्यक्षता पटेल ने की थी।
इस प्रस्ताव में संकेत दे दिया गया था कि 1949 में अपनाए गए भारतीय संविधान का मूल भाव क्या रहने वाला है। हैरानी है कि खुद कांग्रेस ने भी इस बात को शायद ही कभी उल्लेखित किया जो कांग्रेस में अपनी खुद की राजनीति के मूल भाव के प्रति रही संगठनात्मक उदासीनता का भी संकेतक है।
इन्हें आज दोहराने का सीधा-सा मतलब यह है कि तब के अनुभव के आधार पर कांग्रेस यह समझ सके कि आज एक बार फिर उसके सामने वक्त है जब वह अपनी राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि को पूरी स्पष्टता के साथ लोगों के सामने रखे और इन्हें पार्टी के भीतर और बाहर- दोनों जगहों पर बातचीत के केन्द्र में रखे। सच कहूं तो राहुल गांधी पिछले कुछ समय से ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन यह याद रखना होगा कि कोई भी राजनीतिक लड़ाई किसी अकेले के दम पर जीतना तो दूर, लड़ी भी नहीं जा सकती चाहे वह कितना भी ‘शूरवीर’ क्यों न हो।
लगता है कि राहुल गांधी भी धीरे-धीरे यह समझने लगे हैं। उनके आग्रह पर ही कांग्रेस में अब एक गैर-गांधी अध्यक्ष है। यात्रा का जो राजनीतिक संदेश गया, वह उनकी अपनी पहल का ही परिणाम था। लोगों पर इसका भावनात्मक असर साफ दिखता है। फिर भी, ऐसा लगता है कि राहुल को अब भी 'सिविल सोसाइटी' पर जरूरत से ज्यादा भरोसा है। कांग्रेस में खुद को इस्तेमाल के लिए कभी वामपंथियों तो कभी दक्षिणपंथियों के आगे परोस देने की संस्कृति के मूल में पार्टी का अपने वैचारिक आधार को भुला देना है। एक प्रमुख कांग्रेसी नेता ने एक बार मुझसे कहा भी था: ‘हमने मीडिया के सामने अपने विचारों का ढोल पीटने की कोशिश नहीं की क्योंकि हम वैचारिक नहीं, एक उदारवादी पार्टी हैं’।
सच है, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कभी भी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह एक वैचारिक, कैडर-आधारित पार्टी नहीं रही लेकिन यह ऐसी भी उदार पार्टी नहीं रही जिसका ध्यान सिर्फ 'विकास और शासन' पर केंद्रित हो। भारत की परंपरा की तरह ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की विशिष्टता चरम के लालच को त्यागते हुए ‘सम्यक’ के सुनहरे मध्य मार्ग को खोजने के प्रयास में निहित है।
यह प्रयास ऐतिहासिक चुनौतियों से प्रेरित था और इसी का परिणाम था कि ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ और ‘गुटनिरपेक्ष’ जैसे नीतिगत विकल्प तैयार हुए और विश्वास-आधारित परंपराओं का सम्मान करते हुए भी एक 'वैज्ञानिक दृष्टिकोण' के प्रति प्रतिबद्धता सुनिश्चित की गई। कराची संकल्प इन विचार प्रक्रियाओं की एक बेहतरीन अभिव्यक्ति है जो बाद में विभिन्न क्षेत्रों में सफलता के साथ व्यक्त हुई।
एक बार फिर मुद्दा इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं बल्कि इससे सीख लेने का है। कांग्रेस को अपने मूल विचारों से लोगों को अवगत कराने, उन विचारों को व्यवहार में उतारने की रणनीति और तात्कालिक चुनौतियों से निपटने के तरीकों से जुड़े अपने अनुभवों को याद करना चाहिए, उनसे सबक लेना चाहिए। ऐसा करने के लिए नए कांग्रेस अध्यक्ष को संगठनात्मक अनुशासन सुनिश्चित करना होगा और इसके लिए व्हिप जारी करना होगा जबकि राहुल को पार्टी के वैचारिक आधार को स्पष्ट करने के लिए ‘तपोबल’ से प्राप्त अपनी नैतिक पूंजी को लगाना होगा।
क्रोनी कैपिटलिज्म और राजनीतिक हिन्दुत्व की साठगांठ अब कोई छिपी हुई बात नहीं रही। जिस तरह से राहुल गांधी के सीधे प्रधानमंत्री पर किए गए सवालों को संसद की कार्यवाही से हटा दिया गया है, उससे इस साठगांठ की पुष्टि ही हुई है। ऐसा लगता है कि हम वापस अंधकार युग में आ गए हैं, और यह वक्त है जब जो हो रहा है, उसकी असली शक्ल को जानने के लिए उसपर तेज रोशनी फेंकने की जरूरत है।
न सिर्फ बीजेपी बल्कि मीडिया भी अडानी की बराबरी राष्ट्र से करता है। शून्य-सहिष्णुता के साथ कानून लागू करने के प्रतीक के तौर पर बुलडोजर की परेड कराई जाती है। किसी पीड़ित की जाति या पंथ से यह तय होता है कि हम उसके साथ हुई क्रूरता का जश्न मनाएं या विलाप करें। कपटी-धोखेबाजों को गुरु मानकर उन्हें पूजा जाता है। इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए बात करें तो कांग्रेस को एक बार फिर पूरी स्पष्टता के साथ अपने विचार को सामने रखना चाहिए। कोई जरूरत नहीं है कि इसके नेता हिन्दू राष्ट्र की मांग करने वालों या फिर पूरे समुदाय को बदनाम करने वालों के आगे झुक जाएं। पार्टी को साफ-साफ बताना चाहिए कि उसके नैतिक और राजनीतिक विचार क्या हैं।
(पुरुषोत्तम अग्रवाल लेखक और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं।)
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