कांग्रेस स्थापना दिवस: कराची अधिवेशन में पेश किया गया था भारत के संविधान का खाका

कांग्रेस आज अपना 139वां स्थापना दिवस मना रही है। इस मौके पर इतिहास की प्रोफेसर रही मृदुला मुखर्जी बता रही हैं कि कांग्रेस ने किस तरह देश को स्वराज की धारणा दी और कैसे कराची अधिवेशन में भारत के संविधान का खाका पेश किया गया था।

1931 में कराची में हुआ कांग्रेस अधिवेशन : फोटो सौजन्य - inc.in
1931 में कराची में हुआ कांग्रेस अधिवेशन : फोटो सौजन्य - inc.in
user

मृदुला मुखर्जी

रायपुर में हुए कांग्रेस का पूर्ण सत्र काफी अहम रहा था, क्योंकि इसके बाद ही भारत जोड़ो यात्रा का सफल आयोजन हुआ था। नागपुर में हो रहा कांग्रेस का अधिवेशन इस नाते उल्लेखनीय है कि यह नए कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के बाद हो रहा है।

कांग्रेस पार्टी का 138 साल पुराना इतिहास विवादास्पद मुद्दों पर खुली बहस और मतदान के जरिए समाधाना निकालने की मिसालों का साक्षी रहा है। 1920 का कलकत्ता अधिवेशन ऐसा ही था, जब लाला लाजपत राय, अध्यक्षता कर रहे बिपिन चंद्र पाल और सी आर दास जैसे दिग्गजों के विरोध के बावजूद गांधी के असहयोग आंदोलन के विचार को मतदान के लिए रखा गया था।

मतदान में इस सुझाव के पक्ष में 1,886 वोट और विपक्ष में 884 वोट पड़े। इस ऐतिहासिक निर्णय ने कांग्रेस को जन राजनीति के एक क्रांतिकारी नए चरण के लिए प्रतिबद्ध किया, जो उसके बाद इसकी पहचान बनी रही।

कराची में 1931 का अधिवेशन भी ऐसा ही एक और ऐतिहासिक सत्र था। यह गांधी-इरविन समझौते के तुरंत बाद आयोजित किया गया था। इस समझौते के बाद ही दांडी मार्च के साथ शुरु हुए सविनय अवज्ञा आंदोलन का पहला चरण समाप्त हुआ था।

कांग्रेस ने गांधी-इरविन समझौते का समर्थन करते हुए पूर्ण स्वराज के लक्ष्य को दोहराया। छह दिन पहले ही युवा क्रांतिकारियों भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई थी। हालांकि गांधी ने उनकी जान बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया था, फिर भी लोगों में गुस्सा था, खासकर युवाओं में, जिन्होंने यह जानने की मांग की कि उन्होंने फांसी के बाद भी इरविन के साथ समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार क्यों नहीं किया।

इस बात को लेकर लोग इतने खफा थे कि जब गांधीजी अधिवेशन में भाग लेने कराची पहुंचे तो रास्ते भर उन्हें काले झंडे लिए लोगों का सामना करना पड़ा। अधिवेशन में कांग्रेस ने गांधीजी द्वारा तैयार उस प्रस्ताव को पारित किया जिसमें ‘किसी भी आकार या रूप में राजनीतिक हिंसा को नामंजूर करते हुए इससे खुद को अलग रखने’ की बात की गई थी। इसके साथ तीनों शहीदों की ‘बहादुरी और बलिदान’ की तारीफ भी की गई।

***

हालांकि, कराची सत्र जिस चीज़ के लिए यादगार बन गया, वह मौलिक अधिकारों और राष्ट्रीय आर्थिक कार्यक्रम पर इसका संकल्प था। इसे 'कराची संकल्प' के नाम से जाना गया, और इसने उन अधिकांश सिद्धांतों को रेखांकित किया जिन्होंने स्वतंत्र भारत के संविधान को इसका विशिष्ट चरित्र दिया। इस प्रस्ताव के शब्दों में: '...जनता को इस बात की समझने के लिए सक्षम बनाना कि कांग्रेस की कल्पना के स्वराज का उनके लिए क्या मतलब होगा। कांग्रेस की स्थिति को इस तरह से बताना वांछनीय है कि वे आसानी से इसे समझ सकें।'

इस अधिवेशन में पारित किए गए ज्यादातर प्रस्ताव बाद में आजाद हिन्दुस्तान के संविधान का हिस्सा बने। प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि आजाद हिन्दुस्तान के संविधान को इस प्रस्ताव में उल्लेखित अधिकारों और नीतियों को या तो सुनिश्चित करना चाहिए या स्वराज सरकार को इतना सक्षम बनाना चाहिए कि वह इन्हें सुनिश्चित कर सके।


भले ही कांग्रेस ने अपनी स्थापना के समय से ही लोगों के आर्थिक हितों, नागरिक स्वतंत्रता और राजनीतिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया, लेकिन ऐसा पहली बार था जब कांग्रेस ने परिभाषित किया कि ‘स्वराज’ का मतलब आम लोगों के लिए क्या होगा। इसके साथ ही कांग्रेस ने यह भी घोषित किया कि ‘जनता के शोषण को खत्म करने के लिए जरूरी है कि राजनीतिक आजादी के दायरे में भूख से मर रहे लाखों लोगों की वास्तविक आर्थिक आजादी भी शामिल होनी चाहिए।’

‘मौलिक अधिकार और कर्तव्य’ शीर्षक वाले पहले खंड में भारत के प्रत्येक नागरिक को बोलने की आजादी, प्रेस की आजादी, इकट्ठा होने की आजादी; कानून के समक्ष समानता और सरकारी रोजगार का समान अधिकार और जाति, पंथ या लिंग का भेद किए बिना सार्वजनिक वस्तुओं तक पहुंच; अपने धर्म का पालन करने की आजादी, सभी धर्मों के संबंध में राज्य की तटस्थता; सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर चुनाव; और मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा जैसे बुनियादी नागरिक अधिकारों की गारंटी दी गई थी।

इसमें यह भी कहा गया कि ‘अल्पसंख्यकों और विभिन्न भाषाई इलाकों की संस्कृति, भाषा और लिपि की रक्षा की जाएगी।’ प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि मृत्युदंड का प्रावधान नहीं रहेगा। इसके साथ ही लोगों को पूरे देश में कहीं भी आने-जाने और बसने के कानूनी अधिकार की गारंटी देने की भी बात कही गई।

‘श्रम’ शीर्षक वाले दूसरे खंड में, इसने श्रमिकों के लिए बेहतर परिस्थितियों का वादा किया जिसमें जीवन-यापन के लिए मजदूरी, काम के सीमित घंटे और महिला श्रमिकों की सुरक्षा; स्कूल जाने की उम्र के बच्चों को कारखानों और खदानों में नियोजित नहीं करने; मजदूरों और किसानों को संगठित होने और यूनियन बनाने के अधिकार शामिल थे।

‘कराधान और व्यय’ शीर्षक वाले तीसरे खंड में भू-काश्तकारी और लगान की व्यवस्था में सुधार की परिकल्पना की गई है। इसमें छोटे किसानों को लगान में भारी कमी, गैर-लाभप्रद जोतों को लगान से छूट जैसे प्रावधानों से राहत देने का इरादा जताया गया। इसने सरकारी नौकरों के अधिकतम वेतन
की सीमा 500 रुपये करने और सैन्य खर्चे को तब के स्तर से कम से कम आधा करने का सुझाव देने के अलावा नमक पर शुल्क को खत्म करने की मंशा जताई थी।

‘आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम’ शीर्षक वाले चौथे और अंतिम खंड में, स्वदेशी कपड़ा और धागा और अन्य स्वदेशी उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्धा के खिलाफ सुरक्षा का वादा किया गया। इसके अलावा प्रमुख उद्योगों, खदानों और परिवहन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व या नियंत्रण और राष्ट्रीय हित में मुद्रा और विनिमय का विनियमन शामिल थे। कर्ज के बोझ में दबी खेती के अलावा सूदखोरी पर भी काबू करके लोगों को राहत देना था।


इस संकल्प को जवाहरलाल नेहरू ने तैयार किया था और महात्मा गांधी ने इसमें सुधार किया था। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में कराची की घटनाओं का जिक्र करते हुए बताया है कि प्रस्ताव के ‘समाजवादी झुकाव’ से भारत सरकार चिंतित थी। नेहरू कहते हैं कि ‘शायद उन्हें अपनी सामान्य दूरदर्शिता से लगता था कि कराची के प्रस्ताव बोल्शेविकों के आने और कांग्रेस नेताओं को भ्रष्ट करने की आहट दे रहे थे।’

नेहरू लिखते हैं कि फिर यह कहानी गढ़ी गई कि ‘एक रहस्यमय कम्युनिस्ट व्यक्ति ने इस प्रस्ताव या इसके ज्यादातर हिस्से को तैयार करके मुझ पर थोप दिया था और उसके बाद मैंने गांधीजी को इसे मंजूर करने या फिर दिल्ली समझौते के मुद्दे पर मेरे विरोध के लिए तैयार रहने का अल्टीमेटम दिया। गांधी ने मुझे राहत देने के लिए उसे स्वीकार कर लिया और अधिवेशन के अंतिम दिन इसे विषय समिति और कांग्रेस को लेने के लिए मजबूर कर दिया।’ नेहरू कहते हैं, माना जाता है कि वह रहस्यमय कम्युनिस्ट एम एन रॉय थे।

फिर वह इस थ्योरी को यह कहते हुए खारिज करते हैं कि ‘जब मैं प्रस्ताव का मसौदा तैयार कर रहा था, तब जो लोग मेरे टेंट में आते-जाते ‍थे, मैं कई बार उनमें से कुछ से सलाह ले लिया करता था। लेकिन एम एन रॉय का इससे कोई लेना-देना नहीं था।

नेहरू ने लिखा है कि ‘उन दिनों मैं दूसरे मामलों में बहुत अधिक व्यस्त था और मुझे कई मसौदे तैयार करने पड़े थे जिस वजह से इस काम में कुछ दिनों की देरी हो गई। आखिरकार गांधीजी और मैं एक मसौदे पर रजामंद हुए और उसे कार्यसमिति के सामने रखा गया और फिर बाद में विषय समिति के सामने’। 

( मृदुला मुखर्जी- जेएनयू में इतिहास की पूर्व प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक हैं)

*यह निबंध मूल रूप से 26 फरवरी 2023 को नेशनल हेराल्ड में प्रकाशित हुआ था

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia