जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य, बढ़ता जा रहा संक्रामक रोगों का दायरा

लान्सेट काउन्टडाउन शृंखला की 9 वीं रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर प्रभाव से संबंधित है। इसमें बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि के कारण किस तरीके से पूरी दुनिया में गर्मी और चरम प्राकृतिक आपदाओं से मृत्यु के आँकड़े बढ़ रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य
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महेन्द्र पांडे

हरेक वर्ष अक्तूबर महीने के शुरू से ही दिल्ली में वायु प्रदूषण के चर्चा शुरू हो जाती है और यह चर्चा मार्च तक हरेक समाचार की सुर्खियों में रहती है। प्रदूषण उसके बाद भी रहता है, पर चर्चाएं अगले अक्तूबर का इंतजार करती हैं। इस विषय पर सर्वोच्च न्यायालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, केंद्र सरकार, राज्य सरकार सभी अपनी सक्रियता दिखाते हैं, पर वायु प्रदूषण की समस्या पहले से अधिक गंभीर होती जाती है। शुरू में किसानों के खुले में फसल जलाने को वायु प्रदूषण का कारण बताया जाता है, इसके बाद कुछ समय दीवाली के पटाखों को प्रदूषण का कारण बताया जाता है, फिर से वही पराली जलाने पर हाय तौबा शुरू हो जाती है। जाहिर है, सरकारों के पास प्रदूषण कम करने की या फिर नियंत्रित करने की कोई इच्छाशक्ति और कार्य योजना है ही नहीं। शायद सत्ता और सरकारी संस्थान वायु प्रदूषण को महज चर्चा का विषय समझते हैं, समस्या नहीं समझते। वायु प्रदूषण का कारण धूलकण और गैसों का उत्सर्जन है। वायु प्रदूषण करने वाली गैसों से ही तापमान वृद्धि  और जलवायु परिवर्तन भी होता है। जब वायु प्रदूषण पर नियंत्रण नहीं हो रहा है तो जाहिर है कि प्रदूषण के साथ ही तापमान वृद्धि करने वाली गैसों का उत्सर्जन भी बेलगाम है।

वायु प्रदूषण पर चर्चा का आलम यह है कि मीडिया और सरकारी रिपोर्ट बड़ी गंभीरता से बताती है कि “आज दिल्ली का एक्यूआई 470 है जिसमें से लगभग चौथाई पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने के कारण है”। अब अगर एक्यूआई का चौथाई हिस्सा काम भी कर दें, यानि मान लें कि पराली नहीं जल रही होती, तब भी एक्यूआई 350 से ऊपर रहेगा। यह स्तर खटनाक प्रदूषण की ही श्रेणी में आएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने भी अब दिल्ली के स्थानीय वायु प्रदूषण को नकारना शुरू कर दिया है और सारा नियम कानून और जुर्माना बस किसानों पर थोपना शुरू कर दिया है। पराली पर बेतहाशा चर्चा का फायदा यह है कि दिल्ली में स्थानीय प्रदूषण पर कोई ध्यान ही नहीं देता। हमारे देश में प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर केवल राजनैतिक भड़ास निकाली जाती है, या फिर रिश्वत खाई जाती है – बस प्रदूषण को नियंत्रित नहीं किया जाता। यही हाल तापमान वृद्धि  के नियंत्रण का भी है।

तापमान वृद्धि  के लक्ष्य और दावे, सभी केवल भाषणों में ही सीमित रहते हैं। प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल अकैडमी ऑफ साइन्सेज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार दुनिया में जहां भी आर्थिक प्रगति हो रही है, प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है, उन सभी क्षेत्रों में से महज 30 प्रतिशत क्षेत्र ऐसे हैं जहां कार्बन उत्सर्जन में कमी आ रही है। इन 30 प्रतिशत क्षेत्रों में से लगभग सभी क्षेत्र यूरोप में हैं। दूसरी तरफ उत्तरी अमेरिकी देशों और भारत समेत एशिया में स्थिति इसके ठीक विपरीत है। इस अध्ययन के लिए दुनिया के 1500 क्षेत्रों के आर्थिक विकास और कार्बन उत्सर्जन का पिछले 30 वर्षों के आंकड़ों का अध्ययन किया गया है। इन 1500 क्षेत्रों से कुल वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का 85 प्रतिशत उत्सर्जित होता है। अध्ययन के अनुसार दुनिया के शून्य उत्सर्जन के तमाम दावों के बाद भी अब तक आर्थिक विकास को कार्बन उत्सर्जन से अलग नहीं किया जा सका है।


संयुक्त राष्ट्र के वर्ल्ड मेटेरिओलॉजीकल ऑर्गनाईजेशन ने हाल में ही बताया है कि वर्ष 2023 में वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता ने एक नया रिकार्ड स्थापित किया है। कार्बन डाइआक्साइड की सांद्रता 420 पीपीएम तक पहुँच गई गई, यह सांद्रता पिछले वर्ष की तुलना में 2.3 प्रतिशत, वर्ष 2004 की तुलना में 11 प्रतिशत और पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 151 प्रतिशत अधिक है। पिछले कुछ लाख वर्षों में वायुमंडल में कार्बन डाइआक्साइड की ऐसी सांद्रता पहले कभी नहीं रही। मीथेन की सांद्रता वर्ष 2023 में 1934 पीपीबी तक पहुँच गई, यह सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 265 प्रतिशत अधिक है। चीन के बाद भारत दुनिया में मीथेन का सबसे बाद उत्सर्जक है और यहाँ इसके उत्सर्जित करने की पर्याप्त नीतियाँ भी तैयार नहीं की गईं हैं। तीन वर्ष पहले भारत समेत दुनिया के 160 देशों ने वर्ष 2030 तक मीथेन के उत्सर्जन में 30 प्रतिशत कटौती करने का ऐलान किया था, पर इसके उत्सर्जन में लगातार वृद्धि  देखी जा रही है। नाइट्रस आक्साइड की सांद्रता वर्ष 2023 में 337 पीपीबी तक पहुँच गई, यह सांद्रता पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में 125 प्रतिशत अधिक है।

यूरोपियन यूनियन स्पेस एजेंसी ने हाल में ही ऐलान किया है कि यह लगभग निश्चित है कि वर्ष 2024 मानव इतिहास में अब तक का सबसे गरम वर्ष रहेगा। वैज्ञानिक और तमाम दुनिया अब तक इस शताब्दी के अंत तक 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि  के चर्चा करती रही है, पर संभव है कि यह कारनामा वर्ष 2024 में ही पूरा हो जाए। पिछले 16 महीनों में से 15 महीने ऐसे रहे हैं जब औसत तापमान वृद्धि  1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक मापी गई है। वर्ष 1850 से 1900 की तुलना में पिछले 12 महीनों का औसत तापमान 1.62 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसी दर से यदि तापमान वृद्धि  होती रही तो इस शताब्दी के अंत तक पृथ्वी का औसत तापमान पूर्व-औद्योगिक कल की तुलना में 3 डिग्री सेल्सियस से भी अधिक रहेगा।


लान्सेट काउन्टडाउन शृंखला की 9 वीं रिपोर्ट जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर प्रभाव से संबंधित है। इसमें बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि  के कारण किस तरीके से पूरी दुनिया में गर्मी और चरम प्राकृतिक आपदाओं से मृत्यु के आँकड़े बढ़ रहे हैं, खाद्य असुरक्षा से कुपोषण का दायरा बढ़ता जा रहा है, जंगलों में आग के बढ़ते मामलों के कारण प्रदूषित हवा का प्रभाव पहले से अधिक लोगों पर पड़ रहा है और अनेक संक्रामक रोगों का दायरा बढ़ता जा रहा है। इस दौर में जलवायु परिवर्तन के कारण स्वास्थ्य पर अभूतपूर्व खतरे बढ़ रहे हैं। वर्ष 2023 की रिकार्डतोड़ गर्मी, मारक प्राकृतिक आपदाएं और जंगलों की आग का प्रभाव दुनिया के हरेक कोने में पड़ा। दुनिया का 48 प्रतिशत हिस्सा भयानक सूखे की चपेट में रहा और दुनिया के अधिकतर हिस्सों में भयानक गर्मी का दौर 50 दिनों से भी अधिक समय तक रहा। पहले से भूखी आबादी में 15 करोड़ से भी अधिक नई आबादी जुड़ गई। वर्ष 1990 से अबतक चरम गर्मी के कारण 65 वर्ष से अधिक उम्र की आबादी के मृत्यु दर में 167 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। डेंगू, मलेरिया और वेस्ट नाईल वायरस का प्रकोप पहले से अधिक भौगोलिक क्षेत्रों और आबादी पर पड़ रहा है।

तमाम सबूतों और बढ़ते प्रभावों के बाद भी दुनिया जलवायु परिवर्तन और तापमान वृद्धि  को रोकने के लिए जरा भी गंभीर नहीं है। पूंजीवाद और कट्टर दक्षिणपंथियों के सत्ता में आने के बाद से यह समस्या पहले से अधिक विकराल हो चली है।

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