जलवायु परिवर्तन के कारण भारत में हो रहा मौत का भयावह तांडव, हिमाचल में अब तक 73 मौतें, करोड़ों की संपत्ति का नुकसान
जलवायु परिवर्तन अपनी जगह लेकिन नफा-नुकसान सोचे बिना विकास के नाम पर ताबड़तोड़ निर्माण ने हालात बद से बदतर बना दिए ।
“हम सिविल सेवा परीक्षा में सफल होने का सपना लेकर कहां-कहां से दिल्ली आते हैं लेकिन अगर सुरक्षा के कारण अपनी आकांक्षाएं ही पूरी न कर सकें, तो इस सब का क्या मतलब?” यह पीड़ा 20 वर्षीय वाणी अवस्थी की है जो यूपीएससी प्रवेश परीक्षा की तैयारी में मदद करने वाली कक्षाओं के लिए बरेली से दिल्ली आई। वाणी फिलहाल दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती हैं। शरीर का बायां हिस्सा लकवाग्रस्त है। उसे 27 जुलाई को उपस्थिति दर्ज करने के दौरान बायोमेट्रिक उपकरण से करंट लगा जो बिजली के जीवित तार के संपर्क में था। इसी दिन तीन अन्य छात्र ओल्ड राजिंदर नगर के उस कोचिंग सेंटर के बेसमेंट में जमा बारिश के पानी में फंसकर डूब गए और जान गंवा बैठे। उस दिन भारी बारिश से ऐसा भयानक जलभराव हुआ कि दिल्ली घुटनों पर आ गई। अब राजधानी का यह हाल है, तो देश के बाकी हिस्सों का क्या हाल होगा समझा जा सकता है?
पूरे भारत में मौत का भयावह तांडव चल रहा है। एक आपदा पीछे नहीं जाती, दूसरी आ खड़ी होती है। यह सब जलवायु परिवर्तन का नतीजा है। लेकिन जो चीज इसे और विकराल बना रही है, वह है नफा-नुकसान सोचे बिना ‘विकास’ के नाम पर हो रहे बड़े पैमाने पर ताबड़तोड़ निर्माण।
डॉ. सी.पी. राजेंद्रन के नेतृत्व में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज, बेंगलुरु के वैज्ञानिक बार-बार चेतावनी देते रहे हैं। राजेंद्रन कहते हैं, “सड़कें चौड़ी करनी हों या लंबी सुरंगें बनाना, अधिकारियों ने हमारे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र पर उसकी वहन क्षमता से ज्यादा बोझ डालने की अनुमति देने में कोताही नहीं की। ऐसे मानवीय हस्तक्षेपों के दुष्परिणाम अब भयावह रूप में सामने हैं। सच है कि केन्द्र और राज्यों- दोनों सरकारों का जोर विकास के त्रुटिपूर्ण मॉडल पर है। बार-बार हिमस्खलन और बाढ़ प्राकृतिक प्रक्रियाओं का हिस्सा हैं लेकिन पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में यही बड़ी आपदा बन जाते हैं।
हमारे हिमालयी राज्यों में हाल ही में, वायनाड (केरल) में यही तो हुआ। राज्य के इतिहास की अब तक की सबसे भयावह पर्यावरण आपदा में वायनाड जिले के चूरलमाल, मुंडक्कई, अट्टमाला और नूलपुझा गांवों में भूस्खलन से 250 से अधिक लोगों की मौत हुई और कितने ही घर, दुकानें, पर्यटक रिसॉर्ट और पुल नष्ट हो गए।
केन्द्र सरकार द्वारा गठित और प्रसिद्ध पारिस्थितिकी विज्ञानी माधव गाडगिल की अध्यक्षता वाले पश्चिमी घाट पारिस्थितिकी विशेषज्ञ पैनल ने पश्चिमी घाट का 75 प्रतिशत, यानी (गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोवा और केरल में फैले) 129,037 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील घोषित करने की सिफारिश की थी। लेकिन हुआ क्या? गाडगिल की रिपोर्ट केरल सरकार ने ‘विकास विरोधी’ बताकर खारिज कर दी। संरक्षण के बुनियादी सिद्धांत हवा में उड़ा दिए गए क्योंकि भारी पैमाने पर सड़क निर्माण, अवैध उत्खनन और बढ़ते वाणिज्यिक वृक्षारोपण के लिए पहाड़ियां समतल हो रही थीं। निर्माण की तेज रफ्तार ने मिट्टी को ढीला कर दिया। नतीजा वर्षा के साथ मिलकर भूस्खलन था जिसका भयावह रूप सामने है। गाडगिल इसे “एक मानव निर्मित आपदा” कहते हैं।
राष्ट्रीय पृथ्वी विज्ञान अध्ययन केन्द्र, तिरुवनंतपुरम के अनुसार, वायनाड-कोझिकोड सीमा दुनिया के सर्वाधिक भूस्खलन-प्रवण क्षेत्रों में से है। 1992 में हुए कप्पिकलम भूस्खलन में 11 लोगों की मौत हुई जबकि 2007 में वालमथोड भूस्खलन में चार लोगों की जान गई। 2020 में मलप्पुरम के कवलप्पारा और वायनाड के पुथुमाला में बड़े पैमाने पर भूस्खलन हुए और 60 मौतें हुईं।
बीते दो दशकों में हर आपदा से पहले वैज्ञानिकों की चेतावनियां नजरअंदाज की गई हैं। ताजा घटना अपवाद नहीं। पुथुमाला गेज ने 48 घंटों में 572 मिमी बारिश दर्ज की थी। 30 जुलाई के भूस्खलन से 16 घंटे पहले, यानी 29 जुलाई को कलपेट्टा में ह्यूम सेंटर फॉर इकोलॉजी एंड वाइल्डलाइफ बायोलॉजी ने सुबह 9.30 बजे भूस्खलन की चेतावनी जारी की। आपदा प्रबंधन और राज्य की दोनों एजेंसियों को चेतावनी मिली लेकिन वे जिला प्रशासन और स्थानीय लोगों को सचेत करने में विफल रहे।
वायनाड पर्यावरण संरक्षण समिति के अध्यक्ष एन बदुशा कहते हैं- “केरल का यह भूस्खलन भू-उपयोग में बड़े पैमाने पर हुए बदलाव का दुष्परिणाम है। पिछले दस वर्षों में पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील सिर्फ कैमल हंप पर्वत के आसपास ही 500 रिसॉर्ट बने हैं। बारिश का पैटर्न भी बदला है और बहुत ज्यादा वर्षा हो रही है।”
जानते हुए भी कि यह क्षेत्र कितना असुरक्षित है, सरकार पुथुमाला को मुथप्पमपुझा से जोड़ने वाली सुरंग की 3,500 करोड़ रुपये की योजना पर आगे बढ़ रही है। 8.17 किलोमीटर लंबी इस सुरंग पर पर्यावरण और समाजशास्त्रीय प्रभाव को समझने के लिए अध्ययन की जरूरत नहीं समझी गई। यह पश्चिमी घाट को और ज्यादा अस्थिर करने वाला हो सकता है।
हिमालय में तो स्थिति और खराब है जहां लगता है कि 2013 की केदारनाथ आपदा से कोई सबक नहीं सीखा गया जिसमें 5,000 से अधिक मौतें हुईं थीं। मोदी सरकार तो प्रतिशोध की भावना से ‘आध्यात्मिक पर्यटन’ को बढ़ावा दे रही है। हर साल 45 लाख यात्री यहां आते हैं। उनकी यात्रा सुविधा के लिए व्यापक सतर पर 900 किलोमीटर लंबी चारधाम राजमार्ग परियोजना शुरू हुई। तथाकथित ‘हर मौसम के लिए अनुकूल’ ये सड़कें न सिर्फ तूफानों का सामना करने में विफल रहीं, इनके निर्माण ने पहाड़ी ढलानों को और कमजोर कर दिया। भूस्खलन या नदियों के उफान में हर साल सैकड़ों यात्री जान गंवा देते हैं। पिछले साल भारी बारिश और बादल फटने के बीच एक दिन में आठ से ज्यादा भूस्खलन हुए। इसी 31 जुलाई को केदारनाथ के पास जंगलचट्टी में बारिश से तबाह ट्रैकिंग मार्ग पर बादल फटने से 17 तीर्थयात्रियों की मृत्यु हुई जबकि 10,000 से अधिक लोग फंस गए। गौरीकुंड और केदारनाथ के बीच 25 किलोमीटर का मार्ग बह गया और यात्रा अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दी गई।
देहरादून स्थित पर्यावरणविद् रीना पॉल बताती हैं, “भीड़ नियंत्रित करने में तीर्थयात्रियों का ऑनलाइन पंजीकरण फेल रहा। केदारनाथ के पास ‘आधिकारिक तौर पर’ सिर्फ 2,000 लोग मौजूद थे, जबकि असल संख्या 10,000 से भी ज्यादा थी। पॉल का मानना है कि ‘आरएसएस-भाजपा मिलकर आध्यात्मिक पर्यटन’ को आक्रामक रूप से बढ़ावा दे रहे हैं।’ वह कहती हैं- “लोगों को यहां आने के लिए आर्थिक लोभ दिया जाता है। कांवरियों की भारी संख्या भी कुछ बताती है- इस बार 50 लाख से ज्यादा लोग मोटरसाइकिलों पर गंगाजल लेने केदारनाथ पहुंचे जो पहले कभी नहीं सुना गया। यह ‘आध्यात्मिक पर्यटक’ अपने पीछे टनों कूड़ा-कचरा छोड़ जाते हैं। हरिद्वार के आसपास तो अविश्वसनीय गंदगी है।”
1 जुलाई की रात हिमाचल में एक साथ चार स्थानों पर बादल फटे जिससे भारी बाढ़ आ गई और मलाणा पावर प्रोजेक्ट स्टेज 1 बांध टूट गया। भारी जलभराव हुआ और व्यापक क्षति हुई। उसी रात, समेज (शिमला जिले के रामपुर क्षेत्र में झाकड़ी के पास) में 6 मेगावाट बिजली परियोजना के करीब बादल फटा जिसमें दो लोगों की मृत्यु हुई और 34 लापता बताए गए। समेज खाद में बादल फटने से 11 सदस्यीय परिवार के 9 सदस्यों ने जान गंवा दी।
मंडी, सोलन, शिमला और कुल्लू में बादल फटने की घटनाओं में 26 मौतें हुईं। पूरा का पूरा रामपुरन गांव बह गया। ऐसे क्षेत्र में बादल फटने की घटनाओं में अचानक हुई वृद्धि को कोई कैसे समझ सकता है, जहां पहले ऐसा कभी-कभार ही होता था।
सी.पी. राजेंद्रन समझाते हैं: “एक सीमित स्थानिक सीमा (मान लें एक वर्ग किलोमीटर) को कवर करने वाली छोटी अवधि में 100 से 250 मिमी प्रति घंटा की रफ्तार से अचानक हुई वर्षा को आम तौर पर बादल फटना कहते हैं। अध्ययनों से संकेत मिलता है कि हाल के वर्षों में संभवतः मानवजनित गतिविधियों में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के कारण ऐसी घटनाएं बढ़ी हैं। पहाड़ों में गर्मी और बारिश- दोनों बढ़ रही हैं। जलवायु परिवर्तन की बढ़ती प्रवृत्ति ने समुद्र से हिमालय क्षेत्र की ओर नमी से भरी हवा के लिए बड़े पैमाने पर रास्ता खोला है। इससे हिमालय पर्वत के ऊपर ऊर्ध्वाधर परिसंचरण बदल जाता है जो बादल फटने का कारण बनता है।
2024 के मानसून सीजन में हिमाचल क्षेत्र में अब तक 73 मौतें हो चुकी हैं और 648 करोड़ रुपये की संपत्ति का नुकसान हुआ है। अफसोस की बात है कि राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण सहित कोई भी निगरानी प्रणाली या नागरिक समाज इस विनाशकारी पर्यावरणीय रथ को हांकने वाली सरकार और कॉरपोरेट घरानों पर दबाव डालने की स्थिति में नहीं है।
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