सीजेआई को भी मिला था दैवीय ज्ञान: कहीं न्याय तंत्र के बजाए हम धर्मतंत्र तो नहीं बन गए
भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है जहां इसके दो शीर्ष व्यक्तियों का ईश्वर के साथ सीधा संपर्क है जो उन्हें समय-समय पर रास्ता दिखाते हैं।
खुदाई यानी जमीन खोदने का पहला नियम यह है कि जब आप खुद को किसी गड्ढे में पाएं, तो खुदाई बंद कर देनी चाहिए। हालांकि ऐसा लगता है कि हमारे आदरणीय मुख्य न्यायाधीश जिन्हें अब (भगवा) प्रकाश के दर्शन हो गए हैं, अपनी समृद्ध शिक्षा के बावजूद इस ज्ञान से दूर ही रहे हैं। उन्होंने बहुत-कुछ भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की तरह ही ‘खुदाई’ का काम जारी रखा हुआ है, शायद इस उम्मीद में कि ऐसा करते-करते वह हिन्दुत्व की आधारशिला तक पहुंच जाएं!
ऐसी स्थिति में जब मुख्य न्यायाधीश की ‘विरासत’ पहले से ही लोगों की नजरों में चढ़ी हुई है, तो उन्हें चाहिए था कि शांत रहकर तूफान के गुजर जाने का इंतजार करते। इसकी जगह उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस बात का बखान किया कि (1) उन्होंने ही अयोध्या राम मंदिर का फैसला लिखा और (2) यह कि उन्होंने इस जटिल मुद्दे के समाधान के लिए भगवान से प्रार्थना की, और ईश्वर ने फौरन संभवतः ब्लिंकिट या जेप्टो के माध्यम से उन्हें ‘समाधान’ भेज भी दिया। जैसा कि अंदाजा था, इस स्वीकारोक्ति ने एक दावानल खड़ा कर दिया और जाने-माने वकीलों से लेकर रिटायर्ड जज तक राम मंदिर की टन-टन भारी ईंटों की तरह उन पर बरस पड़े हैं।
जहां तक मुझे पता है, मुख्य न्यायाधीश का यह रहस्योद्घाटन मूसा को माउंट सिनाई पर ईश्वर द्वारा दी गई दस आज्ञाओं के अलावा दूसरा न्यायिक बोध है। अंतर बस इतना है कि आज्ञाओं के निर्देशक सिद्धांतों को यहां अयोध्या के बाध्यकारी निर्णय में बदल दिया गया है; आखिरकार यह आध्यात्मिक सिद्धांत है कि ईश्वरीय प्रकटीकरण हमेशा ईश्वरीय लेखन से पहले होता है। चूंकि मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं प्रमाणित किया है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय को उन्होंने ही लिखा, इसलिए इस बोध की बात को स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन इस आध्यात्मिक प्रस्फुटन के निहितार्थों की ‘उत्पादकता’ मन को झकझोरने वाली है। यह लेख उनमें से कुछ को उजागर करने का प्रयास करता है।
भारत शायद दुनिया का अकेला ऐसा देश है जिसके दो शीर्ष व्यक्ति अब ईश्वर के साथ सीधे संवाद में हैं: प्रधानमंत्री (जो संभवतः स्वयं ईश्वर के अवतार हैं) और मुख्य न्यायाधीश। इस कारण हमें स्वयं को असाधारण रूप से भाग्यशाली मानना चाहिए, हालांकि हम अब भी नहीं जानते कि लोकतंत्र के तीसरा स्तंभ, यानी संसद के दोनों सदनों के पीठासीन अधिकारी किससे संवाद करते हैं। साक्ष्य जॉनी वॉकर या अल्फ्रेड ई न्यूमैन (मैड पत्रिका वाले) की ओर इशारा करते हैं, लेकिन मैं गलत भी हो सकता हूं।
हिन्दुत्व में कथित तौर पर 3 करोड़ देवता हैं (हमारे प्रधानमंत्री को छोड़कर) इसलिए यह जानना दिलचस्प होगा कि मुख्य न्यायाधीश ने किस विशेष देवता से सलाह ली। इसमें एक समस्या भी है, जैसा कि करण थापर ने दिल्ली हाईकोर्ट की रिटायर्ड जज रेखा शर्मा से पूछा भी थाः अगर यह वास्तव में राम लला थे (जैसा कि ज्यादातर लोगों का मानना है) तो फिर अयोध्या मामले पर पूरा फैसला ही गलत नहीं है क्योंकि राम लला अपने एक ‘सखा’ के माध्यम से विवाद में एक पक्षकार हैं?
न्यायशास्त्र के हमारे निराशाजनक मानकों के बावजूद हम शायद ही किसी जज को किसी मामले में याचिकाकर्ताओं में से किसी से सलाह करते हुए देख सकते हैं कि उन्हें किस तरह का आदेश लिखना चाहिए! न्यायमूर्ति शर्मा थापर द्वारा उठाई गई इस बात से स्पष्ट रूप से असहज थीं। अब दिलचस्प होगा अगर कोई वकील इसी आधार पर अयोध्या फैसले को चुनौती देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में उपचारात्मक याचिका यानी क्यूरेटिव पिटीशन दायर कर दे।
हालांकि न्यायमूर्ति शर्मा ने जोर देकर कहा कि न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ की स्वीकारोक्ति ने न्यायालय की छवि को खराब किया है। क्या होता अगर कोई मुस्लिम या ईसाई या सिख जज यह दावा करता कि उसने फैसला लिखने से पहले अपने ईष्ट से सलाह ली थी? बहुसंख्यक वर्ग में आक्रोश फैल जाता, असम के मुख्यमंत्री- जिनका कॅरियर जिहाद के अध्ययन पर ‘टिका है- जैसे लोगों द्वारा ‘न्यायिक जिहाद’ के आरोप लगाए जाते, और सभी तरह के भक्त जंतर-मंतर पर ‘शिवजी की बारात’ की तरह उमड़ पड़ते। इसके उलट, मौजूदा मुख्य न्यायाधीश को उनकी इस अंतर्दृष्टि के लिए संभवतः अच्छा पुरस्कार मिलेगा।
आप सही या गलत, कौन सी दिशा चुनते हैं, इसका अवसर हमेशा होता है।
क्या न्यायिक कार्य को आसान बनाने के लिए अब हर न्यायालय में मंदिर होगा? निर्णय सुरक्षित रखने के बाद संबंधित पीठ मंदिर में जाए (बार वाला पांच सितारा होटल तो बाद में आता है), अपनी इच्छा के देवता से सलाह करे और फिर अपना फैसला सुनाए! या फिर क्या इससे भी अच्छा यह नहीं होगा कि ये उलझाऊ और महंगी अदालतें रहे ही क्यों जो गैंगस्टरों के लिए अपने प्रतिद्वंद्वियों को गोली मारने के लिए सुविधाजनक स्थल के अलावा और कुछ नहीं? उनकी जगह मंदिर को रखें जो रजिस्ट्री के रूप में काम करें और मुख्य पुजारी दिव्य निर्णय सुनाएं!
हम इसके लिए हिमाचल मॉडल अपना सकते हैं जहां ‘देवता’ अपने प्रवक्ताओं (गुर) के माध्यम से बोलते हैं और आम हिमाचलियों को बताते हैं कि क्या करना है। मैं सुझाव दूंगा कि न्यायाधीशों की एक समिति इस मॉडल का अध्ययन करने के लिए कुल्लू के सुदूर गांव मलाणा जाए। जम्बलू (देवता) के प्रवक्ता (गुर) ने सरकार को बताया है कि देवता कुल्लू-बिजली महादेव रोपवे को मंजूरी नहीं देते हैं।
पिछले कुछ सालों के दौरान यह गुर ही रहे हैं जिन्होंने ड्यूटी पर मलाणा जाने की इच्छा रखने वाले अधिकारियों के दौरे के कार्यक्रमों को मंजूरी दी!
सीजेआई चंद्रचूड़ द्वारा खोले गए भानुमती के पिटारे की जटिलता दिमाग को चकरा देने वाली है। भारत में लगभग 17,000 न्यायाधीश हैं; क्या होगा अगर उनमें से प्रत्येक निर्णय देने से पहले अपने परिवार के देवता से परामर्श करने का फैसला करता है? हमारे धर्म में देवी-देवताओं का एक सख्त पदानुक्रम भी है जिसके साथ छेड़छाड़ करना जोखिम भरा है।
इससे हमारे न्यायशास्त्र की पूरी अपील प्रक्रिया तहस-नहस हो जाएगी। क्या होगा अगर ट्रायल जज का भगवान अपील जज के भगवान से दैवीय पदानुक्रम में श्रेष्ठ हो? उस स्थिति में किसका फैसला माना जाएगा? और अगर खंडपीठ के सदस्य जजों के संबंधित भगवान एकमत नहीं हो पाते तो पीठ किसी मामले पर अंतिम निष्कर्ष पर कैसे पहुंचेगी? क्या होगा अगर उस पीठ के सबसे वरिष्ठ भगवान वीटो का इस्तेमाल करने पर जोर दे दें, जैसा कि अमेरिका इजरायल के मामले में करता है?
नहीं, महाशय नहीं! यह नया न्यायशास्त्र काम नहीं करने वाला, नए भारत में भी नहीं। अयोध्या के फैसले को गलत करार दिया जाना चाहिए। फौरन एक संयुक्त संसदीय समिति का गठन किया जाना चाहिए जो इस बात की जांच करे कि क्या अन्य मामलों पर आदेश पारित करते समय भी देवताओं से परामर्श किया गया था, जैसे- ईवीएम याचिकाओं को खारिज करना, उमर खालिद को जमानत देने से इनकार करना, अनुच्छेद 370 को खत्म करने का समर्थन करना, भीमा-कोरेगांव के ‘आरोपी’ की जमानत याचिकाओं को बार-बार खारिज करना, राफेल मामले को सीलबंद लिफाफे और तोड़े-मोड़े बयानों के आधार पर खारिज करना, हिंडनबर्ग खुलासे में अडानी और सेबी के खिलाफ आरोपों को दबाना, पेगासस जांच रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालना, पूजा स्थल अधिनियम को खत्म करना, जज लोया की रहस्यमय मौत की जांच से इनकार करना, वगैरह-वगैरह?
हमें यह जानना तो चाहिए ही कि क्या हम अब भी लोकतंत्र हैं या चुपचाप न्यायिक तख्तापलट के जरिए धर्मतंत्र बन गए हैं? जस्टिस चंद्रचूड़ को तो निश्चित ही खुदाई बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के माध्यम से एक नष्ट हिंदू मंदिर को उजागर करने के उनके प्रयासों से उन्हें घोर निराशा तो होगी! जब आप गड्ढे में हों तो खुदाई बंद कर देनी चाहिए!
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अभय शुक्ला सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। यह https://avayshukla.blogspot.com से लिए उनके लेख का संपादित रूप है।
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