बदलते बयान, खटाखट इंटरव्यू और घबराहट भरी देहभाषा बता रही है हवा का रुख किधर है
चुनावी नतीजों के बारे में अंदाजा लगाना हो तो सब छोड़कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बातों, उनके हाव-भाव को पैमाना बना दें, काफी हद तक अंदाजा हो जाएगा कि नतीजे कैसे आने जा रहे हैं।
जैसे-जैसे यह साफ हो रहा है कि बीजेपी उत्तरी राज्यों में भी दबाव में होने के कारण बैकफुट पर है, आलोचक और प्रशंसक- दोनों ही प्रधानमंत्री नरेेंद्र मोदी के एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से सुन रहे हैं। अपने चुनावी भाषणों और विभिन्न मीडिया संस्थानों को ‘उपकृत’ करके हुए उन्होंने जो अचानक एक के बाद एक साक्षात्कारों की झड़ी लगा दी, उनमें उन्होंने कई ऐसी बातें कहीं जिन्होंने दोनों तरह के लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा।
मोदी के मुंह से निकले एक-एक शब्द इसलिए भी अहम हैं क्योंकि उन्हें विभिन्न भरोसेमंद स्रोतों से जमीनी-खुफिया जानकारी मिलती होगी और उनकी बातों में उसकी झलक मिलना स्वाभाविक है। अगर इन ‘मंचित’ साक्षात्कारों से झांकते तथ्य किसी नैरेटिव में नई जान फूंकने की दृष्टि से न हों तो भी मोदी की बातों के लय, भाव में गौर करने वाले बदलाव तो आए ही हैं। ये बदलाव सभी के लिए नए आयाम खोलने वाले हैं, उनके लिए भी जो मोदी की छवि बनाते और फैलाते हैं।
आलोचक इसलिए मोदी की बातों को सुनकर उम्मीद बांध रहे हैं क्योंकि उनके भाषण निहायत असंगत होते हैं और वह पहले कही बातों से एकदम यू-टर्न ले लेते हैं जो बताता है कि वह कितने परेशान हैं। उदाहरण के लिए, उनका दावा कि कांग्रेस सरकार सबसे सबकुछ छीनकर मुसलमानों को दे देगी।
मोदी के प्रशंसकों को 74 साल की उम्र में थकाऊ चुनावी कार्यक्रम में दौड़ते-भागते प्रधानमंत्री में आशा दिखाई देती है। वे यह मानने को तैयार नहीं कि मोदी 75 साल की उम्र में सक्रिय राजनीति कोअलविदा कह देंगे। अरविंद केजरीवाल के इस दावे को कि अगर एनडीए जीतता है तो मोदी की जगह 50 साल के अमित शाह प्रधानमंत्री बन जाएंगे, को बेबुनियाद बताते हुए मोदी-प्रशंसक कहते फिर रहे हैं कि मोदी के रिटायर होने का सवाल ही नहीं है और वह एक और कार्यकाल के लिए बिल्कुल फिट हैं। उन्हें मोदी मैजिक के दम पर एनडीए के 400 सीटों के आंकड़े को सुनिश्चित करने की उनकी क्षमता पर अंधा विश्वास है।
कहना है कि मोदी के चुनावी भाषण ‘चतुर’ और ‘स्मार्ट’ होते हैं जो विपक्ष को भ्रमित करने और सुर्खियां बटोरने के लिए बनाए गए होते हैं। उनका सबसे बड़ा यू-टर्न उनके भाषण में सांप्रदायिक पुट होने को लेकर था। एक टीवी चैनल से बातचीत में मोदी ने कहा कि अगर उन्होंने सांप्रदायिक बयानबाजी का सहारा लिया तो वह सार्वजनिक जीवन के लिए उपयुक्त नहीं रहेंगे, यह बताता है कि वह घबराए हुए नहीं हैं। मीडिया में उनके प्रशंसकों के लिए भी यह इस बात का सबूत है कि उनकी जीत पक्की है।
हालांकि, जैसा कि कांग्रेस के डेटा एनालिटिक्स विभाग के प्रवीण चक्रवर्ती बेबाकी के साथ स्वीकार करते हैं, किसी को भी नहीं पता कि आधा चुनाव बीत जाने के बाद ‘स्कोर’ क्या है या कौन पार्टी कितनी सीटें जीत सकती है। प्रवीण का कहना है कि इसके बारे में सबसे बेहतर जानकारी प्रधानमंत्री मोदी के पास होगी और प्रधानमंत्री के विश्वासपात्र होने के कारण केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को भी अंदाजा होगा कि क्या होने जा रहा है। आखिर उन्हें इंटेलिजेंस ब्यूरो और दोस्ताना विदेशी ताकतों से रोजाना रिपोर्ट जो मिल रही होगी!
चक्रवर्ती ने बताया कि प्रधानमंत्री ने इस साल 9 मार्च से 8 मई के बीच लगभग 81 भाषण दिए। अप्रैल के मध्य तक उन्होंने लगातार ‘अब की बार 400 पार’ की बात की। फिर ‘400 पार’ का जिक्र धीरे-धीरे घटता हुआ बंद हो गया। प्रधानमंत्री ने मुसलमानों द्वारा सभी राष्ट्रीय संसाधनों और यहां तक कि घरों में रखे आभूषण और भैंसों को हड़पने की बात करनी शुरू कर दी। उन्होंने कांग्रेस के घोषणापत्र पर हमला किया और आरोप लगाया कि कांग्रेस मुसलमानों को खुश करना चाहती है और ओबीसी, एससी और एसटी के लिए सभी आरक्षण समाप्त कर मुसलमानों को देना चाहती है।
मई के पहले सप्ताह में उन्होंने गियर बदला और अचानक आरोप लगाया कि देश के दो सबसे बड़े व्यापारिक घरानों- अंबानी और अडानी ने ‘टेम्पो’ में काले धन से भरी बोरियां कांग्रेस को भेजी हैं। पीएम के इस बयान से शेयर बाजार धड़ाम हो गया और कांग्रेस ने मौके का फायदा उठाते हुए ईडी, आयकर विभाग और सीबीआई से जांच की मांग की। तब से प्रधानमंत्री ने अंबानी या अडानी या उनके काले धन का जिक्र नहीं किया।
मई के तीसरे सप्ताह के शुरू में प्रधानमंत्री ने मुसलमानों को घुसपैठिए और ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला कहा और लेकिन इस बात से वे एकदम मुकर गए। उन्होंने न्यूज18 टीवी चैनल से बातचीत में कहा, ‘मैंने कभी हिन्दू-मुस्लिम विभाजन की बात नहीं की; और अगर मैं ऐसा करता हूं, तो मैं सार्वजनिक जीवन के लिए फिट नहीं रहूंगा’। जब उनसे पूछा गया कि क्या मुसलमानों का उन शब्दों में वर्णन जरूरी था, मोदी ने कहा- ‘मैं हैरान हूं जी…किसने आपको कह दिया…मुसलमान की बात क्यों करते हैं? जी… गरीबों के बच्चे ज्यादा होते हैं… मैंने न हिन्दू कहा और न मुसलमान कहा।’
फैक्ट चेकर मोहम्मद जुबैर ने तुरंत ही पीएम के खुद के बयान का खंडन करने वाले वीडियो पोस्ट कर दिए।
कुछ दिन पहले टाइम्स नाऊ के साथ एक इंटरव्यू में भी उनसे यही सवाल पूछा गया था। प्रधानमंत्री ‘मासूमियत’ की मूर्ति बन गए और दावा किया कि वह मुस्लिम परिवारों के बीच बड़े हुए हैं, उनके कई मुस्लिम दोस्त हैं और ईद पर मुस्लिम पड़ोसियों ने उनके परिवार को खाना भेजा। ऐसे में वह हिन्दू-मुसलमान कैसे कर सकते हैं? उन्होंने दावा किया कि वह केवल तथ्य बता रहे थे और कांग्रेस के घोषणापत्र को उजागर कर रहे थे।
एक अन्य चैनल के साथ बातचीत में उन्होंने दावा किया कि वह मुहर्रम के जुलूसों में भाग लेते हुए बड़े हुए हैं। राजनीतिक विश्लेषक और टिप्पणीकार प्रेम पणिक्कर ने पोस्ट किया- ‘इस बात से पीछे हटने का एक मतलब है- बीजेपी को जमीनी स्थिति की खबर मिल रही है कि यादव, ओबीसी और मुस्लिम ‘इंडिया’ गठबंधन के पक्ष में एकजुट हो रहे हैं। मोदी मुसलमानों की इस तरह की एकजुटता नहीं चाहते इसलिए यह डैमेज कंट्रोल की कोशिश है।’
मई के पहले पखवाड़े में पीएम ने 20 से अधिक इंटरव्यू दिए। सवाल उठता है कि ये ‘सशुल्क’ पीआर थे या मुफ्त प्रचार? किसी भी टीवी साक्षात्कारकर्ता ने एक बार भी राहुल गांधी का तो इंटरव्यू नहीं लिया?
कुछ लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री अपने बारे में अधिक आकर्षक नजरिया प्रस्तुत कर रहे हैं ताकि अगर उन्हें पद छोड़ना पड़ा तो पूरे सम्मान के साथ किनारे हो जाएं। इस धारणा को टाइम्स नाऊ को दिए उनके इंटरव्यू में और बल मिला जब उन्होंने कहा, ‘आप मानें या न मानें, चुनाव मेरे दिमाग में कहीं नहीं है।’
चौथे दौर के मतदान के बाद अमित शाह ने कहा कि उनके हिसाब से एनडीए उन 380 सीटों में से 190 सीटें जीतने की स्थिति में है जहां मतदान खत्म हो चुका है। अगले दिन उन्होंने दावा किया कि ‘मोदी जी पहले ही 270 सीटें जीत चुके हैं और बहुमत हासिल कर चुके हैं।’ उन्होंने कहा कि अब लक्ष्य ‘400 पार’ है। सीएनबीसी ने जब उनसे शेयर बाजार में गिरावट पर पूछा तो शाह ने निवेशकों को सलाह दी कि वे अभी शेयर खरीद लें क्योंकि 4 जून को बाजार में तेजी आ जाएगी। वह कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखने का झांसा दे रहे हों या जीत हासिल करने के लिए पर्दे के पीछे कोई योजना बना रहे हों या फिर वह वास्तव में जीत के लिए बिल्कुल निश्चिंत हों। किसे पता?
हालांकि शाह की ‘चाणक्य’ की छवि को उनके गृह राज्य गुजरात में ही आघात पहुंचा है। 7 मई को मतदान खत्म होने के बाद से पार्टी में उथल-पुथल है। अखबारों की ऐसी सुर्खियों को नजरअंदाज करना मुश्किल है- ‘भाजपा में बवाल’। उनकी प्रतिष्ठा को इससे भी बड़ा झटका तब लगा जब वह इफको में निदेशक पद के लिए अपने उम्मीदवार को जिता नहीं सके। शाह ने खुद बागी विधायक जयेश रहादिया से बात की लेकिन रहादिया ने विद्रोह किया और शाह के उम्मीदवार बिपिन पटेल को हरा दिया। क्या गुजरात में कमजोर हो रही है मोदी और शाह की पकड़?
जमीनी स्तर पर उथल-पुथल की ओर इशारा करने वाले अन्य संकेतक भी हैं। उत्तर प्रदेश जहां बीजेपी विशेष रूप से रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद अजेय दिखाई दे रही थी, अब बेहद असुरक्षित दिख रही है, खास तौर पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में जहां अगले तीन चरणों में मतदान होना है। अमेठी और रायबरेली में प्रियंका गांधी की मौजूदगी ने आस-पास के निर्वाचन क्षेत्रों के चुनाव में भी जान डाल दी है। मायावती दलित मतदाताओं को बीजेपी से ‘इंडिया’ गठबंधन में जाने से रोकने की कोशिश कर रही हैं।
कुछ हफ्ते पहले तक यूपी में नजदीकी मुकाबले की संभावना नहीं दिख रही थी लेकिन बीजेपी के गढ़ भी अब अजेय नहीं दिख रहे हैं। अखिलेश यादव के कन्नौज से चुनाव लड़ने के फैसले को जिसे 2019 में बीजेपी ने जीता था, गेम चेंजर के रूप में देखा जा रहा है और यह कानपुर के नतीजे को भी प्रभावित कर सकता है।
कुश्ती महासंघ के विवादास्पद पूर्व प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह जिन्हें बीजेपी ने टिकट न देकर उनके बेटे को मैदान में उतारा, ने यह कहकर पार्टी को शर्मिंदा कर दिया कि वह योगी आदित्यनाथ के ‘बुलडोजर राज’ से सहमत नहीं हैं। बीजेपी के करीबी एक और राजपूत डॉन राजा भैया जिन्हें कल्याण सिंह ‘कुंडा का गुंडा’ कहकर पुकारते थे, ने घोषणा की कि उनके समर्थक अपनी पसंद के किसी भी व्यक्ति को वोट देने के लिए स्वतंत्र हैं। इस रिपोर्ट ने कि अमित शाह ने यूपी में डेरा डाला और वरिष्ठ अधिकारियों के साथ सीधे बातचीत की, इन अटकलों को मजबूती दी है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दरकिनार किया जा रहा है और चुनाव के बाद उन्हें बदल दिया जाएगा।
बिहार में तेजस्वी यादव तेजी से आगे बढ़ रहे हैं और उन्होंने यह दावा करके हंगामा खड़ा कर दिया है कि नीतीश कुमार ‘शारीरिक रूप से’ एनडीए में हैं लेकिन ‘आध्यात्मिक रूप से’ इंडिया गठबंधन के साथ हैं। नीतीश बीमारी की बात करके वाराणसी में पीएम मोदी के नामांकन के समय नहीं पहुंचे जिससे इस तरह की अफवाहों को बल मिला है।
पश्चिम बंगाल में 2019 में बीजेपी को वोट करने वाले वामपंथी मतदाता अपनी पार्टियों में लौट रहे हैं। यह एक ऐसी संभावना है जिसकी बीजेपी ने कल्पना भी नहीं की थी। बीजेपी के अनुरोध पर राज्य में बड़ी संख्या में सीएपीएफ (सेंट्रल आर्म्ड पुलिस फोर्सेज) की तैनाती के बावजूद बंगाल में कम-से-कम तीन बीजेपी उम्मीदवारों- राणाघाट में जगन्नाथ सरकार, पूर्वी बर्धमान-दुर्गापुर में दिलीप घोष और कृष्णानगर में महुआ मोइत्रा को टक्कर दे रहीं ‘राजमाता’ अमृता रॉय- ने आरोप लगाया है कि सीएपीएफ तृणमूल कांग्रेस की मदद कर रही है। संदेशखली और सीएए मुद्दों के तौर पर गर्मा न सके जिन पर भाजपा ने भरोसा कर रखा था।
कोलकाता से एक हजार किलोमीटर दूर कन्नौज में मौजूदा बीजेपी सांसद सुब्रत पाठक एक मतदान केंद्र में सुरक्षा बलों पर भड़क गए और चेतावनी दी कि वह उन सभी के खिलाफ सतर्कता जांच शुरू करेंगे। हो सकता है कि ये शिकायतें ज्यादा कुछ न कहती हों लेकिन जमीनी स्तर पर क्या हो रहा है, इसका संकेत जरूर करती हैं। यहां तक कि सपा प्रमुख अखिलेश यादव जो पाठक के खिलाफ मैदान में हैं और उनके जीतने की पूरी उम्मीद है, ने भी शिकायत की कि पुलिस मतदाताओं को वोट डालने के लिए बूथ तक नहीं पहुंचने दे रही है।
कन्नौज से दो सौ किलोमीटर दूर यूपी के बरेली में भी एक और वीडियो वायरल हुआ जिसमें दो होमगार्डों ने एक व्यक्ति पर हमला किया और सरकार से ‘मुफ्त राशन’ लेने और फिर भी सरकार के खिलाफ मतदान करने के लिए उसे डांटा।
‘हाऊ टु विन एन इंडियन इलेक्शन’ के लेखक शिवम शंकर सिंह ने एक्स पर पोस्ट किया, ‘मुझे नहीं पता कि बीजेपी कितनी सीटें जीत रही है- शायद उन्हें 400 सीटें मिल रही हैं? लेकिन मैं एक दिन के लिए सोनीपत गया और शिक्षित युवाओं के बीच बेरोजगारी के पैमाने को देखकर हैरान रह गया। जब एक फल बेचने वाले ने कहा कि वह बीजेपी को छोड़ कांग्रेस को वोट देने जा रहा है क्योंकि वह बीटेक की डिग्री लेने के बाद भी फल बेच रहा है, तो आपको इसकी परवाह नहीं होती कि कौन जीत रहा है। आपको अपने देश के लिए अफसोस होता है।’
अगर यह रोजगार और महंगाई बदलाव का कोई संकेत है तो क्या यह कुछ सीटों तक ही सीमित रहेगा और विभिन्न राज्यों में महसूस नहीं किया जाएगा?
स्वराज इंडिया के सह-संस्थापक योगेंद्र यादव ने कहा कि बीजेपी और एनडीए 272 के आंकड़े तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और वे 2019 की अपनी सीटों से काफी नीचे रह जाने वाले हैं। वह 1977 जैसी स्थिति को खारिज करने में एक्सिस माई इंडिया के प्रदीप गुप्ता से सहमत हैं। एक टीवी चर्चा में उन्होंने कहा, उन्हें अब भी बीजेपी के 200 सीटों से नीचे रहने या इंडिया गठबंधन को 300 सीटें हासिल होती नहीं दिख रही है।
इंतजार करना होगा और देखना होगा कि क्या हवा सचमुच बदल रही है?
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