मृणाल पांडे का लेख: क्या सरकार भरोसा जगा सकती है कि वह देश में, खुद धर्म में असली धर्म की बहाली कर सकेगी?

दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया की चंद आलोचनापरक आवाजों को राजसत्ता पत्रकारिता धर्म का निर्वाह नहीं मानती। पत्रकारिता और सूचना संप्रेषण धर्म की महती लड़ाई सिर्फ दलगत राजनीति के चलताऊ धरातल पर सीमित करके कोई भी सत्ता अंत में रावण की तरह अपना ही अहित करती है।

इलेस्ट्रेशन: अतुल वर्धन
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मृणाल पाण्डे

धर्म एक ऐसा शब्द है जिससे आज सारी दुनिया को पग-पग पर काम पड़ता है। खुद हमारे राष्ट्रीय चिन्ह पर लिखा है, सत्यमेव जयते। सर्वोच्च अदालत के मुखिया की गद्दी के ऊपर लिखा है, यतस्धर्मो ततो जय:। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी तक इस शब्द को बाकायदा स्वीकार कर चुकी है। ऋग्वेद से निकल कर दुनिया के शब्द भंडार में शामिल हो गए इस शब्द की उम्र तकरीबन 4000 बरस की तो है ही। दिक्कत यही है कि इन चार हजार बरसों में नीतियों और नीयतों के बदलावों की कृपा से मूल मतलब ऋत् यानी सकल ब्रह्मांड को सुरक्षित और स्थिर रखने वाले नियम, अक्सर बदल जाने से धर्म अमृत और विष का मिला जुला रूप बन बैठा है। ‘मनुष्य के मन में जो ऊंची भावनाएं हैं, उनको प्रकट करने का साध नही धर्म था; लेकिन मनुष्य ने स्वयं ही इस पवित्र शब्दको अपने नारकीय जीवन का साधन भी बना डाला।’ (वासुदेव शरण अग्रवाल)

ऋग्वेद में धृ क्रिया मतलब है, धारण करना। जो तत्व सबको एक समान धारण करे और विनाशक तत्वों को उनको नष्ट करने से रोके वही धर्म है। सूर्य और चंद्र ही नहीं, वे तमाम लोक भी, जहां पहुंचने में प्रकाश को भी सैकड़ों साल लग जाते हैं, सभी इन नियमों के आधीन हैं। सरल मन आमजन के दिल में धर्म का यही मतलब बसा हुआ है। इसलिए किसी को घूस देने-लेने, खेती की जमीन बेचने, पेट काटकर भी अतिथि सत्कार करने, रोजाना की पूजा, प्रार्थना अथवा नमाज पढ़ने में हर कहीं संशय की घड़ी में आमजन ‘नेम-धरम’ या ‘दीन-ईमान’ के पक्ष में ही खड़ा होता रहा है।

लेकिन युग के साथ ही शब्दों के अर्थ बदलते हैं। ऋग्वेद के हजार बरस बाद के अथर्ववेद का ‘पृथ्वी सूक्त’ पृथ्वी को ‘धर्मणाधृता’ अर्थात् धर्म पर टिकी हुई बताता है और साथ ही इसका मतलब और समझा कर कहता है कि पृथ्वी पर कई तरह के कई मान्यताओं वाले धर्मों के अनुयायी एक साथ रहते हैं। यानी धर्म शब्द इस समय तक संप्रदाय विशेष से भी जोड़ा जाने लगा था। बाद के गृह्य सूत्र सामाजिक नियमानुशासन की जो फेहरिस्त पेश करते हैं, उसमें धर्म शब्द तनिक और फैलकर रीति-रिवाजों से, अनुष्ठानों (शिष्टाचार) से जुड़ता है। फिर आए धर्मसूत्र, जिन्होंने धर्म शब्द में एक पतली गली निकाल कर कई तरह के अंधविश्वासों या दंतकथाओं पर आधारित मान्यताओं को भी धर्म की मुख्यधारा से ला जोड़ा।

इन धर्मसूत्रों से ही पारंपरिक कानून निकले, जिनको अंग्रेजों के पहले तक धार्मिक समुदाय विशेष के शिष्टाचार मानकर एक जायज हैसियत मिली रही। धर्म अदालतों, पंचायतों में तब उत्तराधिकार, संपत्ति के बंटवारे, विवाह तथा तलाक के तमाम मसलों को उनके ही तहत निपटाया जाता था। इससे महिलाओं, अवैध संतान, पुत्रहीन दंपतियों और धर्म परिवर्तन करने वालों के हक में कुल धर्म, श्रेणी धर्म (पेशेवर संगठनों के नियमानुशासन) के नाम पर कई बार घोर अन्याय होते रहे। जैसे धर्म बदलने पर पैतृक संपत्ति से बेदखली, दत्तक संतान को सिंहासन न देना, विधवा विवाह निषेध या सती प्रथा का पालन।

सामाजिक सुधारकों से मशवरे के बाद नए अंग्रेजी कानून की धाराओं ने इनमें से कई को अमान्य कर दिया। फिर भी कई तरह के सांपत्तिक और महिलाओं के हकों से जुड़े कानूनों को हटाने में अंग्रेज भी जनता की गहरी नाराजगी के भय से झिझकते थे, इसलिए बहु विवाह, पुत्रियों को पैतृक संपत्ति में हक से वंचित रखना, घरों में महिलाओं के खिलाफ शारीरिक हिंसा बंद कराना या दहेज प्रथा जैसे विषयों पर कानून गायब रहे।

हमारे समय में धर्म की इसी मौलिक व्याख्या को गांधी ने भी आगे बढ़ाया जब उन्होंने घोषणा की कि अंग्रेजी शासन अधर्म का शासन है। उस शासन को उखाड़ फेंकने के लिए गांधी के सत्याग्रह संबंधी व्याख्यानों को यहां से वहां तक देख लीजिए उनमें मत मतांतर का कोई भेद नहीं। उनकी इसी बात को पकड़कर आजादी के बाद लिंग, जातिगत समानता और धर्मनिरपेक्षता के आधार पर संविधान बना और वक्त बदलने के साथ ही जैसे-जैसे परिवारों के आकार, औरत-मर्द के संबंध और संपत्ति के स्वरूप बदले, उसमें से भी कई कानूनों में बदलाव किए गए। धर्म और न्याय का यह अन्योन्याश्रित रिश्ता समझने वाले अटल जी ने 2002 में गुजरात दंगों के बाद मुख्यमंत्री के लिए जैसे ही कहा कि उन्होंने राजधर्म का पालन नहीं किया, लोग समझ गए कि राजधर्म से उनका आशय सिर्फ कानून-प्रशासन की मशीनरी को चलाने भर से नहीं, न्याय और विवेक के उन कालातीत नियमों के पालन से था जो लोकतंत्र की भी मर्यादा बनाते हैं।

याद करने लायक है कि तब से धर्म की इसी उदार व्याख्या पर कई भेदभाव पूर्ण पारंपरिक कानूनों में सुधार हुए हैं। कई बार पाबंदी हटाने के मसले विभिन्न संप्रदायों के हठवादी कट्टरपंथियों की आपत्तियों को परे हटा कर अदालत में लाए गए। उन पर सर्वोच्च अदालत ने गंभीर विचार का सिलसिला जारी किया। आप बेशक राजा राममोहन रॉय से लेकर आंबेडकर तक को कोसें, पर पुरानी सड़ी-गली व्यवस्था को बदलने के लिए कानूनी सुधारों का अनवरत यह सिलसिला खुद में एक स्वस्थ और समयानुकूल काम है। अलबत्ता जब कभी अदालतों पर दबाव डालकर इन मसलों को वोट की राजनीति से जोड़ते हुए दलगत हित स्वार्थों के तहत धर्म शब्द के मूल समदर्शी भाव और संतुलन को नष्ट किया जाने लगे, तो उसका मुखर विरोध कतई जायज है।

इन दिनों जेएनयू के छात्र फीस को अचानक 1000 फीसदी बढ़ाए जाने के विरोध में जो सड़क पर उतरे हैं, उसे इसी श्रेणी में देखा जाना चाहिए। वहां परिसर में रहने की कम फीस रखने के मूल में एक समतावादी आग्रह था जिससे सैकड़ों बहुत गरीब ग्रामीण स्कूलों से निकले छात्रों को उच्च शिक्षा का लाभ मिला। फीस का नया ढांचा जिसमें सर्विस टैक्स भी शामिल है, लगभग 60 फीसदी छात्रों की सीमित आर्थिक हैसियत देखते हुए उनको बड़े घरों के छात्रों जैसी शिक्षा पाने के हक से दूर कर सकता है।

दूसरा मसला फेक न्यूज का है जो मीडिया में अधर्म का बड़ा पतनाला बन गया है। यह सुनकर अचरज हुआ कि इस पतनाले का अवरुद्ध मुंह खोलने वाले चरण, पेड न्यूज को भुला दिया गया है। पेड न्यूज यानी वह खबरें, जो 90 के दशक से मीडिया में कोई अपने हित में पैसा देकर अखबारों या चैनलों में इस तरह पेश करवा सकता है कि वे संपादकीय टिप्पणियां लगें, दल या नेता विशेष की बिक्री का प्रयास नहीं। हालिया चुनावों में दलों के खर्चे के ब्योरे देख लीजिए मतदाताओं को भ्रमित करने में पेड न्यूज का रोल भी साफ हो जाएगा। पर लोग रो रहे हैं कि हाय, फेक खबरें मीडिया की विश्वसनीयता को मिटा कर जनता को गुमराह कर रही हैं। टीवी पर या संपादकीय अग्रलेखों में फेक न्यूज और भ्रष्ट मीडिया पर लिखने बोलने वाले अधिकतर लोग एक किस्म के राजनीतिक नवब्राह्मण, बैंकों का लोन अदा न करने वाले मल्टीमीडिया के कई उद्योगपति मालिक और उनके सफेदपोश खबरची हैं।

उनमें से एक के अनुसार आजाद मीडिया को खुद आगे आकर फेक न्यूज की जड़ काटनी होगी। आजाद मीडिया का सत्ता की साफ-साफ सप्रमाण आलोचना करने का हक तो महामहिम, आपै सरीखे जनों ने नष्ट कर दिया है। आजाद खयाल संपादकों को वनवास या जेल भी आपै लोग दिला कर उनकी जगह गोदी मीडिया को बिठवा चुके हो। अब इस प्रोफेशनली वीरान हो चुके मीडिया के आंगन में कभी आपै का पुचकारा सोशल मीडिया पाताल में पैठ कर वहां से आपका आंगन टेढ़ा किए दे रहा है। अब नाच न सकने का रोना रोने से क्या फायदा?

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मीडिया की चंद आलोचनापरक आवाजों को राजसत्ता पत्रकारिता के धर्म का निर्वाह नहीं मानती। बुरी खबर लाने वाले दूत को झूठा साबित कर उसकी पूंछ में तेलिहा चिथड़े लपेट कर आग लगाने पर तुली रहती है। पत्रकारिता और सूचना संप्रेषण धर्म की महती लड़ाई सिर्फ दलगत राजनीति के चलताऊ धरातल पर सीमित करके कोई भी सत्ता अंत में रावण की तरह अपना ही अहित करती है। जबकि उसे दोबारा जनता का वोट जीतना हो तो उन आवाजों का स्वागत करना चाहिए ताकि शासन को सही दिशा, उसका खोया ऋत् दोबारा मिल सके।

अगर मौजूदा सरकार को यकीन है कि उसका अवतार भारत में सामाजिक संतुलन और न्याय की बहाली के लिए हुआ है, तो वह सिर्फ आस्था और ईमान की जुगनू रोशनी के सहारे सामने डटे हुए मीडिया के एक लघुकाय हिस्से को एक पूरक क्रांति के रूप में क्यों नहीं देखती? जब जीडीपी, रोजगार, निर्यात सब तेजी से नीचे लुढ़क रहे हैं, प्रदूषण ने जीना हराम कर रखा है, सरकार क्या केंद्रीय सशस्त्र बल, ईडी, सीबीआई और पुलिसिया जत्थों की दबिश को टीवी पर दिखा-दिखा कर जनता के मन में तोला भर भी भरोसा जगा सकेगी कि वह देश में, खुद धर्म में असली धर्म की बहाली कर सकती है?

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