कैबिनेट फेरबदल: यूपी विधानसभा चुनाव से पहले मोदी की छवि चमकाने के लिए दे दी गई वरिष्ठ मंत्रियों की बलि
बुधवार को हुए मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार और फेरबदल को भक्त इसे नरेंद्र मोदी का दूरदर्शी कदम बता रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है क्योंकि इस सरकार के शासन में यह तो एक अंतर्निहित प्रणाली का अभिन्न हिस्सा रहा है जिसके मार्गदर्शन में ही बीजेपी और मोदी सरकार के कामकाज चलता है।
बुधवार को हुए मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार और फेरबदल को भक्त इसे नरेंद्र मोदी का दूरदर्शी कदम बता रहे हैं। इसमें कोई आश्चर्य भी नहीं है क्योंकि इस सरकार के शासन में यह तो एक अंतर्निहित प्रणाली का अभिन्न हिस्सा रहा है जिसके मार्गदर्शन में ही बीजेपी और मोदी सरकार के कामकाज चलता है। लेकिन ध्यान से अगर इस फेरबदल और 4 अहम मंत्रियों की छुट्टी से एक ही बात साफ होती है कि सरकार ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी नाकामी को स्वीकार किया है।
मोदी की बढ़ती अलोकप्रियता और बिगड़ती छवि को सुधारने की कवायद में इन चार हाई-प्रोफाइल मंत्रियों की बलि दी गई है। कुछ हद तक इसका श्रेय पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में बीजेपी की हार को जाता है, जिससे स्पष्ट हो गया था कि लोगों ने मोदी की कार्यशैली को खारिज कर दिया है।
6 कैबिनेट मंत्री, एक स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री और 6 अन्य राज्यमंत्रियों से इस्तीफा ले लिया गया। इनमें बाबुल सुप्रियो भी शामिल हैं जो पश्चिम बंगाल में मोदी की पताका उठाए हुए थे।
प्रकाश जावड़ेकर ने तो भारतीय मीडिया को एक तरह से गुलाम बना लिया था और उनके इस रवैये के चलते ही मुख्यधारा के मीडिया को 'गोदी मीडिया' की उपाधि मिली थी। यह सबको पता है कि जावड़ेकर ने मीडिया पर अप्रत्यक्ष सेंसरशिप लगाई थी। ऐसे में चौंकाने वाली बात यह है कि अपने बॉस की छवि को सुधारने के लिए इतनी हद तक जाने वाले को बर्खास्त कर दिया गया है।
उनकी बर्खास्तगी से एक संदेश निकलता है कि मोदी सरकार में सब कुछ सही नहीं था और मोदी भविष्य में और भी अधिक क्रूर तरीके से कार्य करने पर विचार कर रहे हैं। जावड़ेकर ने अपने जाने से पहले ही डिजिटल मीडिया और छोटी वेबसाइटों को एक तरह से पिंजड़े में कैद करने की दिशा में आगे बढ़ना शुरू कर दिया था क्योंकि ये असहमति की लोकप्रिय आवाजों के रूप में उभरी हैं।
रविशंकर प्रसाद ने तो मोदी के प्रति अपनी व्यक्तिगत निष्ठा का संकल्प लिया था। वह एक तरह से देखा जाए चो व्यावहारिक रूप से मोदी के निजी स्टाफ के रूप में काम कर रहे थे। वह मोदी को खुश रखने और उनकी छवि को निखारने के लिए हर तरह की गतिविधियों का सहारा ले रहे थे। रविशंकर प्रसाद वही व्यक्ति हैं जिन्होंने 2015 में मोदी की छवि को बढ़ावा देने और प्रोजेक्ट करने के प्रयासों के लिए ट्विटर की सराहना की थी। लेकिन हाल के महीनों में, वह विपक्ष की आवाज़ों को जगह देने के लिए ट्विटर के पीछे हाथ धोकर पड़ गए थे।
रविशंकर प्रसाद की अगुवाई में आईटी मंत्रालय उन नियमों को लेकर ट्विटर और फेसबुक के साथ आमने सामने आ गए थे जो केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के लिए बनाए थे। प्रसाद के पसंदीदा निशाने पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी रहते थे। उन्होंने एक तरह का नियम बना लिया था कि राहुल गांधी के हरेक बयान पर टिप्पणी करनी है। लेकिन ये सारी कोशिशें उनकी कुर्सी बचाने में नाकाम ही साबित हुईं।
कोरोना महामारी को संभालने में मोदी सरकार की नाकामी के लिए डॉ हर्षवर्धन को बलि का बकरा बना दिया गया। ध्यान रहे कि इस महामारी ने सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कम से कम 4 लाख लोगों की जान ले ली। यह एक सर्वविदिति तथ्य है कि नरेंद्र मोदी ने खुद ही इस संकट की कमान संभाल रखी थी और अगर देश में ऑक्सीजन की कमी और वैक्सीनेशन में देरी के लिए कोई जिम्मेदार है तो खुद नरेंद्र मोदी हैं। यह मोदी की जिम्मेदारी थी कि वे इस महमामारी से निपटने के लिए पूरे देश की सरकारी मशीनरी को एक्टिव करते। लेकिन अपनी गलतियों को स्वीकारने के बजाए उन्होंने हर्षवर्धन को बर्खास्त कर दिया।
रमेश पोखरियाल निशंक ऐसे दौर में दो साल तक देश के शिक्षा मंत्री रहे जब महामारी का साया पूरे देश पर छाया था। उनके कार्यकाल में ही राष्ट्रीय शिक्षा नीति आकार में आई, जिसकी चौतरफा भर्त्सना भी हुई। सीबीएसई परीक्षाओं को लेकर निशंक और मोदी में मतभेद थे। उन्होंने तो सीबीएसई परीक्षाएं कराने के पक्ष में एक लेख भी लिखा था, लेकिन मोदी ने परीक्षाएं रद्द करने का ऐलान कर दिया।
यह सब जानते हैं कि इस सरकार में मोदी की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। ऐसे में अगर कोई यह मानता है कि सरकार के मंत्री अपनी मर्जी से काम करते हैं तो वह नादान है।
इन मंत्रियों की बर्खास्तगी से यह एक बार फिर साबित हुआ है कि कोई भी मंत्री किसी भी मुद्दे पर अपने स्वतंत्र विचार रखने का साहस नहीं कर सकता। वे तो सिर्फ रीढ़विहीन जीवों की तरह व्यवहार बस करते हैं। यह कहना गलत होगा कि जिन मंत्रियों को बर्खास्त किया गया है वे अपने प्रदर्शन की वजह से सजा के हकदार थे। दरअसल उनकी बलि तो मोदी की छवि को निखारने के लिए दी गई है।
श्रम मंत्री रहे संतोष गंगवार प्रवासी मजदूरों के मुद्दे पर जबरदस्त आलोचना का शिकार हुए थे। लेकिन हकीकत तो यह है कि मोदी ने ही नीतियों में ऐसा बदलवा किया था जिससे इतना बड़ा संकट खड़ा हो गया।
यहां यह गौर करने वाली बात है कि कई ऐसे मंत्रियों की कुर्सी बच गई है जिनका प्रदर्शन बहुत खराब रहा है और वे जिस विभाग के इंचार्ज हैं उसके लायक नहीं हैं। कांग्रेस ने सही ही इसे दूरदर्शिता की कंगाली करार दिया है।
मोदी ने अब एक नए मंत्रालय का गठन किया है जिसका नाम है सहयोग मंत्रालय। लेकिन इसे लेकर अभी स्पष्टता नहीं है कि मोदी सरकार किस तरह से ‘सहकार से समृद्धि’ का लक्ष्य हासिल करेगी।
यह विशुद्ध रूप से एक लोकलुभावन कदम है और सहकारी आंदोलन को मजबूत करने के बहाने किसानों को भ्रमित करने और उन्हें लुभाने के लिए शुरू किया गया दांव है। मोदी सरकार के दूसरी बार सत्ता में आने के बाद 2019 के बाद से सहकारिता मंत्रालय बनाया जाने वाला दूसरा मंत्रालय है। इससे पहले, सरकार ने जल शक्ति मंत्रालय बनाया था जिसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
वैसे भी 2014 से ब्यूरोक्रेटिक पैनल्स ने कई मंत्रालयों को एक दूसरे में विलय करने के सुझाव दिए हैं। लेकिन इस मोर्चे पर अभी तक कुछ हुआ नहीं है।
दरअसल मोदी की मंत्रियों को हटाने और नए चेहरों को शामिल करने की पूरी कवायद यूपी विधानसभा चुनाव जीतने के उद्देश्य से की गई है। उन्होंने लगभग 18 ओबीसी मंत्रियों को शामिल किया है, जिनमें से अधिकांश यूपी से थे। इसका उद्देश्य पूरी तरह से उन पिछड़ी जातियों का विश्वास जीतना है जो बीजेपी और योगी से अलग-थलग महसूस कर रही हैं। ब्राह्मण पहले से ही पार्टी और योगी सरकार से नाराज हैं। मोदी ने लोगों के इस वर्ग के बीच विश्वास के स्तर को बढ़ाने के लिए विस्तार के माध्यम से एक बड़ा कदम उठाया है।
(आईपीए के लिए अरुण श्रीवास्तव का लेख। लेख में व्यक्त विचार लेख के निजी विचार हैं)
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