देश भर में प्रदर्शनों ने बनाया रिकॉर्ड, लेकिन गणतंत्र की रक्षा के लिए तय करना होगा लंबा रास्ता
निश्चित तौर पर, भारत के गणतंत्र को संविधान के प्रस्तावना मूलक आदर्शों को ठीक ढंग से उतारने से पहले लंबा रास्ता तय करना होगा। उन लाखों निडर-निर्भीक युवा भारतीयों ने नई आशा पैदा की है जो सीएए और एनआरसी के खिलाफ और संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
महात्मा गांधी हमें शिक्षा दे गए हैं कि ‘वर्गों की राजनीति’ देश के जीवन को ठहरा हुआ जल बना देती है जबकि ‘जनता की राजनीति’ इसे बहता पानी बनाती है, गंदगी साफ कर देती है और नए विचारों, नई ऊर्जा और नए नेताओं के साथ इसे नया जीवन देती है। 1915 में दक्षिण अफ्रीका से उनके आने से पहले भारत की आम जनता- किसान, श्रमिक और महिलाएं आदि- आजादी के आंदोलन में बड़े पैमाने पर सक्रिय नहीं थी। यहां तक कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस भी अधिकतर उच्च वर्गों के प्रतिनिधियों का मंच थी। इसमें शक नहीं कि वे सच्चे अर्थों में स्वतंत्रता सेनानी थे। लेकिन उनके और भाग न लेने वाली बड़ी आबादी के बीच गहरी खाई के कारण स्वराज का आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव को चुनौती देने में कमजोर था। पहली बार, गांधीजी ने इसमें जनता को शामिल करने के लिए प्रेरित किया और बाकी बातें इतिहास में दर्ज हैं।
नरेंद्र मोदी सरकार के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दो प्रयासों- संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) के खिलाफ राष्ट्रव्यापी प्रतिरोधों के साथ यही हो रहा है। संसद के दोनों सदनों के जरिये नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी) को जिस तरह सरकार ने पारित कराया, उसे देखें। हालांकि उसे राज्यसभा में बहुमत हासिल नहीं है, इसके पास छोटी पार्टियों को अपने साथ लाने में जोड़-तोड़ और बलपूर्वक हासिल करने की पर्याप्त शक्ति है।
सीएबी को समर्थन देने वाली कुछ पार्टियां अब कह रही हैं कि उनकी राज्य सरकारें एनआरसी की प्रक्रिया का पालन नहीं करेंगी और यह भी कि सीएए पर फिर से बहस की जानी चाहिए। देखें कि एक के बाद दूसरे इंटरव्यू में केंद्रीय गृह मंत्री किस तरह धमकी दे रहे थे कि एनआरसी की प्रक्रिया न सिर्फ असम, बल्कि पूरे देश में पूरी की जाएगी। जब तक इस मुद्दे पर अखबारी काॅलमों और राजनीतिक दलों के नेताओं के ड्राइंग रूम्स में बातचीत हो रही थी, मोदी सरकार ने आलोचना की गर्मी को शायद ही महसूस किया था।
लेकिन जैसे-जैसे प्रतिरोध शहर-दर-शहर, नगर-दर-नगर में होने लगे, और विद्यार्थियों और युवाओं की वजह से ‘नो टु सीएए, नो टु एनआरसी’ के नारे लगाती हुई लोगों की भीड़ वाला हर प्रतिरोध पहले से बड़ा होने लगा, पूरा देश और शेष दुनिया ऐसी कुछ बात देखने लगी जो भारत में नई और अभूतपूर्व थी। यह आंधी इतनी तेज थी कि अपने फैसलों से पीछे न हटने वाले प्रधानमंत्री को खुद ही सामने आकर अपने पैर थोड़े पीछे खींचने पड़े। यह जरूर है कि इस प्रक्रिया में, उन्होंने भारत के लोगों से दो सफेद झूठ भी कहीं- 22 दिसंबर को दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि 2014 से ही उनकी सरकार में कभी भी एनआरसी पर चर्चा नहीं हुई है और यह भी दावा किया कि देश में कहीं भी डिटेन्शन सेंटर नहीं है।
वैसे, भारत गणराज्य के इतिहास में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों ने चार बिंदुओं पर नया रिकाॅर्ड बनाया है।
पहलाः आजादी के बाद इतनी बड़ी संख्या में और पूरे देश में विद्यार्थी और युवा इस तरह के व्यापक आंदोलन में कभी सामने नहीं आए। यह 1974 से भी बड़ा आंदोलन है क्योंकि तब वह सिर्फ बिहार और गुजरात तक सीमित था। हम उससे भी बड़े आंदोलन के गवाह बन रहे हैं।
दूसराः विद्यार्थियों और युवाओं का गुस्सा सिर्फ सीएए और एनआरसी को लेकर नहीं है। जामिया मिल्लिया और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में बर्बर पुलिस कार्रवाई और (पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन की मौन स्वीकृति के साथ) अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उपद्रवियों द्वारा जेएनयू के छात्रों और शिक्षकों पर हिंसक हमले के कारण देश भर के लाखों विद्यार्थी सरकार की दमनकारी कार्रवाई के खिलाफ और शांतिपूर्ण प्रदर्शन के नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकार की बहाली के लिए सड़कों पर उतर आए। यह भी भारत के इतिहास में पहली दफा है जब भारतीय और कई विदेशी विश्वविद्यालयों के बच्चों (और इनमें गैरभारतीय बच्चे भी थे) ने विरोध प्रदर्शन किए।
तीसराः आजादी के बाद से मुस्लिम महिलाओं समेत भारतीय मुसलमान इतनी बड़ी संख्या में और देश के लगभग सभी हिस्से में जिस तरह निकले हैं, वैसा इससे पहले कभी नहीं हुआ। पहले के मुस्लिम विरोध प्रदर्शनों से अलग, वे जिस तरह अपनी भारतीयता पर जोर दे रहे हैं, वैसा भी पहले नहीं देखा गया- वे गौरव के साथ तिरंगा लहरा रहे हैं और राष्ट्रगान गा रहे हैं। वे शासकों को खुलकर यह संदेश दे रहे हैं किः हमलोग दूसरे भारतीयों जितने ही भारतीय हैं। हम आपको हमें दूसरे दरजे का नागरिक बनाने की अनुमति नहीं देंगे। हम भेदभाव का प्रतिरोध करेंगे।
बहुमतवादी श्रेष्ठता के खिलाफ शायर राहत इंदौरी की यह पंक्ति लगभग सभी विरोध प्रदर्शन में दोहराई जा रही हैः
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में
किसी के बाप का हिंदुस्तान थोड़े ही है।।
भारतीय गणराज्य के भविष्य के खयाल से इस देशभक्ति पूर्ण मुस्लिम दृढ़ता का काफी महत्व है। यह भारतीय समाज में सांप्रदायिक विभाजन की खाई को भरकर पुनर्जीवन दे सकता है; यह मुस्लिम संस्कृति की दौलत को सार्वजनिक जीवन में लाकर देश की बहुवादी संस्कृति को समृद्ध कर सकती है (अभी यह कुल मिलाकर अनुपस्थित है); मुसलमानों के ज्ञान, प्रतिभा और उद्यमशीलता के जरिये भारत के आर्थिक विकास को विस्तृत किया जा सकता है (मुसलमान अभी अपर्याप्त अवसरों को गहराई से महसूस करते हैं); और, सभी स्तरों पर न्याय संगत और उत्तरदायित्वपूर्ण भागीदारी के साथ भारत की राजनीति और शासन का लोकतंत्रीकरण कर सकता है।
चौथाः इन विरोध प्रदर्शनों का यह भी उल्लेखनीय पक्ष है कि यह सिर्फ मुसलमानों का नहीं है। हिंदू, सिख, ईसाई और अन्य भी इसमें बड़ी संख्या में भाग ले रहे हैं। दिल्ली के शाहीन बाग में एक महीने से भी अधिक समय से हो रहा शांतिपूर्ण धरना प्रेरित करने वाला है। यह धर्मनिरपेक्ष एकता का शक्तिशाली प्रदर्शन है और यह आगे भी संगठित और विस्तृत हुआ, तो यह गणतंत्र को निश्चित तौर पर जीवंतता देगा।
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निश्चित तौर पर ये स्वागत योग्य घटनाएं हैं। लेकिन अपने गणतंत्र में नया संचार भरने के लिए आगे के मार्ग की समस्याओं से उबरने के खयाल से हमें थोड़ा रुकना और विचार करना चाहिए। तीन समस्याएं प्रमुख हैं।
पहलीः यह पहली और गंभीर है। हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में बीजेपी सरकार धर्मनिरपेक्ष भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के लिए सुनियोजित कदम उठा रही है। सीएए और एनआरसी की शुरुआत के पीछे दीर्घावधि एजेंडा है, हालांकि निकटवर्ती लक्ष्य बीजेपी के हिंदू वोट बैंक को संगठित करना और इस तरह 2024 और उसके बाद भी पार्टी की विजय को सुनिश्चित करना है। इसलिए, संविधान के आधारभूत मूल्यों में गुंथे लोगों का तात्कालिक और महत्वपूर्ण काम संघ परिवार के निकटवर्ती और दीर्घावधि लक्ष्यों को पराजित करना है।
इसका तरीका यह हो सकता है कि हम हिंदुओं और मुसलमानों- दोनों को समान रूप से धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की शक्ति की शिक्षा दें। हिंदू और मुस्लिम- दोनों के चरमपंथ और कट्टरवाद का बिना समझौता प्रतिकार करना ही होगा। ऐसा करते हुए, यह सुनिश्चित करने के लिए सतर्कता बरतनी होगी कि धर्मनिरपेक्षता को धर्मविरोधी तरीके के तौर पर नहीं बल्कि युगों पुरानी भारतीय सभ्यता के आधारभूत सिद्धांत के तौर पर प्रस्तुत किया जाए।
दूसरीः भारत के गणतांत्रिक मूल्यों से जुड़े लोगों को इस बात से अवश्य ही जूझना चाहिए कि उनके अपने कार्यकर्ताओं के बीच बिल्कुल अलगाव और एकता का अभाव संघ परिवार की एकता के बिल्कुल खिलाफ है। इसका परिणाम यह है कि एकजुट, निश्चयपूर्ण और एजेंडा वाली बीजेपी के मुकाबले विपक्षी पार्टियां कमजोर लगती हैं।
तीसरीः अलग-अलग किस्म की विचारधाराओं वाले लोगों ने सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों में भागीदारी की है। यह निश्चित ही स्वागत योग्य है। लेकिन, आगे जाएं, तो यह स्वीकार करने की जरूरत है कि विभिन्न विचारधाराओं से निर्देशित होने वाले लोगों को आम दीर्घावधि वाले एजेंडे में साथ काम करने के लिए सीखना होगा। यह किस तरह हो सकता है और क्यों होना चाहिए, यह बात महात्मा गांधी से सीखनी चाहिए जिन्होंने राष्ट्रीय लक्ष्य के लिए विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले लोगों को इकट्ठा और एकजुट किया।
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निश्चित तौर पर, भारत के गणतंत्र को अपने संविधान के प्रस्तावनामूलक आदर्शों को ठीक ढंग से उतारने से पहले लंबा रास्ता तय करना होगा। उन लाखों निर्भय-निर्भीक युवा भारतीयों ने नई आशा पैदा की है जो सीएए और एनआरसी के खिलाफऔर संविधान की रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनकी संख्या, शक्ति और एकता फले-फूले, यह उम्मीद करनी चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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