बोस जयंती : ये नहीं है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सपनों का भारत
सुभाष चंद्र बोस ने अपने सपनों के भारत के बारे में लिखा, ‘कई लोग सवाल करते हैं कि तब क्या होगा जब अंग्रेज चले जाएंगे और भारत आजाद हो जाएगा। अगर अंग्रेजों के आने के पहले सभ्यता, संस्कृति, सक्षम प्रशासन और आर्थिक समद्धि संभव थी तो अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह सब संभव होगा।
आज हम नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मना रहे हैं। यह वक्त है जब थोड़ा ठहरकर सोचना चाहिए कि नेताजी के नजरिये से आज का भारत कहां है। भारत के बारे में अपने विचार उन्होंने अपने बड़े भाई शरत चंद्र बोस के साथ साझा किए थे। लंबे अरसे तक बोस बंधु 1-वुडेन पार्क, कोलकाता में एक साथ रहे, एक साथ काम किया और पूर्ण स्वराज तथा सभी धर्मों, जातियों और संप्रदायों के बीच एकता के लिए प्रतिबद्ध रहे। बोस बंधुओं का दृढ़ मानना था कि बुनियादी मानवाधिकारों, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य की गारंटी सभी को मिलनी चाहिए।
आज से 73 साल पहले 26 दिसंबर, 1949 को शरत चंद्र बोस कोलकाता में छात्रों के एक समुदाय को संबोधित कर रहे थे और विषय था भारत के बारे में सुभाष चंद्र बोस का नजरिया। तब तक सुभाष चंद्र बोस का ताईवान में हवाई हादसे में कथित रूप से निधन हो चुका था। इस संबोधन के महज दो माह बाद 19 फरवरी, 1950 को शरत चंद्र बोस का निधन हो गया। उन्होंने छात्रों से सुभाष के दिखाए रास्ते पर चलने की अपील करते हुए कहा, ‘आप अपने साथियों और सहयोगियों के साथ वैसा ही प्रेम और सद्भावपूर्ण बर्ताव करें जैसा नेताजी किया करते थे। वैसे मतभ्रमित छात्रों को समझाने-बुझाने का हर संभव प्रयास करें जो बम और एसिड बल्ब की संस्कृति में विश्वास करते हैं। आपका सबसे बड़ा दायित्व छात्रों में एकता कायम करना है। नेताजी ने एकता की इन शब्दों में व्याख्या की है- हमें वास्तविक एकता और छद्म एकता, सक्रियता की एकता और उदासीनता की एकता, प्रगतिकारक एकता और जड़ता लाने वाली एकता में फर्क करना होगा।’
यह वह समय था जब 15 अगस्त, 1947 को भारत के नए शासकों ने जो दिशा पकड़ी थी, उससे शरत बोस बेहद चिंतित थे। शरत ने उन छात्रों से कहा, ‘सुभाष और मेरी खुद की सोच का सार यही है कि देश में हो या बाहर, दासता, शोषण और विडंबनाओं का खात्मा होना चाहिए और एक समाजवादी व्यवस्था कायम होनी चाहिए जो सामाजिक न्याय पर आधारित हो।’ इस संदर्भ में शरत ने कहा, ‘मार्च, 1947 से अगस्त, 1947 के बीच का समय व्यापक राष्ट्रीय आत्महत्या का था जिस दौरान कांग्रेस और हिन्दू महासभा के भीतर के तमाम प्रतिगामी तत्वों ने महात्मा गांधी की सलाह पर स्व-आरोपित आत्मघात को गले लगाया।’ शरत बोस आजीवन इस बात को मानते-कहते रहे कि जो नैतिक रूप से गलत हों, वे राजनीतिक रूप से सही नहीं हो सकते।
आइए, अब सुभाष बोस की जिंदगी के कुछ पन्नों को पलटते हैं। जब सुभाष बर्मा (आज का म्यांमार) की मैंडले जेल में बंद थे, उन्होंने नैतिक आचार संहिता लिखी थी जिसमें नौ बिंदु थे। इनसे पता चलता है कि सुभाष कैसी शख्सियत और किस मिजाज के इंसान थे। उन्होंने अपने देशवासियों को नौ नैतिक पाठ सुझाए- ‘1. प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान सबसे बड़ा है। अगर आप सम्मान की जिंदगी नहीं जी सकते तो मौत को गले लगा लो। 2. जीवन को पूरी शिद्दत के साथ जिओ लेकिन इसके त्याग के लिए भी तैयार रहो अगर ऐसी जरूरत हो। 3. खुद से ज्यादा अपने परिवार को, परिवार से ज्यादा अपने समुदाय को और समुदाय से ज्यादा अपने देश से प्यार करो। 4. वैसा व्यक्ति जो कहता हो कि वह मानवता को प्यार करता है लेकिन वह अपने देश को प्यार नहीं करता, वह झूठा है। अपने देश को प्यार करो, यही मानवता की सेवा है। 5. जब आपके देश को आपकी आवश्यकता हो, तब संन्यास ले लेना एक तरह का धोखा ही है। 6. जीवन का त्याग करके आप जीवन की दिव्यता को नहीं प्राप्त कर सकते। 7. सत्य सुंदर है और सुंदर ही सत्य है। 8. जब भी किसी महिला से मिलें, उसमें अपनी मां को देखें। 9. नैतिक आचार संहिता का पालन काफी हद तक अपने नागरिक और राष्ट्रीय दायित्व को पूरा करने पर निर्भर करता है।’ क्या हम सुभाष के इन सूत्रों पर अमल कर सकते हैं?
अब बात सुभाष बोस के हरिपुरा कांग्रेस सम्मेलन में संबोधन की। इसमें उन्होंने बड़े विस्तार से बताया कि भारत का निर्माण किन सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा- ‘अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा और लिपि की हिफाजत की जाएगी और कानून की नजर में सभी नागरिक समान होंगे। सभी धर्मों को लेकर सरकार का रुख तटस्थ रहेगा।’ कुछ साल बाद सुभाष ने अपने सपनों के भारत के बारे में लिखा, ‘कई लोग सवाल करते हैं कि तब क्या होगा जब अंग्रेज चले जाएंगे और भारत आजाद हो जाएगा। अंग्रेजों के दुष्प्रचार के बाद बहुतों को लगने लगा है कि अंग्रेजों के चले जाने के बाद भारत में अव्यवस्था फैल जाएगी। ये लोग सुविधापूर्ण तरीके से यह भूल जाते हैं कि अंग्रेजों का भारत पर कब्जा तो सिर्फ सन 1757 में शुरू हुआ और यह 1857 तक भी पूरा नहीं हो सका जबकि भारत एक ऐसी भूमि है जिसका इतिहास हजारों साल का है। अगर अंग्रेजों के आने के पहले सभ्यता, संस्कृति, सक्षम प्रशासन और आर्थिक समद्धि संभव थी तो अंग्रेजों के जाने के बाद भी यह सब संभव होगा। सच्चाई तो यह है कि अंग्रेजों के दौरान भारत की सभ्यता और संस्कृति को दबाया गया। प्रशासन का विदेशीकरण हुआ और जो भूमि समृद्ध थी, वह दुनिया में सबसे गरीब हो गई।’
आज भारत की एकता खतरे में है। भारत की एकता के बारे में सुभाष बोस ने हरिपुरा कांग्रेस में कहा था- ‘कांग्रेस का उद्देश्य आजाद और एकजुट भारत है जिसमें कोई भी वर्ग या समुदाय, बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक अपने फायदे के लिए दूसरे का शोषण न कर सके, जहां सभी मिलजुल कर भारत के लोगों के हित और उत्थान के लिए काम करें। एकता और परस्पर सहयोग का मतलब किसी भी तरह यह नहीं कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा को दबाया जाए। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते वह धर्म, संस्कृति के मामले में हस्तक्षेप न करने और विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक स्वायत्तता बनाए रखने की नीति के प्रति कृतसंकल्प हैं और इस मामले में मुसलमानों को आजाद भारत में अपने भविष्य के लिए किसी आशंका में नहीं होना चाहिए। इसके विपरीत उनका हर तरह से फायदा ही होगा।’
बोस बंधु भारत को एकजुट रखने की कोशिशों में लगे रहे लेकिन आखिरकार वे इसमें सफल नहीं हो सके क्योंकि दूसरी नकारात्मक ताकतें अपनी मर्जी करने में कामयाब हो गईं। देश की आजादी के लिए लड़ते हुए सुभाष ‘गायब’ हो गए और इस लड़ाई को आगे बढ़ाने का दारोमदार भाई शरत चंद्र पर छोड़ गए। भारत के विभाजन को शरत कभी स्वीकार नहीं कर पाए। 20 फरवरी, 1950 को शरत ने भारत और पाकिस्तान के लोगों से अपील की- ‘पिछले तीन सालों से मैं लगातार कह रहा हूं कि धार्मिक आधार पर क्षेत्रों का बंटवारा सांप्रदायिक समस्याओं का न तो हल था और न है। राज्यों के बंटवारे के बाद भी हिन्दुओं और मुसलमानों को साथ-साथ रहना होगा। धार्मिक आधार पर अलग-थलग रहना न तो अच्छा है और न ही संभव।’ इस अपील को लिखने के चंद घंटे बाद ही शरत का निधन हो गया। बोस बंधु ने एक ऐसे भारत की कल्पना की थी जिसमें हर धर्म के लोग शांति-सद्भाव से रहें और लोगों को राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आजादी हो। ऐसा भारत जिसमें कोई भी भूख, कुपोषण से पीड़ित न हो लेकिन वैसा भारत आज भी नहीं बन सका है। शायद आज भारत सुपर पावर बनने की ओर है लेकिन बोस बंधुओं की कल्पना वाला भारत कहीं छूट गया है।
(शंकर दयाल सिंह स्मृति व्याख्यान माला के अंतर्गत दिए भाषण का संपादित अंश)
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