सीमा विवाद: भारत-चीन रिश्ते उस मोड़ पर जहां सुलह-समझौते को भी माना जाएगा राष्ट्रीय शर्म!

आम तौर पर भारत और चीन के बीच जिसे ‘सीमा विवाद’ कहा जाता है, उसके भी अब दो अलग-अलग हिस्से हो गए हैं। एक है अक्साई चिन। दूसरा है भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश- 84 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला पहाड़ी इलाका है और इसे तिब्बत का निचला हिस्सा मानते हुए चीन इस पर दावा करता है।

फोटो: सोशल मीडिया
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मोहन गुरुस्वामी

विवाद के मामले में भारत और चीन एक ऐसे गतिरोध की स्थिति में आ गए हैं कि इसके समाधान की तो बात ही छोड़िए, हम इस पर बात करने की भी हालत में नहीं हैं। एक वक्त था जब कुछ ले-देकर इस विवादित मसले को सुलझाना संभव दिखता था। लेकिन अब तो वैसी स्थिति नहीं रही और दोनों ओर के सोशल मीडिया द्वारा फैलाए जा रहे उग्र-राष्ट्रवाद ने ऐसा माहौल बना दिया है कि किसी भी पक्ष के लिए कुछ समझौता करके समाधान निकालने की कोशिशों को राष्ट्रीय शर्म मान लिया जाएगा।

1960 में चीन के प्रधानमंत्री झाओ एनलाई ने दोनों देशों के बीच सीमा विवाद के स्थायी समाधान के तौर पर यथास्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया था। कुछ इसी तरह की पेशकश 1982 में चीन के चेयरमैन डेंगजियापिंग ने बीजिंग में तत्कालीन भारतीय राजदूत जी पार्थसारथी से की थी। एक बार फिर इसी तरह का प्रस्ताव राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते तत्कालीन भारतीय राजदूत एपी वेंकटेश्वरन और चीनी प्रधानमंत्री झाओ जियांग के वरिष्ठ सलाहकार को दी गई। लेकिन जब 1988 में राजीव गांधी बीजिंग गए, तो दोनों देशों ने सीमा के स्थायी समाधान को कुछ समय के लिए परे खिसकाते हुए उन पर कामों पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया जो तत्काल किए जा सकते थे। ऐसी धारणा थी कि देश की आंतरिक स्थितियों के कारण उस समय सरकार को इतनी छूट नहीं थी कि वह इस तरह का कोई बड़ा फैसला कर पाती।

आम तौर पर भारत और चीन के बीच जिसे ‘सीमा विवाद’ कहा जाता है, उसके भी अब दो अलग-अलग हिस्से हो गए हैं। एक है अक्साई चिन, तकरीबन37 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला एक सर्वथा निर्जन पठार। दूसरा है भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश- 84 हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला पहाड़ी इलाका जिसकी आबादी महज 14 लाख है और इसे तिब्बत का निचला हिस्सा मानते हुए चीन इस पर दावा करता है।


अक्साई चिन जम्मू-कश्मीर और चीन के जिनजियांग प्रांत के बीच स्थित है और ये दोनों ही इलाके अलगाववादी संघर्ष की चपेट में हैं। अरुणाचल प्रदेश की सीमा तिब्बत से लगती है और वहां भी चीन से अलग होने का संघर्ष चल रहा है। भारत का दावा है कि पिछली शताब्दी के अंत में इन सीमाओं पर ब्रिटिश इंडिया और जिनजियांग और तिब्बत के आजाद या अर्द्धस्वायत्त शासकों के बीच सहमति बन गई थी, इसलिए यही वैध है। लेकिन चीन इसे नहीं मानता। दोनों देश स्वीकार करते हैं कि यह समस्या ऐतिहासिक रूप से चली आ रही है और इसे तत्काल अथवा निकट भविष्य में हल करना संभव नहीं, लिहाजा इसके समाधान के विषय को भविष्य के लिए छोड़ देना चाहिए।

लेकिन दोनों पक्षों में अक्सर जो झड़पें होती हैं, उसकी वजह है दोनों देशों की सेनाओं के अधिकार क्षेत्र को तय करने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर उनमें सहमति का नहीं होना। विभिन्न स्थानों पर एलएसी के बारे में दोनों पक्षों की अवधारणा में अंतर है। कुछ जगहों पर विवाद का कारण चंद मीटर का भूभाग है तो कई जगहों पर दस-दस किलोमीटर का। दोनों पक्षों के सैनिकों की ओर से काफी सक्रियता से गश्त लगाई जाती है और इस दौरान किसी भी प्रकार के टकराव की आशंका को कम करने के लिए सीमा सुरक्षा सहयोग समझौता किया गया है जिसमें भारत और चीन के सैनिक किस स्थिति में कैसा व्यवहार करेंगे, इसका जिक्र है। महत्वपूर्ण बात यह है कि विवादित क्षेत्रों में किसी भी प्रकार के स्थायी निर्माण नहीं करने और दोनों ओर के गश्ती दलों की ओर से टकराव टालने का हरसंभव प्रयास करने का प्रावधान है। इसका सीधा मतलब यह है कि अगर गश्ती दलों का एक-दूसरे से सामना हो जाए तो दोनों ओर के सैनिक वापस लौट जाएंगे और एक-दूसरे के पीछे नहीं जाएंगे। समझौते में इसकी भी व्यवस्था है कि स्थानीय कमांडर मिलते रहा करेंगे और जब भी स्थानीय स्तर पर कोई विवाद हो तो आमने-सामने बैठकर उसे हल कर लेंगे।


विषम भौगोलिक, मौसमी स्थितियों और एशिया के इनदो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच रहे तमाम तनावों के बावजूद दोनों देशों के सैनिक मोटे तौर पर परस्पर दोस्ताना व्यवहार करने में सफल रहते हैं। लेकिन कभी-कभी किसी गलतफहमी या फिर स्थानीय स्तर पर किसी पक्ष की ओर से भड़काऊ व्यवहार के कारण टकराव हो जाया करते हैं जिनके सशस्त्र झड़प में तब्दील हो जाने का खतरा रहता है। लेकिन 1967 के बाद से ऐसी स्थिति नहीं हुई जब दोनों देशों की सेनाओं के बीच सिक्किम सेक्टर में बड़ी सैन्य झड़प हो गई थी।

साल 1981 से ही दोनों देशों के बीच नियमित तौर पर विभिन्न स्तरों पर बातचीत हो रही है। 1988 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की चीन यात्रा के बाद दोनों देश सीमा विवाद पर टास्क फोर्स के गठन को तैयार हुए। चेयरमैन डेंगजियापिंग ने अपने “युवा मित्र” का स्वागत करते हुए कहा कि दोनों देशों को “भूत को भूल जाना चाहिए” और दोनों नेताओं के बीच हाथ मिलाने का कार्यक्रम तीन मिनट के लंबे समय तक चलता रहा। उसके बाद से तीन दशकों से भी अधिक समय से दोनों देश सीमा विवाद को हल करने के लिए मिलते रहे हैं लेकिन ऐसा लगता है कि दोनों में से कोई भी भूत को पीछे छोड़ने को तैयार नहीं। वर्ष 2003 के बाद से नियमित होने इन बैठकों में विशेष प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए इसे एक उच्चस्तरीय राजनीतिक बातचीत का स्वरूप दे दिया गया है। भारत की ओर से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीन की ओर से स्टेट काउंसलर के दर्जे का अधिकारी इसमें भाग लेता है। इस स्तर की पहली बैठक भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्रा और चीन के स्टेट काउंसलर दाई बिंगगुओ के बीच हुई थी। अब इस बातचीत का 22वां दौर भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और चीन के स्टेट काउंसलर यांगजेइची के बीच होना है।

भारत के एक पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने एक बार मुझे बताया था कि इन बैठकों में भी कोई खास प्रगति नहीं हो सकी है क्योंकि दोनों ओर के दावे अब जनमत में बदल चुके हैं और दोनों ही देशों में राष्ट्रीयता की भावना अंध-राष्ट्रीयता तक जा पहुंची है जिसके कारण कुछ ले-देकर मामले को हल करना अत्यंत मुश्किल हो गया है, जबकि ऐसे जटिल विवादों को हल करने के लिए यह बेहद जरूरी होता है।


वैसे, भारत और चीन के बीच हुए लगातार संवाद का ही नतीजा है कि सीमा प्रबंधन और सहयोग समझौता हो सका और मोटे तौर पर यह कारगर ही साबित हुआ है। इस प्रक्रिया का अगला तर्क संगत चरण होगा वास्तविक नियंत्रण रेखा पर परस्पर सहमति विकसित करना। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि सोशल मीडिया ने आक्रामक राष्ट्रवाद का अभियान चलाते हुए ‘कुछ छोड़ने’ को राष्ट्रीय शर्म का विषय बना दिया है और ऐसी स्थिति में इतना करना भी मुश्किल हो गया है। यह नजरिया दोनों ही देशों में अहम बनता जा रहा है। बेशक यह हमारी जिद और ऐतिहासिक अदूरदर्शिता हो, लेकिन हम कुछ भी छोड़ते हुए नहीं दिखना चाहेंगे।

दोनों देश काफी बदल चुके हैं, अब वे पिछली शताब्दी वाले भारत और चीन नहीं रहे। आज के समय में भारत और चीन, दोनों ही अपेक्षाकृत काफी संपन्न हो चुके हैं, सैन्य नजरिये से खासे ताकतवर हो चुके हैं। नए राष्ट्रवाद के उभार के कारण दिलों में दुराव आया है। ऐसा लगता है कि दोनों पक्षों में से कोई भी आज कुछ लेने या देने की स्थिति में नहीं रहा। इसलिए हाल ही में जब भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और चीन के स्टेट काउंसलर यांगजेइची की मुलाकात होगी तो दोनों पक्षों में से कोई भी कुछ छोड़ने को तैयार नहीं हो सकेगा और लगता है कि इसके लिए हमें किसी और बैठक का इंतजार करना पड़ेगा।

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