प्रमोशन में दलितों के आरक्षण को लेकर बीजेपी का रवैया हमेशा से रहा है नकारात्मक

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा बनाए गए अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के मूल उद्देश्यों को 20 मार्च के अपने फैसले में पलट दिया था, जिसके विरोध में दलित संगठनों को 2 अप्रैल को देशव्यापी आंदोलन करना पड़ा।

फोटो: सोशल मीडिया 
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अनिल चमड़िया

आखिर क्या वजह है कि केन्द्रों और राज्यों में भारतीय जनता पार्टी जब सत्ता में आती है तो बहुजनों के संवैधानिक अधिकारों पर सत्ता-केन्द्रों द्वारा हमले की घटनाएं बढ़ जाती हैं? इस प्रश्न पर विचार करने की तात्कालिक जरुरत को समझने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त हैं। पहला कि दलितों और आदिवासियों के बीच से सरकारी अधिकारी बने लोगों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दिए जाने के फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ में सुनवाई चल रही है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा बनाए गए ‘अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम’ (एससी-एसटी एक्ट) के मूल उद्देश्यों को 20 मार्च के अपने फैसले में पलट दिया था, जिसके विरोध में 2 अप्रैल को दलित संगठनों को देशव्यापी आंदोलन करना पड़ा।

अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति, जिन्हें आमतौर पर दलित और आदिवासी से संबोधित किया जाता है, से आने वाले अधिकारियों की पदोन्नति में आरक्षण का नये सिरे से एक विवाद 1997 में उठा। उस वक्त पहली बार केन्द्र की में बीजेपी के नेतृत्व में सरकार बनी थी। सरकार के बनने के बाद कार्मिक विभाग ने 5 ऐसे ज्ञापन जारी किये, जिसके जरिये देश में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जाति के लिए जारी आरक्षण की नीति को पुरी तरह से उलट दिया गया। कार्मिक विभाग ही वह सत्ता का केन्द्र है जहां से सरकारी सेवाओं में एससी और एसटी वर्ग के लोगों को जो संवैधानिक अधिकार दिये गए हैं, उन्हें लागू करने के लिए समय-समय पर आदेश जारी किये जाते हैं।

1997 में जारी आदेशों के बारे में संसद की अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति ने अपने अध्ययन के बाद ससंद में यह रिपोर्ट पेश की कि कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग के 5 ज्ञापनों ने पिछले 50 वर्षों में एससी और एसटी वर्गों द्वारा प्राप्त की जा रही सुविधाओं को वापस ले लिया है। इस तरह इन 5 ज्ञापनों ने आरक्षण नीति को पूरी तरह से पलट दिया था।

पहले अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण और उसके बाद पिछड़े वर्ग के लिए विभिन्न स्तरों पर की गई आरक्षण की संवैधानिक व्यवस्था देश के जिन राज्यों में या केन्द्र की सेवाओं के लिए जब कभी लागू की गई है, पहले जनसंघ और बाद में बीजेपी उसके विरोध में मुखर रही है। यह पिछले 70 वर्षों के राजनीतिक इतिहास का एकमात्र ऐसा तथ्य है, जो उसके सत्ता में आने के बाद आदेशों के स्तर पर मुखर हो जाता है।

सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के सदस्यों के प्रतिनिधित्व का यह स्पष्ट अर्थ है कि उन्हें केवल नीचे के पदों पर ही प्रतनिधित्व नहीं मिलना चाहिए, बल्कि ऊंचे पदों पर भी प्रतिनिधित्व का सिद्धांत उसी तरह से लागू होता है।

अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याण संबंधी समिति ने अपने अध्ययन के बाद ससंद में 2001 में जो रिपोर्ट पेश की थी, उसमें भी यह कहा गया है कि सरकारी सेवाओं में क्लास वन और क्लास टू के पदों पर अनुसूचित जातियों की और सभी श्रेणी के पदों पर अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व की कमी पाई गई है।

2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केन्द्र में बीजेपी की सरकार बनने के बाद सबसे ज्यादा विवादस्पद वे फैसले रहे हैं, जो विभिन्न सरकारी कार्यालयों और न्यायालयों द्वारा अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को मिल रहे अधिकारों को खत्म करने की दिशा में जारी किये गए।

यह एक प्रमाणित तथ्य है कि सरकार के ऊंचे पदों पर अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के पदाधिकारियों की संख्या न के बराबर होती है। 21 मार्च 2018 को राज्यसभा में बीजेपी के डॉ सत्यनारायण जटिया के एक प्रश्न के जवाब में सरकार ने बताया कि पीएसबी में अध्यक्ष/मुख्य प्रबंध निदेशक और क्षेत्रीय महाप्रबंधक के स्तर पर एससी और एसटी वर्ग के लिए कोई आरक्षण नहीं है। 28 मार्च को लोकसभा में सरकार के एक जवाब के मुताबिक, 77 मंत्रालयों, विभागों और उनसे जुड़े कार्यालयों में 1 जनवरी 2016 तक अनुसूचित जाति का प्रतिनिधित्व 17.29 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का प्रतिनिधित्व 8.47 प्रतिशत और अन्य पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व 21.5 प्रतिशत था।

आरक्षित वर्गों के पदों को भरे जाने और आरक्षित वर्ग के अधिकारियों को प्रोन्नति में आरक्षण देने की व्यवस्था से ही आरक्षण का संवैधानिक सिद्धांत मुक्कमल होता है। लेकिन न्यायालयों ने संवैधानिक व्यवस्थाओं की व्याख्या करने के अपने अधिकार के तहत आरक्षित वर्ग को मिलने वाले संवैधानिक अधिकारों पर चोट पहुंचाई है। लेकिन बहुजनों के बीच बढ़ते असंतोष के दबाव में बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकारों को अपने रुख में बदलाव लाने का प्रदर्शन करने के लिए बाध्य होना पड़ा। जिस तरह से अनुसूचित जाति और जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के असर को खत्म करने के लिए सरकार को संसद में संशोधन विधेयक लाने के लिए बाध्य होना पड़ा, उसी तरह से सुप्रीम कोर्ट में पदोन्नति में आरक्षण पर सरकार को 2019 के चुनाव को ध्यान में रखते हुए अपना रुख पदोन्नति में आरक्षण के पक्ष में दिखाना पड़ा है।

न्यायालय जिन सवालों पर पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने की कोशिश कर रहा है, उन सवालों का कोई लेना-देना अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के आरक्षण के सिद्धांत से नहीं है। अनुसूचित जातियों को पिछड़े वर्ग की तरह इस कारण से आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गई है कि वे सामाजिक और क्षैक्षणिक स्तर पर पिछड़े बनाए रखे गए हैं बल्कि उन्हें अछूत बनाकर रखा गया है। अनुसूचित जनजाति को भी विकास से वंचित सुदूर इलाकों में समाज से अलग-थलग रखा गया है।

आरक्षण विरोधी आरक्षण व्यवस्था के भीतर जरुरतमंद और गैर जरुरतमंद के बीच विवाद खड़ी करने की जो कोशिश करते हैं, दरअसल वही लोग अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों की पदोन्नति को लेकर भी सवाल खड़े करते हैं। क्रीमीलेयर का सिद्धांत आरक्षण विरोध की विचारधारा से उत्पन्न हुआ है। अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों में भी पिछड़े वर्ग की तरह क्रीमीलेयर के विवाद को खड़ा करने की कोशिश पदोन्नति में आरक्षण के संदर्भ में भी की गई है। लेकिन बीजेपी की दिक्कत ये है कि वह अपने सामाजिक आधार को उस हद तक नाराज नहीं कर सकती है जिस हद तक अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के सिद्धांत को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए। इसीलिए प्रोन्नति वाले मामले में भी न्यायालय में उसके रुख को लेकर सशंकित होना पड़ रहा है।

पदोन्नति में आरक्षण के प्रश्न पर सुप्रीम कोर्ट में सरकारी वकील ने कहा कि पदोन्नति वाले पदों पर कम से कम 10 प्रतिशत सीटें सामाजिक रुप से वंचितों के लिए आरक्षित होनी चाहिए। पहली बात कि सामाजिक स्तर पर वंचित वर्ग क्या केवल अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए इस्तेमाल किया गया है? लगता तो ऐसा नहीं है। सरकारी दस्तावेजों में सामाजिक स्तर पर वंचित वर्ग का बहुत व्यापक अर्थ होता है। स्पष्ट रुप से ये कहा जाना चाहिए कि अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए प्रोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

दूसरी बात कि यह दस प्रतिशत ही क्यों होनी चाहिए। भर्ती के लिए जितने प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है, उतना ही आरक्षण पदोन्नति में भी क्यों नहीं किया जाना चाहिए? मीडिया के जरिये सरकार के वकील के न्यायालय के सामने दिये गए जो बयान आए हैं उनके आधार पर उसमें जानने वाली सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पदोनन्ति में आरक्षण का सिद्धांत पूर्व से जारी व्यवस्था के अनुरुप होगा या फिर उसमें कटौती की जा सकती है ?

बीजेपी की सरकार में एक खास प्रवृत्ति यह देखी जा रही है कि उसके कार्यकाल के दौरान दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के हितों से संबंधित जिन प्रावधानों पर हमले हुए, उन्हें इन वर्गों के भीतर असंतोष की स्थिति देखकर वापस करने की प्रक्रिया चालू करनी पड़ती है और उस वापसी वाली प्रक्रिया को बीजेपी सरकार अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करती है। लेकिन यह प्रक्रिया मुकम्मल वापसी की तरफ जाती है या फिर उसमें कोई कटौती की भी आशंका होती है, यह प्रश्न सुप्रीम कोर्ट में पदोनन्ति के मामले में चल रही सुनवाई के साथ भी जुड़ा हुआ है। फिलहाल तो सरकार के वकील ने भी यह मान ही लिया है कि कुछ पद ऐसे होते हैं जिनमें खास तरह की काबिलियत और बौद्धिकता की जरुरत होती है और वहां पदोन्नति के लिए मापदंड तैयार किये जाने चाहिए।

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