आकार पटेल का लेख: जिस आजादी का पक्षधर था संघ, सत्ता में आते ही करने लगा है उसका विरोध, उमर खालिद हैं इसकी मिसाल
जनसंघ और आरएसएस जिस आजादी का पचास के दशक में पक्षधर था और उस कानून को निरस्त करने की मांग करता था जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरा हो, सत्ता में आने के बाद उमर खालिद जैसे मामलों में उसी का इस्तेमाल कर रहा है।
कुछ सप्ताह पहले मैंने जेल में बंद उमर खालिद को एक पत्र लिखा था। इसमें मैंने लिखा था:
"डियर उमर,
तुम्हें देखकर काफी अच्छा लगता है और गर्व होता है, और जिस गरिमा के साथ तुमने इस दौरान अपने आप को पेश किया है। तुम्हारे साथ जो उत्पीड़न हो रहा है वह उस चीज़ का प्रतीक है जिसे नया भारत (न्यू इंडिया) कहा जा रहा है (हालांकि निश्चित रूप से जो किया जा रहा है और किसके साथ किया जा रहा है उसकी नग्नता के अलावा इसमें बहुत कुछ नया नहीं है)।
इस अर्थ में यह प्रतीकात्मक है कि बहुत से लोग तुम्हारे बारे में काफी शिद्दत से महसूस करते हैं और सोचते हैं कि हमारे आसपास जो हो रहा है, तुम उसी की मिसाल हो। तुम्हारी रिहाई के लिए जब-जब आवाज उठाई गई है तो उसके बदले में बड़ी संख्या में अपमानजनक, अपमानजनक और अक्सर बेबुनियाद टिप्पणियां सामने आती हैं। यही सच है। लेकिन हमेशा इनके बराबर या शायद इनसे भी बड़ी संख्या में लोग हैं जो सब समझते हैं और एकजुटता दिखाते हैं।
यह बात कुछ किस्से जैसी लग सकती है लेकिन ऐसा अक्सर और लगातार होता रहा है कि इसे एक तरह का डेटा माना जा सकता है। हालांकि हममें से कोई भी उन हालात को नहीं पूरी तरह से नहीं समझ सकते जिनसे तुम दोचार हो, लेकिन उम्मीद है कि इस पत्र से तुम्हें कुछ हत मिलेगी। ऐसे बहुत से लोग हैं जो आपके साथ थे और रहेंगे।
तुम्हारे परिवार के साथ हम सब तुम्हारे के केस और उस पर होने वाली सुनवाई पर नजर रखे हुए हैं और इसे काफी शिद्दत से देखते हैं कि क्या और कैसे हो रहा है। तुम्हारे बचाव में दी जा रही दलीलें शानदार हैं, शायद इससे भी तुम्हें कुछ राहत मिलेगी।
इतिहास हमें बताता है कि जो आंदोलन और विचारधाराएं तीव्र और उग्र होती हैं, वे अलग होने लगती हैं क्योंकि उनकी लहरें एक ही स्थान पर टकराती रहती हैं। जैसा कि कहा जाता है कि लहरों का बहाव बदलता है। ऐसा लगता है कि किसी को विश्वास है कि ये सब सोचते हुए कोई बहुत ज्यादा भ्रमित नहीं है कि यह सब अब हो रहा है। मुझे बहुत उम्मीद है कि अगले 10 महीने हम सभी के लिए, विशेषकर राजनीतिक कैदियों के लिए कैसे होंगे।
मेरी शुभकामनाएं और ढेर सारा प्यार
-आकार”
मैं उमर को अब कई सालों से जानता हूं, वह एमनेस्टी इंटरनेशनल इंडिया की भी कई बैठकों में शामिल होता रहा है। किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में वैसा सोचना काफी मुश्किल है जैसाकि उसे सरकार और उसकी मशीनरी तथा मीडिया, जो न्यू इंडिया में मशीनरी का ही हिस्सा है, ने उसे एक राक्षसी व्यक्तित्व के तौर पर पेश कर दिया है। कुछ हफ़्ते पहले, एमनेस्टी इंडिया ने ट्वीट किया था: "उमर खालिद 1000 दिनों से बिना किसी मुकदमे के जेल में है। उसे केवल शांतिपूर्वक अपनी राय व्यक्त करने के लिए भारत के कठोर आतंकवाद विरोधी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था। उसे तुरंत और बिना शर्त रिहा किया जाना चाहिए।"
इससे कुछ लोगों को इतनी तकलीफ हुई कि ट्विटर से शिकायत कर दी गई कि इस ट्वीट को हटा दिया जाए। ऐसा तो नहीं हुआ, अलबत्ता इस सबसे यह तो साबित हो ही गया कि किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जहर बो दिया गया है जिसे लोग बहुत कम जानते हैं और जितना जानते हैं वह सब जबरदस्ती झूठ की बुनियाद पर आधारित है।
उसके दोस्त और साथी और हम जैसे कुछ लोग जो असली व्यक्ति को जानते हैं, और इसकी शख्सियत की असली बातें करते हैं, क्योंकि जो झूठ उसके बारे में फैलाया गया है वह सिर्फ छलावा है धोखा है। द वायर के लिए एक लेख में प्रोफेसर नंदिनी सुंदर ने उमर के बारे में लिखा है कि, “जब उमर खालिद जैसा कोई मुस्लिम सीमाएं लांघता है, तो एक खास तरह की प्रतिक्रिया होती है।”
एक युवा और समझदार मुस्लिम व्यक्ति जो मुस्लिम टोपी नहीं पहनता, जो नास्तिक है, जिसने जेएनयू से सिंघभूम के आदिवासियों के इतिहास पर पीएचडी की है, उसे एक ऐसी अलग विसंगति के तौर पर पेश किया जा रहा है जैसा कि आरएसएस चाहता है। कोशिश सिर्फ और सिर्फ उसकी पहचान को उसकी शख्सियत के एक पहलू तक सीमित करने की है, बाकी वह जो कुछ भी करता है या कहता है या लिखता है, वह सब इसी चश्मे से देखा जाता है कि वह महज एक मुस्लिम है।
और इसे विस्तार देते हुए उसे हिंसक, एंटी नेशनल (राष्ट्र विरोधी) और ‘भारतीय मुख्यधारा’ के लिए खतरे के रूप में पेस किया जाता है। उसे इतना खतरनाक माना गया है कि वह बिना जमानत के तीन साल से जेल में है। इस बात पर अब क्या हैरानी कि कितने ही युवाओं को सीएए विरोधी आंदोलन में गिरफ्तार सिर्फ इसलिए कर लिया गया कि वे भारत के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के मुस्लिम छात्र थे।
उमर खालिद को सितंबर 2019 में दिल्ली पुलिस ने गिरफ्तार किया था, और आरोप है कि उसने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प की भारत यात्रा के दौरान भड़काऊ बयान दिए थे। बीते तीन साल में अभी तक उस पर किसी आरोप को सिद्ध नहीं किया जा सका है।
वह अभी तक सलाखों के पीछे है क्योंकि नरेंद्र मोदी सरकार हर बार उसकी जमानत का विरोध करती है। उसके केस को महज अखबारों की सुर्खियां बनाया जाता है। उसके खिलाफ जो मुकदमा है उसे आर्टिकल-14 डॉट कॉम के इस लेख से समझा जा सकता है जिसकी हेडलाइन थी ‘बिना मुकदमे और जमानत के उमर खालिद के जेल में 1000 दिन, झूठे आरोपों, मनगढ़ंत कहानियों और सरकारी बयान में हेरफेर के बावजूद जमानत देने से इनकार...’
वक्त के साथ बीजेपी को उस कानून से काफी प्रेम हो गया है जिसके तहत वह अपने विरोधियों और असहमति जताने वालों (खासतौर से मुस्लिमों को) को जेल में डाल देत है।
1954 में इस पार्टी ने कहा था कि वह वक्त आने पर संविधान में पहला संशोधन यह करेगी जिसके तहत तार्किक पाबंदी लगाकर बोलने की आजादी पर पहरा लगाया जाता है। लेकिन इस संशोधन से मोटे तौर पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही छीन ली गई क्योंकि तार्किक पाबंदियों की सूची काफी वृहद और विस्तृत है। जनसंघ ने अनुमान लगा लिया था कि यह ऐसी बात है जिसे चुनौती नहीं दी जा सकती है। फिर भी 1954 के बाद जनसंघ के घोषणा पत्र से यह मांग गायब हो गई कि पहला संशोधन निरस्त किया जाए और भारतीयों को बोलने, जमा होने और सभा करने की स्वतंत्रता बहाल की जाए।
दिलचस्प बात यह है कि जनसंघ ने कहा कि वह निवारक हिरासत कानूनों को भी रद्द कर देगा, जिनके बारे में उसका कहना था कि ये व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बिल्कुल विपरीत हैं। यह वादा 1950 के दशक में बार-बार किया गया था। हालाँकि 1967 तक इसने मांग को योग्य बनाना शुरू कर दिया और कहा कि 'यह सुनिश्चित करने के लिए ध्यान रखा जाएगा कि पांचवें स्तंभकारों और विघटनकारी तत्वों को मौलिक अधिकारों का शोषण करने की अनुमति नहीं है'। समय के साथ संघ और बीजेपी एहतियाती हिरासतों के मामले में चैंपियन बन गए। जब दशकों तक यह विपक्ष में रहे, इस सबका विरोध करते रहे।
1954 में जनसंघ ने मांग की थी कि पहला संशोधन रद्द कर भारतीयो की बोलने आदि की स्वतंत्रता बहाल की जाए। पार्टी ने यह भी कहा था कि वह एहतियाती हिरासत (यूएपीए जैसी) को भी खत्म कर देगी, क्योंकि इसका कहना था कि यह व्यक्तिगत आजादी का उल्लंघन है। लेकिन 1967 आते-आते इसने अपना रुख बदल लिया, वही रुख आज भी है, जोकि आजादी, खासतौर से उमर खालिद जैसे लोगों की आजादी के विरोध वाला है।
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