बलि का बकरा तलाश रही बीजेपी, कोई बताएगा, प्रधानमंत्री जीते या हारे?

वाराणसी में तो अमित शाह आधी केन्द्रीय कैबिनेट के साथ डेरा डाले हुए थे। गुजरात के बड़े-बड़े जत्थों के तंबू भी गड़े थे। माधवी लता समेत हिन्दुत्व के लगभग सारे शुभंकरों ने मोदी के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी। जे.पी. नड्डा ने भी कुछ उठा नहीं रखा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह।

खंजर भांजे जा रहे हैं। बीजेपी यूपी में अपनी चुनावी हार के लिए बलि का बकरा तलाश रही है। पार्टी मानती है कि बीजेपी समर्थक अपनी जीत को लेकर इतना ज्यादा आश्वस्त थे कि उन्होंने वास्तव में बाहर निकलकर मतदान करना या कराना जरूरी नहीं समझा। ‘मोदी का जादू’ तो जीत दिला ही देगा, यह सोचकर पार्टी कार्यकर्ताओं ने अतिरिक्त ऊर्जा भी नहीं लगाई। आरएसएस राज्य में सक्रिय था नहीं। जे.पी. नड्डा घोषणा कर ही चुके थे कि पार्टी को अब आरएसएस की बैसाखी की जरूरत नहीं रही। वगैरह वगैरह...।

फिलहाल, पार्टी की राज्य इकाई के भीतर अलग-अलग गुट एक-दूसरे पर उंगली उठाने में व्यस्त हैं। अफवाहों का बाजार वैसे भी कह रहा था कि चुनाव के बाद योगी आदित्यनाथ को किनारे लगा दिया जाएगा। योगी सूबे के लिए सर्वाधिक वांछित हिन्दुत्व पोस्टर बॉय के रूप में भले जाने जाते हों, मोदी उन्हें काबू में ही रखना चाहेंगे। राजपूतों की नाराजगी ने दोनों के बीच का तनाव और ज्यादा बढ़ाने का काम किया। राजनीतिक विश्लेषक याद दिलाने लगे हैं कि 2017 में नरेन्द्र मोदी योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे। उनकी प्राथमिकता तो (जम्मू-कश्मीर के मौजूदा उपराज्यपाल) मनोज सिन्हा या फिर लखनऊ के पूर्व मेयर दिनेश शर्मा थे जिन्हें स्पष्ट रूप से आरएसएस ने वीटो कर दिया था। चुनाव बाद के अपने विश्लेषण में ‘टेलीग्राफ’, यहां तक ​​कि स्वपन दासगुप्ता भी मानते दिख रहे हैं  कि शायद एक ‘अलग’ दिखते योगी के कारण बीजेपी को कई सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है।

योगी समर्थक उनके बचाव में खासे आक्रामक हैं। वे सवाल उठाते हैं- क्या उम्मीदवारों का चयन योगीजी ने ही किया था? क्या राज्य में चुनाव प्रबंधन उन्हीं के हाथों में था? क्या बीजेपी ने उन्हें असम से लेकर केरल तक पूरे देश में स्टार प्रचारक के रूप में इस्तेमाल नहीं किया? क्या वह देश भर में घूम-घूमकर अपने भाषण नहीं दे रहे थे, नरेन्द्र मोदी और ‘राम लला’ का जिक्र नहीं कर रहे थे? जब योगी ने गोरखपुर और उसके आसपास सारी सीटें जिताकर दिखा दिया तो फिर उन्हें दोष क्यों दिया जाए?

उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य और ब्रजेश पाठक क्यों नहीं? क्या एक भी सीट ऐसी नहीं जिसे दिलाने में मौर्य असफल नहीं हुए हों, और पाठक को मिली-जुली जीत और हार ही मिलनी थी? ऐसे में यहां खलनायक कौन है?


कोई बताएगा, प्रधानमंत्री जीते या हारे?

प्रधानमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी में तो केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने आधी केन्द्रीय कैबिनेट के साथ डेरा जमा रखा था। गुजरात के राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बड़े-बड़े जत्थे अपने तंबू गाड़े हुए थे। हैदराबाद की माधवी लता समेत हिन्दुत्व के लगभग सारे शुभंकरों (प्रतीक) ने प्रधानमंत्री के लिए जोर-शोर से प्रचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने भी कुछ उठा नहीं रखा था। मोदी के अपने अत्यंत भरोसेमंद अफसर भी प्रशासन, चुनाव आयोग और उसके पर्यवेक्षकों के साथ समन्वय कायम करने के लिए शहर में मौजूद थे। लेकिन प्रधानमंत्री की इतनी मामूली अंतर वाली जीत के लिए कोई भी उनमें से किसी को दोषी नहीं ठहरा रहा है!

एक बीजेपी नेता कहते हैं- “लखनऊ और वाराणसी में सबको पता था कि प्रधानमंत्री गिनती के दौरान पीछे चल रहे थे। यही वजह रही कि शाम चार बजे के बाद इसकी रफ्तार धीमी हो गई। देर रात उन्हें विजेता घोषित करने से पहले वोटों में हेरफेर की  गई।” उनके तर्क का समर्थन बीजेपी के एक ‘कार्यकर्ता’ ने किया जिनकी पहचान उज्ज्वल कुमार और उज्ज्वल मिश्रा के रूप में हुई जिसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर कहा, “उनको डेढ़ लाख वोट दिलाया गया।” तात्पर्य साफ है कि यह जीत उनके लिए ‘मैनेज’ की गई और इससे पहले वह वास्तव में हार चुके थे। यहां तक ​​कि अमेठी में केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी पर किशोरी लाल शर्मा की जीत का अंतर भी वाराणसी में मोदी से ज्यादा था।

लखनऊ में एक पत्रकार कहते हैं- “वह जानते हैं कि वह हार गए; अधिकारी जानते हैं कि वह हार गए; और योगी तो न सिर्फ यह जानते हैं कि वह हारे बल्कि यह भी जानते हैं कि वह कैसे जीते हैं।” ऐसे में मोदी या बीजेपी के लिए योगी को बाहर का रास्ता दिखाना व्यावहारिक रूप से असंभव होगा।

हालांकि नई दिल्ली में पर्यवेक्षक इस बात पर आश्चर्य जताते हैं  कि क्या योगी का मामला वास्तव में इतना ही मजबूत है! वह एनडीए संसदीय दल की बैठक के दौरान दिखे योगी के तनाव की बात करते हैं। वह यह भी रेखांकित करते हैं कि किस तरह दूरदर्शन, योगी का मुरझाया चेहरा न सिर्फ जूम करके दिखाता रहा, वह फीड (क्लिप) अन्य सभी टीवी चैनलों को भी बांटी गई।

सीएसडीएस-लोक नीति सर्वे

उत्तर प्रदेश में एकमात्र असल ‘आश्चर्य’ सीएसडीएस-लोक नीति द्वारा किए गए चुनाव-बाद सर्वेक्षण में जवाब देने वालों की वह संख्या है जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहती है। सर्वे में जहां 32 फीसदी लोगों ने मोदी को प्रधानमंत्री बने रहना पसंद किया, वहीं 36 फीसदी लोगों ने राहुल गांधी को अपनी पसंद बताया। ऐसा लगता है कि राहुल की दो भारत जोड़ो यात्राओं का उस राज्य के मतदाताओं पर कुछ तो प्रभाव पड़ा ही है जहां कांग्रेस तीन दशकों से अधिक समय से सत्ता से बाहर है।

अन्यथा तो, सर्वेक्षण के निष्कर्ष पूर्वानुमानों के आधार पर ही थे। उच्च जाति और वैश्य मतदाताओं ने बड़े पैमाने पर बीजेपी का समर्थन किया जबकि ओबीसी, एससी और मुस्लिम मतदाताओं ने ‘इंडिया’ ब्लॉक को प्राथमिकता दी। दस में से नौ राजपूत मतदाता भले ही बीजेपी के साथ गए लेकिन गैर-जाटव दलित मतदाता भारी संख्या में ‘इंडिया’ ब्लॉक की ओर शिफ्ट हो गए।

सर्वेक्षण में माना गया कि समाजवादी पार्टी (सपा) को मुसलमानों और यादवों की पार्टी बताने के आरोपों के मुकाबले में इस बार की सोशल इंजीनियरिंग को अखिलेश यादव की पीडीए (पिछड़ा-दलित-अल्पसंख्याक) की वैकल्पिक सोशल इंजीनियरिंग ने जबरदस्त मात दी। सपा ने 32 ओबीसी, 16 दलित, 10 ऊंची जाति के उम्मीदवारों और चार मुसलमनों को टिकट दिया। सर्वेक्षण में मौजूदा बीजेपी सांसदों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर का भी जिक्र किया गया जिनमें से 26 सांसद चुनाव हार गए। उन्हें दोबारा नामांकित करना एक गलती थी। कुछ भाजपा नेताओं के इस आशय के बयानों के बाद ओबीसी और दलितों को यह भी डर था कि बीजेपी संविधान बदल डालेगी।


प्रमुख चिताएं

अंक शब्दों से ज्यादा जोर से बोलते हैं। 2019 में बीजेपी को यूपी में 49.6 फीसदी वोट मिले। इस साल, वे आठ प्रतिशत की गिरावट के साथ 41.37 प्रतिशत पर आ गए हैं। वहीं, 37 सीटें जीतकर और 33.59 फीसदी वोट हासिल कर सपा देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन गई है। भदोही में कांग्रेस को 9.46 प्रतिशत और तृणमूल कांग्रेस को 0.47 प्रतिशत वोट मिलने के साथ, इंडिया ब्लॉक की हिस्सेदारी 43.52 प्रतिशत हो गई।

यूपी में शानदार और पूरी तरह से अप्रत्याशित प्रदर्शन दिखाने के बावजूद ‘इंडिया’ ब्लॉक के भीतर चिंताएं कम नहीं हैं। सांप्रदायिक राजनीति का विरोध करने वाले लोग इस बात से बेहद आश्वस्त हैं कि राम मंदिर के बावजूद बीजेपी यूपी में हार गई। हालांकि उनकी चिंता इस बात को लेकर जरूर है कि क्या गठबंधन 2027 के विधानसभा चुनाव तक चल पाएगा। नई दिल्ली के जामिया हमदर्द विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अब्दुल कादिर कहते हैं, “बीजेपी का उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के सांसदों को निशाना बनाने की कोशिश का एक लंबा इतिहास रहा है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा है कि दोनों पार्टियां इस चुनौती से किस तरह निपटती हैं।”

केन्द्र में मोदी और अमित शाह की जोड़ी की वापसी के साथ सपा और कांग्रेस दोनों दलों के नेता इस बात को लेकर आशंकित हैं कि ‘इंडिया’ की रफ्तार कैसे बरकरार रखी जाए और यह भी कि कार्यकर्ताओं का मनोबल कैसे बढ़ाया जाए। एक बड़ी चिंता अपने सांसदों को एकजुट रखना और भाजपा द्वारा अवैध शिकार (खरीद-फ़रोख्त) रोकना भी होगा।

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