जम्मू-कश्मीर: बीजेपी को अलगाववादियों से परहेज नहीं
जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव होने हैं और बीजेपी ऐसी शरारत कर रही है जिससे कि धर्मनिरपेक्ष दल जीत न सकें।
जम्मू-कश्मीर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता क्योंकि ये चुनाव संविधान के अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35-ए के निरस्तीकरण, राज्य के दर्जे को राज्य से घटाकर केंद्र शासित प्रदेश कर दिए जाने और विषम परिसीमन प्रक्रिया समेत आमूल-चूल बदलावों की पृष्ठभूमि में हो रहे हैं। हिंसा, डराने-धमकाने और केन्द्रीकृत नियंत्रण से निपटने में असमर्थता के कारण अप्रासंगिक हो चुके मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के लिए ये चुनाव अपनी प्रासंगिकता फिर से हासिल करने का एक मौका है।
इन चुनावों को लेकर सबसे ज्यादा दांव बीजेपी का लगा हुआ है। जम्मू क्षेत्र के निर्वाचन क्षेत्रों में जिस तरह की अंदरूनी कलह ने इसे घेर रखा है, वैसी स्थिति किसी की नहीं। जम्मू में टिकट वितरण को लेकर खुले विद्रोह ने पिछले पूरे सप्ताह पार्टी कार्यालय में गहमा-गहमी का माहौल रखा। बाहरी लोगों को तरजीह दिए जाने के खिलाफ कई नेताओं ने इस्तीफा दे दिया। छंब, श्री माता वैष्णो देवी, राजौरी, नौशेरा, कठुआ, बाहु और उधमपुर पूर्व सहित अन्य क्षेत्रों में भी परेशानी बढ़ रही है जहां बाहरी लोगों जैसे ‘अपनी पार्टी’ से आए चौधरी जुल्फिकार अली, पीडीपी से आए मुर्तजा खान और कांग्रेस से आए अब्दुल गनी को क्रमश: बुधल, मेंढर और पुंछ हवेली से मैदान में उतारा गया है।
बीजेपी की बहुआयामी रणनीति में घाटी में कई प्रॉक्सी को खड़ा करना शामिल है। इसमें अल्ताफ बुखारी के नेतृत्व वाली ‘अपनी पार्टी’, सज्जाद लोन के नेतृत्व वाली पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, इंजीनियर राशिद के नेतृत्व वाली अवामी इत्तेहाद पार्टी और गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व वाली डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव आजाद पार्टी शामिल हैं। चारों पार्टियों के उम्मीदवारों ने लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन किया और अपनी जमानत जब्त करा ली। इन चारों पार्टियों ने एक बार फिर विधानसभा चुनावों के लिए कई उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। जम्मू-कश्मीर की घटनाओं पर पैनी नजर रखने वाले पूर्व रॉ प्रमुख ए.एस. दुलत को नहीं लगता कि इनमें शामिल कोई भी पार्टी 2-3 से ज्यादा सीटें जीत पाएगी।
यही वजह है कि नई दिल्ली पिछले एक साल से जमात-ए-इस्लामी जम्मू-कश्मीर के अलगाववादियों के साथ पर्दे के पीछे गुप्त बातचीत कर रही है। यह संगठन पाकिस्तान के प्रति निष्ठा रखने के लिए जाना जाता है। सरकार ने जमात से प्रतिबंध हटाने का विचार भी किया था लेकिन कथित तौर पर आरएसएस ने इसे खारिज कर दिया। इन हालात में जमात ने अपने उम्मीदवारों को निर्दलीय के रूप में खड़ा करने का फैसला किया है।
पिछले कुछ दशकों के दौरान जमात ने जम्मू-कश्मीर में दोहरी नीति अपनाई है। एक तो वह सामाजिक-धार्मिक संगठन के रूप में काम कर रहा है जो स्कूल और मस्जिद चलाता है और इसके साथ ही यह एक राजनीतिक संगठन भी है। जमात पर पहले ही तीन बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है।
1990 के दशक में इसके कई सदस्य हिजबुल मुजाहिदीन और जेकेएलएफ (जम्मू और कश्मीर लिबरेशन फ्रंट) जैसे आतंकवादी संगठनों का नेतृत्व करने से पहले हथियारों के प्रशिक्षण के लिए पाकिस्तान चले गए थे। दोनों संगठनों ने स्वतंत्र इस्लामी राज्य के निर्माण की मांग की थी।
यासीन मलिक सहित इनमें से कई जमात नेता गिरफ्तार हैं और वे जेल में बंद हैं। लेकिन वे आम लोगों के बीच अब भी लोकप्रिय हैं, जैसा कि अंतिम संस्कारों और सुरक्षा बलों द्वारा घेराबंदी और तलाशी अभियानों से साफ होता है। इसलिए यह चौंकाने वाली बात है कि वही मोदी सरकार जिसने यह कहते हुए हुर्रियत पर प्रतिबंध लगाया था कि वे अलगाववादी हैं, अब उन्हीं के साथ बातचीत कर रही है। हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों के दौरान उन्होंने उमर अब्दुल्ला को हराने के लिए इंजीनियर राशिद का गुप्त रूप से समर्थन किया। उमर बारामूला निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़े थे।
शिक्षाविद और जम्मू-कश्मीर की विशेषज्ञ और ‘पैराडाइज एट वॉर: ए पॉलिटिकल हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’ की लेखिका डॉ. राधा कुमार ने कहा, ‘मैं निश्चित रूप से मानती हूं कि यह केन्द्रीय प्रशासन और गृह मंत्रालय की सनक और गैरजिम्मेदारी की पराकाष्ठा है कि वे स्थापित और धर्मनिरपेक्ष दलों को खत्म करने के लिए एक ऐसे संगठन के उम्मीदवारों का समर्थन करें, जिस पर उन्होंने प्रतिबंध लगा दिया है और जिसके सदस्यों को वे देशद्रोही कहते हैं!’
जैसा कि दुलत ने कहा, ‘जमात ने पहले भी चुनाव लड़ा है। सैयद शाह गिलानी ने पांच बार चुनाव लड़ा लेकिन दो से तीन बार हार गए। यह स्पष्ट है कि बीजेपी उनका इस्तेमाल कर रही है। लेकिन जमात में एक विभाजन है: कुछ लोग इन चुनावों में लड़ना चाहते हैं, कुछ नहीं।’
दुलत ने कहा, ‘हाल के घटनाक्रम और बांग्लादेश में जमात-ए-इस्लामी के उदय ने नई दिल्ली को हिलाकर रख दिया होगा। कश्मीर के लोग उनकी (मोदी सरकार की) चालों को समझ सकते हैं।’ यह व्यापक रूप से माना जाता है कि राशिद के भाई शेख खुर्शीद के सरकारी सेवा से इस्तीफा देने और अवामी इत्तेहाद पार्टी द्वारा तीन दर्जन से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारने के वजह से यह चुनाव चार-कोणीय मुकाबले में तब्दील हो सकता है। इसका कथित उद्देश्य यह है कि कि पीडीपी और एनसी-कांग्रेस गठबंधन जैसी मुख्यधारा की पार्टियों की चुनावी संभावनाओं को कमजोर करना और सुनिश्चित करना कि खंडित जनादेश आए ताकि राष्ट्रपति शासन बरकरार रखा जा सके।
घाटी के पर्यवेक्षक हैरान हैं कि इंजीनियर राशिद जैसे अलगाववादी जिन्हें 2019 में आतंकवाद-वित्तपोषण के आरोप में जेल भेजा गया था, अब एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में कैसे उभर गया? ऐसा लगता है कि पहिया पूरी तरह घूम गया है।
नाम न छापने की शर्त पर एक वरिष्ठ पर्यवेक्षक ने कहा, ‘वे आग से खेल रहे हैं। हम जानते हैं कि जमात के सदस्य बहुत कम उम्र में ही विचारधारा से प्रभावित होने लगते हैं और अपनी विचारधारा से दूर नहीं होते। हम निश्चित रूप से नहीं चाहते कि कश्मीर में नब्बे के दशक की तरह आतंकवाद का एक और दौर आए। जमात अलगाववादियों के लिए समर्थन जुटाने में एक प्रमुख संगठनकर्ता बनी हुई है, भले ही इसने राजनीतिक रूप से खुद को ऐसी विचारधारा से दूर रखा हो।’
मुख्यधारा की पार्टियों के नेता बहादुरी से आगे आ रहे हैं। महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती ने इस बात पर सहमति जताई कि हालांकि उनकी पार्टी के लिए यह करो या मरो वाली स्थिति है लेकिन वह और अन्य पीडीपी कार्यकर्ता ‘भाजपा या उसके समर्थकों को कोई लोकतांत्रिक स्थान नहीं देने’ के लिए दृढ़ संकल्प हैं।
नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला का मानना है कि बीजेपी से मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन करना जरूरी था। अब्दुल्ला ने कहा, ‘अगर हमें अपने साथ हुई गलतियों को सुधारना है, तो सामूहिक लड़ाई लड़नी जरूरी है।’ गठबंधन का असर जमीन पर भी देखा जा सकता है, जब गुलाम नबी आजाद ने घोषणा की कि वह खराब स्वास्थ्य के आधार पर प्रचार नहीं करेंगे और फिर दावा किया कि उन्होंने अपना मन बदल लिया है।
बीजेपी लद्दाख में लोकप्रिय समर्थन में कमी को भी देख रही है। लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस मांग कर रहे हैं कि लद्दाख को छठी अनुसूची में शामिल किया जाए, साथ ही लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटें और राज्य का दर्जा बहाल किया जाए। राज्य का दर्जा बहाल करने की मांग जम्मू-कश्मीर के सभी राजनीतिक दल कर रहे हैं और ये यह भी चाहते हैं कि अनुच्छेद 370 और 35-ए को बहाल किया जाए।
यहां तक कि जम्मू में भी जहां लोगों ने अनुच्छेद 370 को हटाने और 35-ए को रद्द करने का स्वागत किया था, उल्टी हवा बहने लगी है। वहां लोगों का मन बदलने लगा है। जनता खुद को असहाय महसूस कर रही है। स्थानीय लोग अपनी जमीन और राज्य की नौकरियों के सिलसिले में अपने हितों की रक्षा चाहते हैं। इस केंद्र शासित प्रदेश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई है और बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है। इल्तिजा मुफ्ती ने अक्सर कहा है कि कैसे खनन अनुबंध गैर-स्थानीय लोगों को आउटसोर्स किए जा रहे हैं और सरकारी और प्रशासनिक नौकरियों से कश्मीरी कर्मचारियों को व्यवस्थित रूप से हटाया जा रहा है।
पिछले एक दशक से केंद्र सरकार घाटी में सामान्य स्थिति बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है। हिन्दुत्व ब्रिगेड द्वारा फैलाए गए मुस्लिम विरोधी बयानबाजी का नतीजा घाटी में देखा जा सकता है क्योंकि बड़ी संख्या में युवा आतंकवादी संगठनों में शामिल हो रहे हैं। आतंकवादियों को खदेड़ने या उनके भूमिगत नेटवर्क को नष्ट करने में सशस्त्र बलों की अक्षमता इस बात का संकेत है कि उन्हें आम लोगों का लगातार समर्थन मिल रहा है।
नई दिल्ली में इंस्टीट्यूट ऑफ कॉन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट के निदेशक सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. अजय साहनी ने कहा, ‘आतंकवादियों का पुनर्वास एक गलत कदम है। यह भाजपा की ओर से शुद्ध राजनीतिक शरारत है और हम जानते हैं कि यह स्थापित पार्टियों को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है लेकिन इसमें वे कामयाब नहीं होंगे’।
हम दुस्साहस के एक और दौर का खामियाजा उठाने की हालत में नहीं। सभी की निगाहें जम्मू-कश्मीर के चुनावों पर हैं। उम्मीद है कि लोग समझदारी से चुनाव करेंगे।
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