भगत सिंह जयंती: 'वसुधैव कुटुम्बकम', कैसा उच्च विचार है ये! सभी अपने हों, कोई भी पराया न हो'
क्रान्ति के संबन्ध में भगत सिंह से जब पूछा गया कि क्रान्ति शब्द से उनका क्या मतलब है, तो उत्तर में उन्होंने कहा था कि क्रान्ति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है।
देशभक्ति के लिए यह सर्वोच्च पुरस्कार है, और मुझे गर्व है कि मैं यह पुरस्कार पाने जा रहा हूं। वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके इस देश में सुरक्षित रह जायेंगे। यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते। वे मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार उस समय तक एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे जब तक वे यहां से भागने के लिए मजबूर न हो जाएंगे। भगत सिंह ने ये शब्द अपनी शहादत से कुछ ही महीने पहले कहे थे। उन्होंने अपने थोड़े से वर्षों के सार्वजनिक जीवन में जिस दिलेरी और दृढ़-निश्चय का परिचय दिया, इसके बारे में जितना कहा जाए कम है। किन्तु इसके साथ यह भी जरूरी है कि उन्होंने क्रांति, सामाजिक बदलाव और आर्थिक विषमताओं जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों पर जो विचार व्यक्त किये उन्हें अधिक पढ़ा और समझा जाये। भगत सिंह और उनके कुछ साथियों ने भारत और विश्व की स्थिति पर बहुत गहराई से सोच-विचार किया था और यही कारण है कि उनके विचारों को आज भी पढ़ते समय हमें लगता है कि वे हमारे समाज के लिए बेहद प्रासंगिक और प्रेरणादायक हैं।
क्रान्ति के संबन्ध में भगत सिंह से जब पूछा गया कि क्रान्ति शब्द से उनका क्या मतलब है, तो उत्तर में उन्होंने कहा था, "क्रान्ति के लिए खूनी संघर्ष अनिवार्य नहीं है और न ही उसमें व्यक्तिगत प्रतिहिंसा के लिए कोई स्थान है। वह बम और पिस्तौल का संप्रदाय नहीं है। क्रांति से हमारा अभिप्राय है - अन्याय पर आधारित समाज व्यवस्था में आमूल परिवर्तन। उन्होंने और उनके साथियों ने कहा, समाज का प्रमुख अंग होते हुए भी आज मजदूरों को उनके प्राथमिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है और उनकी गाढ़ी कमाई का सारा धन पूंजीपति हड़प जाते हैं। अन्नदाता किसान आज अपने परिवार सहित दाने-दाने के लिए मोहताज हैं। दुनिया भर के बाजारों को कपड़ा मुहैया करने वाला बुनकर अपने तथा अपने बच्चों के तन ढकने भर को भी कपड़ा नहीं पा रहा है। सुंदर महलों का निर्माण करने वाले राजगीर, लोहार तथा बढ़ई स्वयं गन्दे बाड़ों में रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर जाते हैं। इसके विपरीत समाज के जोकि शोषक पूंजीपति हैं जरा-जरा सी बातों के लिए लाखों का वारा-न्यारा कर देते हैं।
यह भयानक असमानता और जबरदस्ती लादा गया भेदभाव दुनिया को एक बहुत बड़ी उथल-पुथल की ओर लिए जा रहा है। यह स्थिति बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकती। स्पष्ट है कि आज का धनिक समाज एक भयंकर ज्वालामुखी के मुंह पर बैठ कर रंगरलियां मना रहा है और शोषकों के मासूम बच्चे तथा करोड़ों शोषित लोग एक भयानक खड्ड की कगार पर चल रहे हैं। हाईकोर्ट के बयान में भगत सिंह ने कहा इंकलाब जिन्दाबाद से हमारा वह उद्देश्य नहीं था, जो आम तौर पर गलत अर्थ में समझा जाता है। पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है और यही चीज थी जिसे हम प्रकट करना चाहते थे। हमारे इंकलाब का अर्थ पूंजीवादीयों की मुसीबतों का अन्त करना है। भगत सिंह और बी. के. दत्त ने मार्डन रिव्यूद्ध के संपादक को दिए गए वक्तव्य में कहा था, "क्रान्ति ;इंकलाबद्ध का अर्थ अनिवार्य रूप में सशस्त्रा आन्दोलन नहीं होता। बम और पिस्तौल कभी-कभी क्रान्ति को सफल बनाने के साधन मात्र हो सकते हैं। इसमें भी संदेह नहीं है कि कुछ आंदोलनों में बम एवं पिस्तौल एक महत्त्वपूर्ण साधन होते हैं, परन्तु केवल इसी कारण से बम और पिस्तौल क्रान्ति के पर्यायवाची नहीं हो जाते। विद्रोह को क्रान्ति नहीं कहा जा सकता, यद्यपि यह हो सकता है कि विद्रोह का अंतिम परिणाम क्रान्ति हो।
उद्देश्य केवल अंग्रेजों को हटाना ही नहीं है, अपितु एक शोषण विहीन समाज की स्थापना है। इस उद्देश्य से कोई भटकाव न हो इस पर भगत सिंह ने बार-बार जोर दिया। 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जेल से पंजाब छात्रा संघ को एक पत्रा भेजा था, "इस समय हम नौजवानों से यह नहीं कह सकते कि वे बम और पिस्तौल उठायें। आज विद्यार्थियों के सामने इससे भी अधिक महत्वपूर्ण काम है। आने वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस देश की आजादी के लिए जबरदस्त लड़ाई की घोषणा करने वाली है। राष्ट्रीय इतिहास के इन कठिन क्षणों में नौजवान के कंधों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी आ पड़ेगी। यह सच है कि स्वतन्त्राता के इस युद्ध में अग्रिम मोर्चों पर विद्यार्थियों ने मौत से टक्कर ली है। क्या परीक्षा की इस घड़ी में वे उसी प्रकार की दृढ़ता और आत्म विश्वास का परिचय देने से हिचकिचायेंगे? नौजवानों को क्रान्ति का संदेश देश के कोने-कोने में पहुंचाना है, फैक्टरी-कारखानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गांवों की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ो लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है, जिससे आजादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असंभव हो जाएगा।"
देश की शोषित जनता को जगाने के साथ-साथ पूरी दुनिया में शान्ति और भाई-चारे की भावना को भी भगत सिंह और उनके साथियों का संपूर्ण समर्थन मिला। कलकत्ता से प्रकाशित ’मतवाला’ पत्रा में भगत सिंह ने 1924 में लिखा, ‘वसुधैव कुटुम्बकम! जिस कवि सम्राट की यह अमूल्य कल्पना है, जिस विश्व प्रेम के अनुभवी का यह हृदयोदगार है, उसकी महत्ता का वर्णन करना मनुष्य शक्ति से सर्वथा बाहर है। कैसा उच्च है यह विचार! सभी अपने हों! कोई भी पराया न हो। कैसा सुखमय होगा वह समय, जब संसार से परायापन सर्वथा नष्ट हो जाएगा। जिस दिन यह समस्त संसार में व्यवहारिक रूप में परिणत होगा, उस दिन संसार को उन्नति के शिखर पर कह सकेंगे। जिस दिन प्रत्येक मनुष्य इस भाव को हृदयगम कर लेगा, उस दिन संसार कैसा होगा? जरा कल्पना करो तो जिसे विश्व शान्ति का इतना ख्याल हो वह अपने आस-पास भड़क रही सांप्रदायिकता को भला कैसे बर्दाश्त कर सकता है।
भगत सिंह ने सांप्रदायिक भावनाओं की कड़ी आलोचना की और इन्हें फैलाने के लिए कुछ समाचार पत्रों की भी खूब निन्दा की, पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊंचा समझा जाता था आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक दूसरे के विरूध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाओं को भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौब्वल करवाते हैं। एक ही नहीं कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएं हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को बनाना था।
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