बिहार में जो है वही मिल जाए बिहारियों को तो दिन बहुर जाएं उनके, लेकिन हवाई वादों से फुर्सत कहां सत्ता को
बिहार चुनाव में सभी पार्टियां वादे कर रही हैं। लेकिन बिहार को तो अगर सिर्फ वही मिल जाए जो बिहार में पहले से है या था, तो उनके तो दिन ही बहुर जाएंगे। लेकिन सत्ता को हवाई वादों से फुर्सत ही कहां मिलती है। इसीलिए हर चुनाव में हार जाते हैं बिहारी।
बिहार में पार्टियां भले जीतती हों, यहां के लोग हार गए ही महसूस करते हैं। ऐसा भी नहीं है कि इन लोगों को आसमां के सितारे की ख्वाहिश है। वे तो बस इतना चाहते हैं कि चार-पांच दशक पहले तक जो चीजें यहां थीं, उतनी ही वापस मिल जाएं तो उनका कल्याण हो जाए।
उत्तर बिहार की चीनी मिलें, डालमिया नगर का अशोक पेपर मिल, गया कॉटन मिल, फतुहा स्कूटर कारखाना, दीघा का फूटवियर कारखाना, मुंगेर का बंदूक कारखाना, मढ़ौरा का मार्टन कारखाना आदि फिर शुरू हो जाएं, मधुबनी पेन्टिंग को उचित बाजार मिल जाए, जमालपुर रेल कारखाने को यूपी और ऑफिसर्स ट्रेनिंग अकादमी को चेन्नई न शिफ्ट किया जाए, तो यहां के लोग गदगद हो जाएंगे। लॉकडाउन लगने के बाद जिस रिवर्स माइग्रेशन का दावा करते सत्तारूढ़ नेता नहीं थक रहे थे, ये सब हो जाएं, तो वास्तव में उसके चिह्न दिखने लग सकते हैं।
असल में, प्राथमिकताओं को दुरुस्त करने के लिए वर्तमान संसाधनों के साथ अतिरिक्त संसाधनों के उचित ढंग से उपयोग की दरकार है। सड़कों, फ्लाइओवर, म्यूजियम वगैरह के निर्माण पर जोर तो ठीक है लेकिन इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि राजधानी पटना समेत विभिन्न शहरों में नाले-नालियों की मरम्मत और सफाई इस तरह हो ताकि सड़कें बरसात के दिनों में नदियों-तालाबों में न बदल जाएं और किसी उपमुख्यमंत्री तथा उनके परिवार को डूबने से बचाने के लिए प्रशासन को न लगना पड़े।
सत्ता को समझना होगा कि लोग हैरान- परेशान क्यों हैं। परिवार में किसी का निधन हो जाए और कोई मृत्यु प्रमाणपत्र बनवाने जाए, तब भी उसे शुल्क जमा करने के अलावा किसी का हाथ गर्म करना पड़ता है। पहले तो पुलिस केस दर्ज करने में ही आनाकानी करती है; अगर ऊपर वाले की दया से मामला दर्ज करने को तैयार भी हो जाए, तो इसके लिए स्टेशनरी भी खरीदकर लानी पड़ती है। एक तो सरकारी अस्पतालों का भगवान ही मालिक है; डॉक्टर रोगी का इलाज तभी शुरू करते हैं जब दवा, ऑपरेशन के सामान वगैरह उनके बताए दुकान से लाए जाते हैं। मिड-डे मील स्कूल में मिलता ही रहेगा, इसका भरोसा नहीं रहता। बसों-रेलगाड़ियों में छतों पर सवारी करना खतरनाक भले ही हो, उसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है। नल जल योजना में भी नल से सचमुच जल आएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। शौचालय बनाने के लिए पैसे सही हाथों में पहुंच भी रहे या नहीं, इसे देखने वाला काई नहीं है। स्कूल हैं, पर इनके भवन बैठने लायक नहीं हैं। भवन अगर हैं भी, तो शिक्षकों के पद खाली हैं। शिक्षक हैं, तो वे क्या पढ़ा रहे हैं, इसे देखने वाला कोई नहीं है। यह भी देखने वाला कोई नहीं है कि उन्हें महीनों-महीनों तक वेतन नहीं मिलते। दुर्गा और लक्ष्मी पूजाओं को तो छोड़िए, सरस्वती पूजा तक के लिए भी चंदे इस तरह मांगे जाते हैं, मानो वसूली की जा रही हो।
इस बार चुनाव प्रचार के दौरान महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव की तरफ से जब कहा गया कि सरकार बनने पर कैबिनेट की पहली बैठक में 10 लाख लोगों को रोजगार देने का फैसला किया जाएगा, तो उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने इसे ‘हवा-हवाई’ बताने में देर नहीं की। लेकिन लगभग 72 घंटे बाद ही सत्तारूढ़ गठबंधन की ओर से 19 लाख रोजगार का वादा किया गया। खैर, इससे यह भी समझ में आया कि सुशील मोदी से बीजेपी नेतृत्व कोई राय-मशवरा करने की जरूरत नहीं समझता और इसीलिए उन्हें तब तक कुछ पता नहीं चलता जब तक केंद्रीय नेतृत्व कोई फैसला नहीं ले लेता।
सुशील मोदी की चिंता यह थी कि इतने लोगों को रोजगार देने के लिए पैसे कहां से आएंगे। हो सकता है कि वह भूल रहे हों कि जिस नीतीश सरकार में वह उपमुख्यमंत्री हैं, उसी ने नए म्यूजियम पर 400 करोड़ रुपये, पटना में एक पार्क बनाने पर 300 करोड़, राजगीर में अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर निर्माण पर 300 करोड़ और सरकार के प्रचार-प्रसार पर 500 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। यह ठीक है कि इस तरह के निर्माण भी जरूरी हैं लेकिन इस बात से कौन इंकार करेगा कि इसी तरह स्थायी रोजगार के लिए भी पैसे जुटाए और खर्च किए जा सकते हैं। वैसे, यह बात तो नरेंद्र मोदी सरकार को भी याद दिलाने की जरूरत है जिसने स्टैचू ऑफ यूनिटी पर 3,000 करोड़, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्रीके लिए दो वीआईपी विमानों की खरीद पर 8,500 करोड़ और अपनी सरकार के प्रचार-प्रसार के लिए 7,000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं जबकि नई दिल्ली में चार किलोमीटर घेरे में सेन्ट्रल विस्टा के निर्माण पर 20,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है।
दो और बातें ध्यान में रखने की हैं। रेल मंत्री पीयूष गोयल ने अभी जनवरी में कहा था कि स्टैचू ऑफ यूनिटी से एक लाख करोड़ के आर्थिक इको सिसटम बनने की उम्मीद है। याद कीजिए, प्रधानमंत्री मोदी ने 2015 विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान बिहार को 125 लाख करोड़ देने का वादा किया था। पीयूष गोयल के अर्थशास्त्रीय हिसाब- किताब से तो बिहार में अब तक 3,750 लाख करोड़ का आर्थिक इको सिस्टम पैदा हो जाना चाहिए था! लेकिन मोदी को तो अब यह भी याद नहीं रहता कि उन्होंने कब कहां किससे क्या वायदा किया था।
2015 विधानसभा चुनाव में जब वह मोतिहारी आए थे, तो उन्होंने कहा था कि जब वह अगली बार आएंगे तो बंद पड़ी मोतिहारी चीनी मिल के बने शक्कर को घुलाकर चाय पीएंगे। वह मिल अब भी बंद है। मोदी अभी हाल में यहां प्रचार करने फिर आए। शुक्र है कि उन्होंने मिल खुलवाने का वादा नहीं दोहराया। वैसे, तेजस्वी ने वह वादा उन्हें याद दिलाया, फिर भी शायद ही उन्हें कुछ याद आई हो।
मोदी ने तेजस्वी की लिखी चिट्ठी ही पढ़ ली होती, तो उन्हें बिहार की हालत का शायद कुछ अंदाजा होता। तेजस्वी ने मोदी को लिखे खुले पत्र में पूछा था कि आखिर, बिहार में बेरोजगारी की दर देश में सबसे अधिक क्यों है। उन्होंने सवाल किया था कि बिहार के एमबीए डिग्रीधारी बच्चे, आखिर, चपरासी के पदों पर काम करने को क्यों मजबूर हैं? लॉकडाउन के दौरान 10 लाख जॉब कार्ड बांटे गए लेकिन मनरेगा के अंतर्गत सिर्फ कुछ हजार लोगों को ही क्यों रोजगार दिया गया? लोगों से काम तो करा लिया गया लेकिन उन्हें भुगतान क्यों नहीं कराया जा सका है? और तो और, बिहार को विशेष दर्जा देने के लिए नियमों में बदलाव क्यों नहीं किया जा सकता जबकि संविधान तक में बदलाव में कोई परेशानी नहीं होती?
पर मोदी को क्या कहा जाए। अब तो, खैर, नीतीश को भी याद नहीं होगा कि 2015 का विधानसभा चुनाव जब वह लालू प्रसाद यादव के साथ लड़ रहे थे, तो उनके प्रचार अभियान में ‘थ्री इडियट्स’ के गाने की यह पैरोडी बजाई जाती थीः
बहती हवा सा था वो,
गुजरात से आया था वो,
काला धन लाने वाला था वो,
कहां गया, उसे ढूंढो।
सचमुच ही, नीतीश-मोदी की उमर हो गई है। बिहार ही नहीं, देश में भी अपेक्षाकृत कम उम्र के नेतृत्व की जरूरत है।
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