कमजोर वर्ग के लिए बजट में किए बड़े-बड़े दावों का हकीकत से मेल नहीं
बजट 2018-19 में कमजोर वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने के सरकारी दावे हकीकत से मेल नही खाते हैं। बजट में आकर्षक लगने वाली योजनाओं को असरदार रूप देने के लिए समुचित संसाधनों की व्यवस्था नहीं की गई है।
हमारे देश में बजट के मूल्यांकन का एक महत्त्वपूर्ण पैमाना यह है कि वह निर्धन और कमजोर वर्ग की जरूरतों के अनुकूल हो तथा उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरे।
इस दृष्टि से यदि हम केन्द्रीय सरकार के बजट 2018-19 को देखें तो कमजोर वर्ग के हितों को आगे बढ़ाने के सरकारी दावे हकीकत से मेल नही खाते हैं। इसकी एक बड़ी वजह यह है कि आकर्षक लगने वाली योजनाओं को असरदार रूप देने के लिए समुचित संसाधनों की व्यवस्था नहीं की गई है।
अनुसूचित जाति उप-योजना के लिए पिछले वर्ष के संशोधित बजट की तुलना में इस वर्ष के बजट अनुमान में 7 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यदि महंगाई के असर को हटा कर देखा जाए तो आवंटन लगभग पहले जितना ही है। मैला ढोने या साफ करने के कार्य में लगे सफाईकर्मियों के लिए स्वीकृत राशि में कुछ वृद्धि तो हुई है, पर यह पर्याप्त नहीं है।
आदिवासी उप-योजना के लिए अपेक्षाकृत कुछ बेहतर वृद्धि हुई है व आदिवासी बहुल प्रखंडों के लिए एकलव्य आदर्श आवास स्कूलों की व्यवस्था भी हुई है। दूसरी ओर वनबंधु कल्याण योजना के लिए वर्ष 2016-17 में 469 करोड़ रुपए व्यय हुए थे पर वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए मात्र 420 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई है।
इस वर्ष के बजट में 300 करोड़ रुपए के आवंटन से राष्ट्रीय बांस मिशन आरंभ किया गया है। बांस के कार्य से बंसोड़ समुदाय के बहुत से लोग जुड़े हैं। उनके अतिरिक्त अनेक आदिवासी समुदाय भी इस कार्य से जुड़े हैं। सरकार को चाहिए कि इन समुदायों की भलाई को आरंभ से ही इस राष्ट्रीय मिशन में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाए। यदि ऐसा प्रयास किया गया तो इन उपेक्षित समुदायों के लिए बेहतर अवसर उत्पन्न हो सकते हैं।
यदि अधिक व्यापक योजनाओं को देखा जाए तो 10 करोड़ परिवारों या 50 करोड़ लोगों को अपने दायरे में लाने वाली राष्ट्रीय स्वास्थ्य रक्षा स्कीम सबसे अधिक चर्चित है। बजट भाषण में इसे सराहा तो बहुत गया पर इतनी बड़ी योजना के लिए आवश्यक संसाधनों को सुनिश्चित नहीं किया गया। इसकी आलोचना होने पर अगले दिन इस बारे में सरकार ने स्पष्टीकरण जारी किए, पर इतनी बड़ी योजना के लिए जरूरी पर्याप्त तैयारी की कमी फिर भी नजर आ रही है।
इस संदर्भ में एक अन्य सवाल यह भी उठ रहा है कि देश के सभी जरूरतमंदों तक उचित इलाज की स्वास्थ्य सेवाएं पहंुचाने का सही रास्ता क्या है। इतना तो स्पष्ट है कि इसके लिए बड़ी मात्रा में वित्तीय संसाधन जुटाने होंगे। इस समय भारत की गिनती उन देशों में है जहां स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च राष्ट्रीय आय के हिस्से के रूप में सबसे कम होता है। यह कैसे हो सकता है कि इतने बड़े देश के जरूरतमंदों को सरकारी खर्च को महत्त्वपूर्ण हद तक बढ़ाए बिना ही स्वास्थ्य व इलाज का लाभ दिया जा सके। अतः स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च को तो बहुत बढ़ाना ही पड़ेगा पर इसका संकेत बजट में नहीं मिला है।
दूसरी बात यह है कि यदि वित्तीय संसाधन जुटा भी लिए जाएं तो क्या इनका उपयोग सीधा सरकारी स्वास्थ्य केन्द्रों को बेहतर बनाने के लिए किया जाए या इनका उपयोग निजी अस्पतालों व बीमा कंपनियों को लाभ पहंुचाने वाली योजना पर किया जाए। दूसरी तरह की योजनाओं का अब तक का सीमित अनुभव मरीजों के अलिए अधिक हितकारी नहीं रहा है अतः ऐसे सवाल उठाना जरूरी है।
इस तरह के सवाल उठाकर निर्धन वर्ग के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने का सही मार्ग खोजना जरूरी है। फिलहाल बजट में टीबी मरीजों के जो पोषण सहायता आरंभ करवाई गई है, वह तत्काल राहत उपलब्ध करवाने वाला एक अच्छा कदम है।
वृद्ध लोगों व विधवा महिलाओं के लिए राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम के अन्तर्गत जो पेंशन मिलती है उसमें केन्द्रीय सरकार का योगदान मात्र 200 रुपए प्रति माह पर अनेक वर्षों से स्थिर है व इस बजट में भी उसे नहीं बढ़ाया गया है। सरकार को इस विषय पर शीघ्र निर्णय लेकर इस पेंशन को अवश्य बढ़ाना चाहिए व साथ में अनेक जरूरतमंदों तक पेंशन का लाभ पहुंचाना जरूरी है।
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