कर्पूरी ठाकुर (1924-1988): लोगों से जुड़े एक 'ईमानदार' नेता
इस वर्ष कर्पूरी ठाकुर को उनकी जन्मशती पर मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने का निर्णय राजनीतिक और चुनावी महत्व का प्रतीक है। लेकिन इस सच्चाई को नहीं झुठलाया जा सकता कि वे वास्तव में एक नायक थे।
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को उनकी मृत्यु के 36 साल बाद और लोकसभा चुनाव से महज तीन महीने पहले भारत रत्न से सम्मानित करने का केंद्र सरकार का ऐलान निश्चित रूप से एक राजनीतिक फैसला है जिसमें चुनावी लाभ का हिसाब-किताब शामिल है। लेकिन फिर भी इससे यह इनकार नहीं किया जा सकता कि कर्पूरी ठाकुर एक शानदार नेता थे, जिनकी सोच अपने समय से कहीं आगे की थी।
कर्पूरी ठाकुर जब बिहार के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने 1971 में वृद्धावस्था पेंशन की शुरुआत की थी, 1977 में मैट्रिक तक पढ़ाई मुफ्त करने का ऐलान किया था, बिहार में शराबबंदी लागू की थी और छोटी जमीन (कम जमीन वाले किसानों) पर सरचार्ज को घटाया था। 1971 में उनकी सरकार ने मुंगेरी लाल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर पिछड़ों और अति पिछड़ों के लिए आरक्षण का फार्मूला सामने रखा था, जिसमें महिलाओं और उच्च जातियों के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था थी। यह सब उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से 20 साल पहले कर दिया था।
वे दो बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन कभी भी वे अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए और एक बार तीन साल और एक बार ढाई साल के लिए मुख्यमंत्री रहे। लेकिन इससे उनके व्यक्तित्व का कद छोटा नहीं होता। वे शांत बैठने वाले व्यक्ति नहीं थे और एक विधायक, सांसद, मंत्री या विपक्ष के नेता के तौर पर लगातार सक्रिय रहे।
जब 1988 में कुछ समय की बीमारी के बाद अचानक उनका देहांत हुआ तो उनकी उम्र उस समय सिर्फ 64 साल थी, वे विपक्ष के नेता थे। पुराने जमाने के नेता और अफसर याद करते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री कांग्रेस के बिंदेश्वरी दुबे के अफसरों को स्पष्ट निर्देश थे कि अगर कर्पूरी जी किसी भी काम के लिए उनके पास आते हैं तो वह काम तुरंत किया जाए और अगर जरूरत तो बाद में उन्हें सूचित किया जाए। दुबे और ठाकुर के बीच इस किस्म का अटूट विश्वास और रिश्ता था।
इस आदेश के चलते यह कानाफूसियां भी होती थीं कि कर्पूरी जी तो मुख्यमंत्री के पे रोल पर हैं। लेकिन तथ्य यह है कि वे भ्रष्टाचार से कोसों दूर थे और कई बार अपने दोस्तों और शुभचिंतकों से पैसे उधार लेते थे। उनकी जरूरतें भी बहुत साधारण थीं और 1977 में मुख्यमंत्री होने के बावजूद वह राजधानी में साइकिल रिक्शा पर घूमते दिख जाते थे। उन्होंने तो अपने बच्चों को भी राजधानी में उनके साथ रहने की इजाजत नहीं दी थी, कोई राजनीतिक लाभ उठाना तो दूर की बात है।
विपक्ष के नेता के तौर पर उन्हें एक एंबेसडर कार ड्राइवर के साथ मिली हुई थी। बिहार में 1980 का दशक बहुत ही गड़बड़ियों वाला रहा है। विभिन्न जातियों की निजी सेनाएं तैयार हो रही थीं, इनमें लोरिक सेना, रनबीर सेना, ब्रह्मऋषि सेना आदि प्रमुख थीं। यह सेनाएं अकसर गांवों पर रातोंरात धावा बोलतीं और विरोधी जाति के लोगों को नरसंहार करती थीं। दलितों को ये सेनाएं नक्सलियों से मिला हुआ मानती थीं और प्राय: वे इन सेनाओं के निशाने पर होते थे। नक्सली भी जवाबी हमले करते थे गांवों में रहने वालों की जान लेते थे। (औरंगाबाद जिले का दलेलचौक नरसंहार काफी प्रसिद्ध है जिसमें नकस्लियों ने कम से कम 57 गांव वालों को मौत के घाट उतार दिया था।) दिन निकलने से पहले ही हमलावर फरार हो जाते थे और घटना के घंटों बाद ही वारदात की खबर राजधानी तक पहुंचती थी।
कई मौके ऐसे आए, जब कर्पूरी ठाकुर कई बार पुलिस के पहुंचने से पहले ही मौके पर पहुंच जाते थे। उस जमाने में लैंडलाइन फोन और बहुत की खराब सेवाओं के बावजूद उन्हें कैसे सूचना मिलती थी, यह आज भी राज ही है, लेकिन कई बार वह रात के 2 बजे ही निकल जाते थे और ऊबड़खाबड़ सड़कों को पार करते हुए पांच-छह घंटे में मौका-ए-वारदात पर होते थे। कई बार उनके पहुंचने के बाद ही पत्रकारों या प्रशासन के लोग आ पाते थे।
उस जमाने में मोबाइल फोन तो थे नहीं और विपक्ष के नेता ही सूचना का गैर सरकारी और भरोसेमंद सूत्र होते थे। कई बार वह ऐसे दौरों से शाम 5 बजे तक वापस आ जाते थे और पटना के फ्रेजर रोड स्थित समाचार एजेंसी यूएनआई के दफ्तर पहुंचकर खुद ही घटना का विवरण लिखते थे, और फिर इसी की फोटो कॉपी बाकी अखबारों और न्यूज एजेंसियों को बांटी जाती थी।
उन्होंने अपना राजनीतिक कद खुद बनाया था और बहुत कुछ खुद ही सीखा था। वे हमेशा से मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा की वकालत करते थे। हालांकि उन्हें सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी में शिक्षा न दिए जाने के लिए आज भी जिम्मेदार माना जाता है।
उन्हें पढ़ने का बहुत शौक था, और विधानसभा में उनकी डेस्क पर मार्कर्स, फाइलें र रिपोर्ट आदि के साथ हमेशा किताबें भी नजर आती थीं। तब इंटरनेट तो था नहीं, इसलिए वे एक विधायक के तौर पर अपनी सारी तैयारी किताबों और रिपोर्टों आदि को पढ़कर करते थे। अपने भाषणों में अकसर संसदीय नियमों और प्रथाओं का जिक्र करते हुए वे सरकार पर हमला बोलते थे। विपक्ष के नेता और फिर मुख्यमंत्री के तौर पर उनके उत्तराधिकारी लालू प्रसाद यादव ने भी कर्पूरी ठाकुर की कई आदतें अपनाईं, लेकिन उन जैसा होमवर्क शायद वह कभी नहीं कर पाए।
कर्पूरी जी के बारे में कई किंवदंतियां भी मशहूर हैं। कहा जाता है कि प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने एक बार जनता पार्टी नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल से कहा था कि जब इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी उन्हें नहीं पकड़पाईं, तो मुझे वे कैसे मिल सकते हैं। इमरजेंसी की घोषणा पर कर्पूरी जी भूमिगत हो गए थे और नेपाल जाकर वहीं से सीमावर्ती इलाकों में सक्रिय थे।
एक और बात मशहूर है कि एक बार कड़ाके की सर्दी में भी मुख्यमंत्री के तौर पर उनके बेडरूम का पंखा चल रहा था। अगली सुबह जब उनसे पूछा गया कि ऐसा क्यों किया था, तो उन्होंने कहा कि मच्छर बहुत थे और मच्छरदानी थी नहीं, तो पंखा चला लिया था।
कर्पूरी ठाकुर की मृत्यु कुछ जल्द ही हो गई, और शायद वे अपने हिसाब से लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी के तौर पर पूरी तरह तैयार नहीं कर पाए, हालांकि दोनों ने ही बिहार को लेकर उनके बहुत से विचारों को लागू करने की कोशिशें की।
Google न्यूज़, नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें
प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia