भारत जोड़ो यात्राः राजनीति में नारी शक्ति का फिर उभार, बिना झिझक आधी आबादी ने रखे अपने विचार
भारत जोड़ो यात्रा में महिलाओं की प्रमुख भागीदारी रही। महिलाएं राहुल गांधी के निकट आने में, उन्हें गले लगाने में और साथ चलने में पूरी तरह सहज रहीं- चाहे युवा हों या बुजुर्ग। इससे भी अहम बात, वे बिना झिझक बेहतर भारत के लिए अपने अनुभव और विचार पेश कर रही हैं।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी के नेतृत्व में कन्याकुमारी से कश्मीर तक के लिए शुरू हुई भारत जोड़ो यात्रा अब अपने अंतिम पड़ाव पर है। 7 सितंबर, 2022 को कन्याकुमारी से आरंभ हुई यह यात्रा 30 जनवरी, 2023 को श्रीनगर में समाप्त होने वाली है। इस 3,750 किलोमीटर लंबी यात्रा ने इस दौरान एक आंदोलन का रूप ले लिया है। देश में जहां-जहां से यह यात्रा गुजरी, वहां-वहां इस यात्रा ने लोगों के चेहरे पर मुस्कान और दिलों में उम्मीद की एक किरण छोड़ी। इस यात्रा के दौरान समय-समय पर कई पत्रकारों, लेखकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने अनुभव साझा किए हैं, जिन्हें नवजीवन में प्रकाशित किया गया है। अब जब यह यात्रा अपने उरूज पर है, तब हम एक बार फिर उन लेखों के जरिये यात्रा के अनुभव आपसे साझा कर रहे हैं। तो पेश हैं यात्रा की जरूरत बताती उसके मकसद और उसके अनुभवों को समेटे विचारपूर्ण लेखों के अंश:
राजनीति में नारी शक्ति का फिर उभार
महात्मा गांधी ने सबसे पहले भारत में राजनीति को ‘नारी अधिकारवादी रूप’ दिया। यह सच है कि 1915 में उनके दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के पहले भारतीय राजनीति में और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में भी, महिलाएं थीं लेकिन उनकी संख्या बहुत नहीं थी और लगभग सभी अगड़ी जातियों और कुलीन परिवारों से थीं।
ऐसा भी नहीं कि उन लोगों ने भागीदारी नहीं निभाई। उनमें से कई संपन्न महिलाएं थीं जिन्होंने महिलाओं की शिक्षा के लिए जोर देकर तर्क दिए और उन्हें वोट देने और चुनाव लड़ने के अधिकार को सुनिश्चित किया। बंगाल में महिलाओं ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह तक में भाग लिया लेकिन आप उन्हें उंगलियों पर गिन सकते हैं। लेकिन अहिंसक आंदोलन निश्चित तौर पर अधिकांश महिलाओं के अनुकूल था। वे गांधी के सत्याग्रह में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में अपने घरों से बाहर निकलीं। यह हमारी राजनीति का ऐसा ‘नारी अधिकारवादी रूप’ था जिसे पहले कभी नहीं देखा गया था- गांधी ने वह दरवाजा खोल दिया था।
एक शताब्दी बाद, भारत जोड़ो यात्रा उन दिनों की यादों को दोहरा रही है क्योंकि महिलाएं- चाहे वे युवा हों या बुजुर्ग- राहुल गांधी के साथ यात्रा करने के लिए निकल आई हैं। यह खास तौर से इसलिए उल्लेखनीय है क्योंकि महिलाएं अब भी लोकसभा में 14 प्रतिशत ही हैं; राज्य विधानसभाओं में वे और भी कम हैं। यह ऐसे वक्त हो रहा है जब राजनीति बिकाऊ, हिंसक और ऐसा क्षेत्र जिसमें पुरुष ही प्रधान हैं, ऐसा हो गया है- और बड़े पैमाने पर इसे इसी रूप में देखा जा रहा है।
आम तौर पर, एक तिहाई यात्री महिलाएं हैं, हालांकि भीड़ अब भी प्रमुख तौर पर पुरुषों की है। महिलाएं राहुल गांधी के निकट आने में पूरी तरह सहज हैं- चाहे युवा हों या बुजुर्ग। वे सहज तरीके से सबके सामने राहुल गांधी को गले लगा रही हैं। और इससे भी महत्वपूर्ण बात, वे बिना झिझक बेहतर भारत के लिए अपने अनुभव और विचार पेश करती लग रही हैं।
भारत जोड़ो यात्रा के चित्र और वीडियो जोरदार संकेत दे रहे हैं और भारतीय राजनीति के नारी अधिकारवादी रूप के एक अन्य चरण की ओर इशारा कर रहे हैं। मुंबई की क्वीअर राइट्स ऐक्टिविस्ट चयनिका शाह खुलकर कहती हैं कि ‘मैंने इन वीडियो को लंबे समय देखा है, कई बार तो एक बार में 15 मिनट तक और मैं उनसे विस्मित रह गई हूं।’ वह कहती हैं कि ‘महिलाएं सार्वजनिक तौर पर अपनी भावनाएं व्यक्त कर रही हैं, रो पड़ रही हैं- ये बहुत ही शक्तिशाली इमेज हैं।’
उत्तर प्रदेश के शाहनवाज आलम भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होते हुए कई राज्यों से गुजरे हैं और उन्होंने एक खास बात महसूस की है। यूपी में पार्टी के अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष शाहनवाज याद करते हैं कि जब यात्रा महाराष्ट्र में थी, तो आयोजकों और लोगों- दोनों का इस बात पर जोर था कि राहुल गांधी अन्ना भाउ साठे, शिवाजी महाराज, महात्मा फुले, बाबा साहब आम्बेडकर और इन जैसे समाज सुधारकों के स्मारकों की यात्रा करें। इसके विपरीत कर्नाटक में अनुरोध यह था कि वह मंदिरों में जाएं।
यात्रा के आरंभ में दक्षिण राज्यों से गुजरते हुए भी राहुल गांधी ने के कामराज, थिरु वल्लुवर, विवेकानंद, पेरियार और श्री नारायण गुरु के स्मारकों का दौरा किया। राहुल गांधी जिसका प्रतिनिधित्व करते हैं, उस कांग्रेस ने के. कामराज को तमिलनाडु का मुख्यमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष भी बनाया। कामराज तमिलनाडु के अत्यंत पिछड़ा वर्ग ‘नादर’ परिवार से आते थे। कामराज ने जो कल्याण योजनाएं आरंभ कीं, उनका लाभ राज्य के गरीबों, दलितों और पिछड़े परिवारों के बच्चों को शिक्षा दिलाने में मिला। हाशिये के वर्गों के लिए उनकी भागीदारी राज्य के गैरकांग्रेस नेता भी बेहिचक स्वीकारते और याद करते हैं। सीपीआई महासचिव डी. राजा याद करते हैं कि ‘अगर कामराज की मिड-डे मील योजना न होती, तो मैं कभी पढ़-लिख नहीं पाता।’ डी. राजा अक्सर कहते हैं कि वह भूखे रहे हैं इसलिए उन्होंने कभी राजनीतिक या प्रतीकामक ‘उपवास’ नहीं किया।
कांग्रेस ने आजादी से पहले और बाद में समाज और राजनीति में क्रमिक बदलाव लाने में भूमिकाएं निभाईं। यह लंबे समय से कांग्रेस की विरासत रही है। भारत जोड़ो यात्रा के समर्थक और आलोचक समान तरीके से प्रतीक्षा कर रहे हैं कि क्या यात्रा और निश्चित तौर पर राहुल गांधी खुद इस विरासत पर अपना दावा करते हैं या नहीं।
इसे भी पढ़ेंः भारत जोड़ो यात्रा समाज को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम
यह याद करने वाली बात है कि बाबा साहब अंबेडकर द्वारा पेश हिन्दू कोड बिल को पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अंदर की दक्षिणपंथी शक्तियों और बाहरी हिन्दू संगठनों के दबाव में संसद से पास कराने में विफल रहे थे। तब उन्होंने तीन विभिन्न विधेयक पेश किए जिसे संसद की स्वीकृति मिली। डॉ. अंबेडकर कांग्रेस के अंदर तो पंडित नेहरू के करीब थे, पर उनके साथ उनके मतभेद थे क्योंकि नेहरू सरकार और पार्टी के नेता के तौर पर सफलता और विफलता के उत्तरदायी थे। यह उन दोनों के संबंधों की व्याख्या करता है जिसे कुछ इतिहासकार गहरे प्रेम और मतभेद की तरह देखते हैं। फिर भी, पंडित नेहरू और डॉ. अंबेडकर को ऐसे भारत के निर्माण में एक-दूसरे की क्षमता पर पूरा यकीन था जिसमें हर व्यक्ति एकसमान होगा।
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का महत्व उस लंबे इतिहास में है जब पार्टी और इसके अग्रिम संगठन न सिर्फ राजनीतिक तौर पर सक्रिय थे बल्कि समावेशी राज्य व्यवस्था, समानता और सामाजिक बदलाव को लेकर प्रतिबद्ध रहे थे। इसलिए, भारत जोड़ो यात्रा को सामाजिक भाईचारा लाने और उसे मजबूत करने की यात्रा के तौर पर देखा जा सकता है। इसे महान बहुजन-दलित नेताओं और सुधारकों तथा उनके विचारों की विरासत को जीवित करने और उन पर दोबारा दावा करने के अतिरिक्त प्रयास के तौर पर देखे जाने की जरूरत है। यह समाज को वास्तविक धर्मनिरपेक्ष बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा।
(पत्रकार-लेखक संजीव चंदन का यह लेख संडे नवजीव में छपा था)
इस दर्द में भी गर्व
फटी एड़ी, चोटिल और कई बार बहता खून, पैरों में छाले, टखनों में सूजन, घुटनों का उभर आया दर्द- पांच दिनों में सौ किलोमीटर चल चुकने के बाद यह सब यात्रा के सहयात्रियों में आम बात है। कुछ लोगों की थकान तो कन्याकुमारी से कश्मीर की इस पदयात्रा के 3,750 किलोमीटर लंबाई की कल्पना करके ही बढ़ जा रही है!
लेकिन ऐसा नहीं लगता कि किसी मन के कोने में यात्रा छोड़ने का खयाल भी कहीं आया हो। वे कहते हैं कि उन्हें अहसास था कि शुरुआती कुछ सौ किलोमीटर खासी मुश्किल वाले होंगे। लेकिन एक बार जब शरीर और पैर हर दिन 20-25 किलोमीटर चलने की आदत डाल लेंगे तो आगे की यह लंबी यात्रा आसान और सुखद हो जाएगी, यानी शरीर भले थका हो, उत्साह सिर चढ़कर बोल रहा है।
वे मुस्कुराकर कहते हैं कि उन्हें पता है कि मीडिया और बीजेपी वाले कुछ ऐसा ही इंतजार कर रहे हैं कि मजाक बनाने का कुछ सामान मिल जाए! वे तो 81 साल के सहयात्री एके एंटोनी की ऊर्जा देखकर चार्ज हो रहे हैं। राहुल गांधी का उत्साह और एनर्जी लेवल भी उन्हें चकित कर रहा है जो तेज कदम चलते हैं लेकिन अभी तक उन्हें कोई असुविधा नहीं हुई है।
पदयात्रा भी किसी संक्रमण से कम नहीं। दर्द रफ्तार थामता है तो एक-दूसरे का हाथ थाम मुस्कराते हैं, जोश भरे नारे लगाते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। रास्ते में खड़े लोगों से मिलने वाला अभिवादन, स्वागत और उनकी ओर से मिलते फूलों के गुलदस्ते बहुत मददगार हैं। मुस्कुराकर कहते हैं कि एक बड़े मकसद के लिए इतना दर्द सो सहा ही जा सकता है, और इतनी कीमत चुकाने के लिए वे तैयार हैं।
मेरे सामने जशपुर (छत्तीसगढ़) की रत्ना पेनक्रा हैं। चलने में दिक्कत हो रही है। घुटने में तेज दर्द है लेकिन चलते रहने पर अमादा हैं। परिवार ने भी इतनी लंबी यात्रा के उनके फैसले का समर्थन किया है। वह जिला परिषद की सदस्य भी हैं। वह कहती हैं, ‘देश बिखर रहा है। लोगों के उत्थान, उनकी समृद्धि के लिए हमें एकता की जरूरत है। हम क्षुद्र राजनीति में समय गंवा कर महत्वपूर्ण मुद्दों की उपेक्षा नहीं कर सकते। देश को एक और विभाजन या गृहयुद्ध में नहीं झोंकने दे सकते।
तिरुवनंतपुरम के नेओम की दयालबीवी कहती हैं कि राहुल गांधी के लिए कुछ भी करना है। उनका तर्क है कि ‘देश में शांति, सांप्रदायिक सद्भाव और समाज के वंचित-गरीब तबके के लिए काम करने वाले राजनेताओं का समर्थन किया ही जाना चाहिए।’ वह ‘प्रदेश यात्री’ हैं।
तेलंगाना की अनुलेखा बूसा वकील हैं और एनएसयूआई की राष्ट्रीय सचिव के साथ-साथ ओडिशा की प्रभारी भी। वह कहती हैं, “मीडिया जो कुछ दिखा रहा है, उसके उलट बड़ी तादाद बदलाव चाहती है। इनमें से तमाम लोगों की आवाज टीवी चैनलों पर सुनी जाने वाली आवाजों से बहुत अलग है और ऐसी आवाजों को दूर तक पहुंचाया जाना चाहिए।”
तेलंगाना की धनलक्ष्मी सरपंच फोरम की प्रदेश अध्यक्ष भी हैं। वह कहती हैं, “मेरी दिलचस्पी सभी राज्यों में जाकर वहां के किसानों और महिलाओं की मुश्किलें, उनके मुद्दे समझने में है। मुझे अब पता चला है कि केरल में जमीन की बहुत कमी है लेकिन यहां के लोगों में एकता है।” उन्हें चलने में ज़्यादा दिक्कत इसलिए भी नहीं हो रही कि पहले ही एक लंबी पदयात्रा करके आई हैं। वह भूदान आंदोलन की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर तेलंगाना के भूदान पोचमपल्ली से महाराष्ट्र के सेवागरम तक 600 किलोमीटर पैदल चलकर आई थीं।
(ऐशलीन मैथ्यू की यह रिपोर्ट 18 सितंबर, 2022 को संडे नवजीवन में छपी थी)
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