भारत जोड़ो यात्रा: समाज में बन गई दरारों को पाटने की यात्रा, बिना बहुत कुछ कहे दे रही सद्भावना का संदेश
7 सितंबर, 2022 को कन्याकुमारी से आरंभ हुई और 30 जनवरी, 2023 को समाप्त होने वाली 3,750 किलोमीटर लंबी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ के दौरान संडे नवजीवन में प्रकाशित विचारपूर्ण लेखों के अंश पढ़ें...
क्यों ‘भारत जोड़ो’ से जेहन में उभरता है ‘भारत छोड़ो’
अगस्त, 1942 में युसूफ मेहर अली की उम्र 40 भी नहीं थी जब उन्होंने ‘क्विट इंडिया’ नामक पुस्तिका लिखी और इसे बाकायदा बंटवाया। प्रस्तावित नागरिक असहयोग आंदोलन का नाम ‘क्विट इंडिया’ रखने का सुझाव युसूफ मेहर अली ने दिया और गांधीजी को यह जंच गया। तब तक, आजादी की वकालत करने के लिए वह कई बार जेल जा चुके थे। वह बॉम्बे के सबसे कम उम्र के मेयर थे और अपनी प्रशासनिक काबलियत और जनहित के फैसलों के कारण बेहद मशहूर हो गए थे।
देखते-देखते ‘क्विट इंडिया’ का नारा देश के कोने-कोने में करोड़ों लोगों की जुबान पर चढ़ गया। लोगों ने इसका अपनी-अपनी भाषाओं में अनुवाद किया। मराठी में यह ‘चले-जाव’ बना। हिंदी संस्करण था ‘भारत छोड़ो’। भाषा कोई भी हो, इस नारे का आशय एक था- ‘बस, बहुत हो गया!’
‘भारत छोड़ो’ और ‘भारत जोड़ो’ में केवल ध्वनि या तुकबंदी की समानता नहीं। ऐसी तमाम वजहें हैं जो ‘भारत जोड़ो’ को ‘भारत छोड़ो 2.0’ बनाती हैं। जैसे-जैसे यह आंदोलन आगे बढ़ेगा, इसका आकार बढ़ता जाएगा। लोग इससे उसी तरह जुड़ाव महसूस करेंगे जैसा ‘भारत छोड़ो’ के वक्त हुआ था।
अगर आगे इसका भी कई भाषाओं में अनुवाद हो, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। संभव है, आने वाले समय में अंग्रेजी में यह ‘कनेक्ट इंडिया’, कन्नड़ में ‘संपर्किसलु भारत’, तमिल में ‘इन्नाइका नातु’, गुजराती में ‘देश जोड़ीशू’ के नाम से लोकप्रिय हो। एक बार फिर यह आंदोलन बेबसी और घुटन में जी रहे करोड़ों लोगों की आवाज बनने जा रहा है।
आंदोलन की भावना एक ही है- लोगों को याद दिलाना कि भारत अस्तित्व में है तो इसलिए कि इसका निर्माण एक ऐसे संविधान के आधार पर हुआ जो हमें राज्यों के संघ के रूप में परिभाषित करता है। बिल्कुल अलग सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का पालन करने, अलग-अलग धर्मों को मानने वाले और विभिन्न भाषाई पहचान वाले लोग इसलिए एक साथ रह सके क्योंकि हमने विविधता का सम्मान किया। सरल शब्दों में इन्नाईका नातु या देश जोड़ीशू आंदोलन का उद्देश्य लोगों को वापस संविधान से जोड़ना है। विभाजनकारी भावनाओं की लगातार बमबारी की वजह से यहां के लोगों और भारत के विचार में जो गहरी खाई खिंच गई है, उसे पाटना इस आंदोलन का मूल भाव है।
‘भारत छोड़ो’ की तरह ही ‘भारत जोड़ो’ आंदोलन सभी भारतीयों से जुड़ा है चाहे वे किसी भी उम्र, लिंग, जाति, धर्म और आर्थिक स्थिति के हों। यह आंदोलन वैसे भारत को पाने के लिए है जैसा वह था। यहां के लोग भारत को एक ऐसे लोकतांत्रिक, राज्यों के संघ और सभ्य देश के रूप में देखना चाहते हैं जिसका आधार एक-दूसरे के प्रति सम्मान पर टिका हो। भारत जोड़ो यात्रा उसी स्थिति को पाने के लिए है।
बिना बहुत कुछ कहे सदभावना का संदेश
महाराष्ट्र के हिंगोली जिले का कलमनूरी हाल में खबरों में रहा क्योंकि राहुल गांधी और भारत जोड़ो यात्रा का शहर में आगमन हुआ और उनलोगों ने यहां एक रात बिताई। इसके लिए कवि-उपन्यासकार श्रीकांत देशमुख और चिंतक दत्ता भगत ने ‘साहित्य दिंडी’ नाम से लेखकों के समूह का गठन किया था। दिंडी ‘वारी’ के नाम से जानी जाने वाली वार्षिक पंढरपुर तीर्थयात्रा में शामिल ‘कवियों के दल’ की युगों पुरानी परंपरा के तौर पर जाना जाता है।
उनलोगों ने मुझसे जानना चाहा था कि क्या मैं राहुल गांधी से मिलवाने में उनकी मदद कर पाऊंगा क्योंकि मैं भारत जोड़ो यात्रा के साथ सिविल सोसाइटी की बातचीत की व्यवस्था करने में शामिल हूं। यात्रा के कलमनूरी पहुंचने से पहले मैं जब वहां पहुंचा, तो मैंने पाया कि लेखक कैम्ब्रिज इंग्लिश स्कूल परिसर में इकट्ठा हैं।
राहुल गांधी के साथ हमारी बैठक दिन दो बजे तय थी। हमें एक घंटा पहले टेन्ट में पहुंचने को कहा गया था। लगभग 25 लेखकों और ऐक्टिविस्टों के ग्रुप में सबके लिए आश्चर्यचकित करने वाली बात थी कि वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं ने उनका व्यक्तिगत तौर पर स्वागत किया, उनके साथ बातचीत की और बैठक के लिए निर्धारित क्षेत्र में साथ ले गए। बैठक की जगह एक छोटे-से टेन्ट में थी और यह साफ-सुथरी और व्यवस्थित थी।
राहुल गांधी वहां निर्धारित समय पर पहुंचे। हालांकि उन्होंने सुबह 15 किलोमीटर की पदयात्रा की थी लेकिन उनके थके होने के कोई चिह्न नहीं थे। वह खुश थे। मैंने ग्रुप से उनका परिचय कराया और तीन लेखकों ने अपनी बातें संक्षेप में रखीं, उसके बाद उन्होंने पूछा कि क्या वह कुछ कह सकते हैं। वह यह जानने को उत्सुक थे कि क्या लेखक कोई ऐसा एक शब्द सोच सकते हैं जो सभी उत्पादक और कामकाजी लोगों के बारे में बता सके, ऐसा शब्द जिसमें अवमानना या अनादर का भाव न हो। इसने ‘दलित’, ‘श्रमजीवी’, ‘बहुजन’, ‘लोक/लोग’, ‘जनता’ आदि-इत्यादि-जैसे कई टर्म के शब्दार्थ-सतहों और समाजवैज्ञानिक संकेतार्थों को लेकर अच्छी-खासी बहस छेड़ दी। बातचीत के दौरान एसटी, एससी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों-जैसे ऐतिहासिक तौर पर उपयोग किए जाने वाले टर्मों तक को छुआ गया। राहुल ने कहा कि ‘कृपया विचार करें कि भारत के ऐसे बड़े बहुमत के बारे में हम किस तरह सोच सकते हैं जो उत्पादन में लगे हैं, ऐसा बहुमत जो ‘दाता है’, उन्हें ऐसा सम्मान देने के बारे में जिसे इतिहास और समाज ने उन्हें देने से इनकार कर दिया है।’
राहुल गांधी रोज-ब-रोज इस तरह के समूहों से मिलते हैं, लोगों से बात करते हैं, उनके जीवन, उनकी भावनाओं और उनके विचारों को समझने का प्रयास करते हैं, अपनी चिंताओं को उनके साथ बांटते हैं, ऐसा समाज बनाने के अपने सपने को बताते आगे बढ़ रहे हैं जो सदाशयता में रहे।
मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि भारत जोड़ो यात्रा कोई सामान्य राजनीतिक कार्य नहीं है। राहुल सिर्फ अंग्रेजी और हिन्दी बोलते हैं, कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं। फिर भी, यात्रा की अपील वह नहीं है जो यह कहती है; बिना बहुत कुछ कहे लाखों लोगों के दिल-ओ-दिमाग को झकझोरने की इसमें क्षमता है। यह सचमुच वही कहती है जो कलमनुरी में विभिन्न धार्मिक समूहों के बीच युगों पुरानी सदभावना भारत को कहती है; और यह हैः ‘कोई बात नहीं, अगर तुम हमारी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करते लेकिन मैं समय से परे हूं और जब तक भारत भारत है, मैं यहां बनी रहूंगी।’
समाज में बन गई दरारों को पाटने की यात्रा से उम्मीद
भारत जोड़ो यात्रा सभी को अभूतपूर्व रूप से सफल लग रही है। इसकी सफलता-असफलता पर चर्चा अब प्राइम टाइम टीवी का पसंदीदा शगल है। ज्यादातर एकतरफा ही हैं, फिर भी सबको एक डंडे से ‘तयशुदा’ कहकर खारिज करना उचित नहीं होगा। कम-से-कम यह समझने का प्रयास तो हो रहा है कि इसने कितना और कैसा असर डाला है । टीवी डिबेट ही नहीं, राजनीतिक हलकों में भी इसे व्याख्यायित किया जा रहा है। आम आदमी भी यह जानना चाहता है कि आखिर वह कौन-सी चीज है जो इसे एक बिलकुल नई शुरुआत के तौर पर पेश करती है।
अब इतना तो स्पष्ट है कि इसकी योजना चुनावी लाभ के लिए नहीं बनी। हिमाचल के साथ-साथ गुजरात चुनाव से यह साफ हो जाना चाहिए कि इसका प्राथमिक उद्देश्य चुनावी राजनीति नहीं था। विपक्ष को एक करना मकसद था, यह भी नहीं कह सकते। उन हवाई अटकलों पर क्या ही कहा जाए कि यह सब राहुल गांधी की राजनीतिक छवि चमकाने के लिए है। फिर भी सवाल तो है ही कि चुनाव नतीजे प्रभावित करना नहीं, तो मकसद आखिर है क्या? और अगर वाकई कोई और मकसद है तो सामने क्यों नहीं आता? यह सवाल बिना किसी दुर्भावना के जिस तरह लोगों के जहन में पैठा हुआ है, ध्यान देने की जरूरत है।
उत्तर है कि यात्रा का नाम ‘भारत जोड़ो’ (फिर से जोड़ना) ही अपने आप में मकसद बताने को पर्याप्त है? हालांकि यह साफ करना भी जरूरी है कि आखिर फिर से जोड़ने की जरूरत क्यों पड़ रही है? और अगर वाकई इसकी बहुत जरूरत है तो उस भयावहता को समझने के लिए आरएसएस और भाजपा निर्मित विखंडन की उस प्रकृति को देखना-समझना बहुत जरूरी है। हिन्दुओं और मुसलमानों (ईसाई भी) के बीच भरोसे का भारी संकट, अत्यंत अमीर और गरीब के बीच की बढ़ती खाई तो आसानी से दिखाई दे रही है। यात्रा के दौरान राहुल गांधी इसे बार-बार अपने भाषणों में रेखांकित भी करते हैं।
आरएसएस ने अलगाव पैदा करने वाले तीन और काम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह खासतौर से डिजाइन की गई ‘मानसिक दीवार’ खड़े करने जैसा है। तीन दीवारें हैं: एक, चीजों की असलियत और उनके बारे में प्रसारित जानकारी के बीच। इस विभाजन के लिए मीडिया को साधन बनाया गया है। दूसरा, कांग्रेस के जीवित और मृत नेताओं के बारे में बड़े पैमाने पर नकारात्मक प्रचार। इतिहास गवाह है कि अतीत में कभी किसी राजनीतिक दल ने अपने प्रतिद्वंद्वी दल के नेताओं को बदनाम करने के लिए न कभी इतनी ऊर्जा लगाई और न ऐसा जहर उगला। तीसरी, दीवार जो आरएसएस ने खड़ी की, वह है भारत के लोगों और उसके अतीत के बारे में। यात्रा ने पहली दो दीवारें तो सफलतापूर्वक ढाह दी हैं। तीसरी विशाल दीवार लोगों के बीच खड़ी की गई हैः उनके वैविध्यपूर्ण समुदायों, भाषाओं, संस्कृतियों और इतिहास- और कहना न होगा कि इतिहास की मनगढ़ंत व्याख्या के रूप में। आरएसएस के ‘राष्ट्रवाद’ की पूरी इमारत ‘कभी के गौरवशाली’ हिन्दू भारत के विचार पर आधारित है। वर्तमान सरकार इस विचार को पनपने के लिए हर संभव खाद-पानी दे रही है। नतीजतन, भारत अपने अतीत के बारे में जो कुछ भी जानता था, उसे यूरोपीय विद्वानों और इतिहासकारों की शैतानी साजिश के तौर पर प्रस्तुत किया जा रहा है।
यहां यह जानना दिलचस्प होगा कि हाल ही में चेन्नई में आयोजित भारतीय इतिहास कांग्रेस में इसके अध्यक्ष प्रोफेसर केसवन वेलाथुट को यह कहना पड़ा कि वाजपेयी सरकार ने भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद द्वारा प्रकाशित उन दस्तावेजों को छुपाना शुरू कर दिया था जिनमें आरएसएस की अंग्रेजी राज के साथ मिलीभगत दिखती थी।
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