भारत डोगरा का लेख: विश्व शांति की बढ़ती चिंताओं के बीच याद आते हैं अहिंसक संघर्ष के अमर सेनानी बादशाह खान

ख़ान अब्दुल ग़फ्प़फार ख़ां अपने भाई डॉ. ख़ान साहब के साथ वर्धा में गांधीजी के आश्रम में उनके साथ भी रहे थे। प्रार्थना सभाओं में होने वाले तुलसी रामायण के पाठ से वे विशेष प्रभावित हुए थे।

फोटो: सोशल मीडिया
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भारत डोगरा

जिस तरह आज विश्व अनेक हिंसक युद्धों से घायल है, उस दौर में बहुत याद आते हैं अहिंसक संघर्ष को बहुत ऊंचाईयों तक बुलंद करने वाले बादशाह ख़ान। सारी दुनिया महात्मा गांधी को अहिंसक संघर्ष के महान प्रेरक के रूप में देखती है पर बादशाह खान एक ऐसे महान इंसान थे, जिनको महात्मा गांधी ने स्वयं अपनी प्रेरणा का स्रोत माना और उनके संघर्ष-क्षेत्र की यात्रा करते हुए कहा कि यह तो मेरे लिए तीर्थयात्रा करने जैसा है।

बादशाह खान (खान अब्दुल गफ्फार खान) 1938 में दो बार गांधीजी ने सीमांत क्षेत्र की यात्रा की और खुदाई खिदमतगारों में अपने अहिंसा के सिद्धांत को फलीभूत होते देखा। अपनी पहली यात्रा में पेशावर में एक सभा को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा था - “सामान्य रूप से ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां से लोगों का लगाव अद्भुत है। यह लगाव केवल खुदाई खिदमतगारों का ही नहीं है बल्कि प्रत्येक स्त्री, पुरुष और बच्चा उन्हें जानता-पहचानता है और उन्हें प्यार करता है।” वापिस जाते हुए गांधीजी ने कहा, “मैं आपको मुबारक देता हूँ। मैं यही प्रार्थना करुंगा की सीमांत के पठान न केवल भारत को आजाद कराएं बल्कि सारे संसार को अहिंसा का अमूल्य संदेश भी पढ़ाएं।”

अक्टूबर 1938 में गांधीजी पुनः लौटे और ख़ान अब्दुल ग़फ्फार ख़ां के साथ सीमांत के कई गांवों की यात्राएं कीं। उत्तमंजई गांव में प्रमुख खुदाई खिदमतगारों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, “हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे बीच एक सच्चा, ईमानदार, ईश्वर में विश्वास रखने वाला बादशाह ख़ान जैसा व्यक्ति मौजूद है। हजारों पठान लोगों से उनके लड़ने का हथियार बदलने का करिश्मा कर दिख़ाने का श्रेय उनको जाता है।”

सीमांत से लौटकर गांधीजी ने लिखा, “ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां के बारे में दो राय नहीं कि वे खुदा के बंदे हैं। वे वर्तमान की हकीकत में विश्वास रखते हैं और जानते हैं कि उनका आंदोलन खुदा की मर्जी से फलेगा। अपने उद्देश्य को पूरा करने में वे अपनी आत्मा तक उसमें लगा देते हैं और क्या होता है उसके प्रति निरपेक्ष रहते हैं। सीमांत प्रांत मेरे लिए एक तीर्थ रहेगा, जहां मैं बार-बार जाना चाहूंगा। लगता है कि शेष भारत सच्ची अहिंसा दर्शाने में भले ही असफल हो जाए तब भी सीमांत प्रांत इस कसौटी पर खरा उतरेगा।

1946-1947 के साम्प्रदायिकता के माहौल में जब सीमांत में भी यह हिंसा पनपी- तब पेशावर में शांति कायम रखने और अल्पसंख्यक हिंदू और सिखों की रक्षा करने के लिए दस हजार खुदाई खिदमतगार सामने आए।

जब पाकिस्तान बन गया तब कुछ समय को छोड़ ख़ान अब्दुल ग़फ्फार ख़ां की अधिकांश जिंदगी पख्तूनों के हकों के लिए संघर्ष करते और जेलों के कष्ट सहते बीती। 20 जनवरी 1988 में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां की मृत्यु हो गई। ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां का सारा जीवन और खुदाई खिदमतगारों की सेवा सम्पूर्ण मानवता के बेहतर भविष्य के लिए एक ऐसी प्रेरणादायक मिसाल है जो आज के हिंसा-आतंकवाद के माहौल में और भी प्रासंगिक हो गई है।

वर्ष 1964 में भारत यात्रा के दौरान अपने संदेश में बादशाह खान ने कहा, “आजादी, जमहूरियत (लोकतंत्र) और सोशलिज्म - लोगों को नेकी, रास्ती (सत्य), खुद्दारी, (सहिष्णुता) परहेजगारी और दियानतदारी के साथ ज़िंदगी बसर करने के लवाज़मात मुहैया करने का ज़रिया है, जिसे हर शख्स अपनी मेहनत के नतीजे के तौर पर हासिल कर सके। अगर ये सब चीजें आप नहीं कर पाते तो मैं कहूंगा कि आपकी आज़ादी, जमहूरियत (लोकतंत्र) और सोशलिज्म असलियत से खाली, महज एक बेमानी नारा हैं । पश्तु जुबान का मुहावरा है- दोस्त रुलाता है और दुश्मन हंसाता है। मैंने इस मुल्क में जो कुछ कहा है और जिस तरह मैंने यहां के हालत पर अपने दुख और बेचैनी का इजहार किया है, यह इसलिए कि इस मुल्क के लोग मेरे अपने लोग हैं। और उनकी हालत मुझे बेचैन करती है और मेरी आंखे नम हो जाती हैं। मैं एक खुदाई खिदमतगार हूँ - खुदा की मखलूक (जनता) चाहे वह दुनिया के किसी भी गोशे में हो, खिदमत की मुस्तहक है। इसलिए जब कभी भी आपको मेरी खिदमत की जरूरत होगी तो आप मुझे अपने साथ पाएंगे।”


ख़ान अब्दुल ग़फ्प़फार ख़ां अपने भाई डॉ. ख़ान साहब के साथ वर्धा में गांधीजी के आश्रम में उनके साथ भी रहे थे। प्रार्थना सभाओं में होने वाले तुलसी रामायण के पाठ से वे विशेष प्रभावित हुए थे और उन्होंने प्यारेलाल से कहा था, "भजन का संगीत मेरी आत्मा में समा गया है।” प्रार्थना सभाओं में वे कई बार कुरान पढ़ा करते थे। महादेव देसाई ने उनके बारे में लिखा, “ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां की सबसे बड़ी चीज आध्यात्मिकता है, जिसने मुझे प्रभावित किया। इस्लाम का सच्चा रूप, ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण। उन्होंने इसके सहारे गांधीजी की बराबरी कर ली। उन्हें निंदा करने और पाखंड रचने से सख्त परहेज है। वह नेतृत्व का तात्पर्य बड़ी सेवा करना समझते हैं। वह ऐसे सभी कार्यक्रमों से दूर रहते हैं, जिनमें केवल शोशेबाजी होती है और सृजनात्मक कार्य नहीं होता।

गांधीजी की जन्म शताब्दी समारोह के अवसर पर जब बादशाह ख़ान भारत आए, तब 24 नवम्बर 1969 को उन्होंने संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेषण को संबोधित किया। इसी भाषण में उन्होंने कहा था, “मुद्दत से मेरी आरजू थी कि हिन्दुस्तान जाऊँ और यहां के हालात अपनी आंखों से देखूँ। मैं यह देखना चाहता था कि गांधीजी के बताए हुए रास्ते पर आप कितना चल रहे हैं। आज़ादी के बाद हिन्दुस्तान से जो उम्मीदें गांधीजी ने रखी थीं, वे पूरी हुई या नहीं। और अगर पूरी नहीं हुई हैं तो किस तरह पूरी हो सकती हैं, इसके लिए आपसे सलाह-मशविरा करूं और हिन्दुस्तान की भलाई और कल्याण का रास्ता तलाश करने में आपकी मदद करूं।”

गांधीजी की तरह ही ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां का जीवन भी अहिंसा का अमर संदेश देता है। 1985 में उन्होंने कहा था, “आज संसार किसी अजीब रास्ते की ओर चल पड़ा है। संसार हिंसा और विनाश की ओर जा रहा है। और यह हिंसा लोगों में घृणा और डर पैदा करती है। मैं अहिंसा में विश्वास रखने वाला हूँ। जब तक संसार में अहिंसा का पालन नहीं होगा तब तक कोई शांति लोगों को नहीं मिल सकती क्योंकि अहिंसा प्रेम है और यह लोगों में साहस पैदा करती है।”

1930-31 में खुदाई खिदमतगार कांग्रेस के नजदीक आए और अपनी स्वतंत्र पहचान कायम रखते हुए वे कांग्रेस के कार्यकर्ता भी बने। अप्रैल 1930 में ख़ान अब्दुल ग़फ़्फार ख़ां ने अपने गांव उत्तमंजई में लोगों का आह्वान किया कि वे नागरिक अवज्ञा आंदोलन में शामिल हों। अन्य इलाकों में जाकर ऐसी अपील करने के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी गिरफ्तारी के व्यापक विरोध के बावजूद उन्हें तीन वर्ष की सजा सुना दी गई।


इस बीच पूरे सीमांत में विस्फोटक स्थिति बन गई थी, पर स्वरूप अहिंसात्मक ही था। खुदाई खिदमतगारों को व्यापक स्तर पर गिरफ्तार किया जा रहा था। पेशावर में इन्हीं दिनों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की एक यादगार घटना घटी। अंग्रेज अफसरों के निर्देश के बावजूद गढ़वाल राइफल्स की एक पलटन ने निहत्थे-शांत लोगों पर गोलियां चलाने से इंकार कर दिया। इसके लिए उन सिपाहियों को कठोर दण्ड मिले- पर उनके साहस की सराहना आज तक होती है।

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