बांग्लादेश संकटः भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल- यूनुस के बाद कौन?

विद्रोह की अगुवाई कर रहे छात्र नेताओं का अंतरिम सरकार के मुखिया के तौर पर मोहम्मद यूनुस को चुनना इस बात का संकेत है कि आंदोलन मुल्लाओं के नियंत्रण में नहीं था। यह भी सकारात्मक संकेत है कि छात्रों के फैसले में कारोबारियों, सिविल सोसाइटी और सेना की सहमति थी।

भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल- यूनुस के बाद कौन?
भारत के लिए सबसे बड़ा सवाल- यूनुस के बाद कौन?
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आशीस रे

15 अगस्त, 1947 को जब बंगाल का विभाजन हुआ, तब शेख मुजीबुर रहमान कोलकाता में पढ़ाई कर रहे थे और एक ऐक्टिविस्ट थे। वह मूलत: पूर्वी बंगाल के रहने वाले थे जो विभाजन के बाद पूर्वी पाकिस्तान बन गया था। लिहाजा, अपनी राजनीतिक यात्रा को जारी रखने के लिए वह पूर्वी पाकिस्तान लौट गए। वहां मुजीबुर रहमान ने बंगाली संस्कृति और भाषा के संरक्षण और पूर्वी पाकिस्तान में रह रहे बंगालियों को पश्चिमी पाकिस्तानी शासकों के अत्याचारों से बचाने के लिए संघर्ष किया और अंतत: भारत की मदद से आजादी हासिल की और इस तरह बांग्लादेश को जन्म देने में अहम भूमिका निभाई।

संयोगवश, वर्ष 1975 की 15 अगस्त को ही मुजीब और उनके परिवार के कई सदस्यों की क्रूरतापूर्वक हत्या कर दी गई। शेख हसीना समेत उनकी दो बेटियां तब विदेश में होने की वजह से बच गई थीं, हालांकि उन्हें बरसों वतन से दूर रहना पड़ा। फिर भी ‘बंग बंधु’ के नाम से लोकप्रिय शेख मुजीबुर रहमान जिस भावना के लिए जाने जाते थे, उसकी लौ बुझी नहीं। बेटी शेख हसीना अंततः वापस बांग्लादेश आईं और लोकतांत्रिक तरीकों से सत्ता हासिल की। लेकिन बाद में तानाशाही प्रवृत्ति उन पर हावी हो गई और हाल ही में उन्हें बड़े अपमानजनक तरीके से देश से भाग जाना पड़ा।

तो क्या यह पूर्वी पाकिस्तान-बांग्लादेश के इतिहास में मुजीबुर रहमान परिवार का अंत है? यह सवाल मन में उठ सकता है लेकिन मौजूदा संदर्भों में यह अप्रासंगिक है। बेशक, उपमहाद्वीप की राजनीति में व्यक्ति मायने रखते हैं लेकिन अंतरराष्ट्रीय और खास तौर पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में हसीना के जाने के बाद दीर्घकाल में क्या होगा, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक यह है कि मध्यम अवधि में क्या होने वाला है। 

फिलहाल तो हसीना का जाना किसी भी दूसरे देश की तुलना में भारत के लिए बड़ा संकट है। पिछले एक दशक के दौरान नरेन्द्र मोदी और अमित शाह द्वारा बांग्लादेश के खिलाफ दिए गए तमाम बयानों के बावजूद भारत के साथ रिश्तों में हसीना के धैर्य ने बांग्लादेश को अपने पड़ोस में भारत का सबसे अच्छा दोस्त बना दिया। रानिल विक्रमसिंघे के नेतृत्व में श्रीलंका और भूटान को छोड़कर बाकी सभी पड़ोसी या तो शत्रुतापूर्ण रहे या मोदी शासन के दौरान दूर छिटक गए।


‘पीटीआई’ की रिपोर्ट के मुताबिक, विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बांग्लादेश में हाल की अशांति के पीछे ‘विदेशी सरकारों की भूमिका से इनकार नहीं किया’ है। हालांकि यह तथ्य कि विद्रोह की अगुवाई करने वाले छात्र नेताओं ने, जो जाहिर तौर पर पाकिस्तान से आजादी की लड़ाई में शामिल होने वालों के वंशजों के लिए सरकारी नौकरियों में कोटे के खिलाफ था, अंतरिम सरकार के मुखिया के रूप में मोहम्मद यूनुस को आगे किया है और यह इस बात का संकेत है कि आंदोलन मुल्लाओं के नियंत्रण में नहीं था। यह भी एक सकारात्मक संकेत है कि छात्रों के फैसले में कारोबारियों, सिविल सोसाइटी और सेना की सहमति थी। 

वर्ष 2006 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता यूनुस को निपट गरीबों के बैंकर के रूप में जाना जाता है जिन्होंने ग्रामीण बैंक के माध्यम से आर्थिक रूप से वंचित लोगों, खास तौर पर महिलाओं की मदद के लिए माइक्रोक्रेडिट का उपयोग किया। अमेरिका में वेंडरबिल्ट विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाले युनूस की कंपनी ग्रामीण टेलीकॉम बांग्लादेश की सबसे बड़ी मोबाइल फोन कंपनी ग्रामीणफोन का हिस्सा है जो नॉर्वे की कंपनी टेलीनॉर की सहायक कंपनी है। भारत के जाने-माने अर्थशास्त्री कौशिक बसु ने यूनुस के बारे में एक्स पर लिखा: ‘आधुनिक लोकतंत्र में एक नेता के तौर पर जरूरी तीन बेहतरीन खूबियां उनमें हैं- पहली, वह बदले की भावना से काम नहीं करते; दूसरी, वह सत्ता से चिपके रहने वाले नहीं हैं और जब समय आएगा, पद से हट जाएंगे और तीसरी, वह समावेशी और धर्मनिरपेक्ष हैं।’

अगर यूनुस को भारत से कोई शिकायत है तो संभवत: यह है कि नई दिल्ली ने हसीना को अपने विरोधियों, खास तौर पर उनके पिता शेख मुजीब पर उंगली उठाने की ‘हिम्मत’ करने वालों के खिलाफ कार्रवाई से नहीं रोका। यूनुस खुद भी लंबे समय से हसीना के आलोचक रहे हैं। युनूस ने खुलकर कहा कि हसीना ने अपने पिता की विरासत को प्रभावी रूप से खत्म कर दिया और इसका नतीजा यह निकला कि हसीना सरकार ने उनके खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामले ठोक दिए। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इसे ‘बांग्लादेश में मानवाधिकारों की दयनीय स्थिति का प्रतीक’ करार दिया। सौ नोबेल पुरस्कार विजेताओं ने युनूस के खिलाफ लगाए गए आरोपों को हटाने के लिए चिट्ठी भी लिखी।   

पेरिस ओलंपिक के आयोजकों के सलाहकार के रूप में काम कर रहे युनूस को अचानक खेल के मैदान से हटाकर राजनीति के मैदान में उतार दिया गया। उनके बारे में अकेली चिंता उनकी उम्र है। वह 83 साल के हैं और अपने देश की किस्मत को दिशा देने के काम में कितनी ऊर्जा लगाने की स्थिति में हैं, यह देखने की बात है। क्या उन्हें अपने नेतृत्व वाले प्रशासन को आकार देने की आजादी दी जाएगी? क्या बांग्लादेश की ताकतवर सेना जिसके विरोध प्रदर्शनों को दबाने से इनकार करने के साथ ही हसीना की किस्मत तय हो गई, युनूस के पीछे मजबूती से खड़ी होगी?


बांग्लादेश के ‘डेली स्टार’ अखबार ने संपादकीय में लिखा: ‘हसीना के पतन के बाद, हमें एक जन-समर्थक, समावेशी समाज बनाने का प्रयास करना चाहिए।’ हालांकि, बांग्लादेश इस उदारवादी सोच को ज्यादा समर्थन नहीं करता है। 2012 में अमेरिकी विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन की बांग्लादेश यात्रा से दोनों देशों के रिश्तों में गर्माहट जरूर आई थी, लेकिन धीरे-धीरे वह काफूर हो गई और हाल के वर्षों के दौरान तो हसीना के अमेरिका से रिश्ते काफी खराब हो गए थे। अमेरिका ने हसीना के साथ रिश्तों में भारत के साथ अपने रणनीतिक संबंधों और मोदी के हसीना के प्रति व्यक्तिगत झुकाव को भी नजरअंदाज कर दिया। इतना ही नहीं, इसने दक्षिणपंथी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और उसके कट्टरपंथी सहयोगी जमात-ए-इस्लामी की पीठ पर हाथ रखने का जोखिम उठाने से भी परहेज नहीं किया। 

हालांकि हसीना की अवामी लीग की विश्वसनीयता के निकट भविष्य में सुधरने की संभावना नहीं होने के बावजूद बीएनपी और जमात के बारे में कोई फैसला सुनाना जल्दबाजी होगी। ‘डेली स्टार’ ने कहा कि अवामी लीग अपनी ‘राजनीतिक मौत’ की ओर बढ़ रही है। हसीना के निरंतर हमले के कारण बीएनपी के काफी कमजोर हो जाने की अटकलें कुछ ज्यादा ही आशावादी जान पड़ती हैं। बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री 79 वर्षीय खालिदा जिया को हसीना के तख्तापलट के तुरंत बाद नजरबंदी से रिहा कर दिया गया लेकिन स्वास्थ्य कारणों से शायद उनका सक्रिय राजनीति में लौटना संभव न हो सके। लेकिन निर्वासित जीवन बिता रहे उनके बेटे तारिक रहमान ने तत्काल चुनाव की मांग करते हुए उनकी जगह ले ली है।

बीएनपी की सत्ता में वापसी निश्चित रूप से चीन-पाकिस्तान धुरी के लिए एक जीत होगी। वैसे भी, माना जाता है कि बीएनपी की भारत के बारे में कुछ आपत्तियां हैं। (वैसे, भारत के हसीना को प्राथमिकता देने के बावजूद, भारतीय राजनयिकों ने बांग्लादेश की सत्ता से इतने लंबे समय तक दूर रहने के बाद भी बीएनपी नेतृत्व के साथ संपर्क बनाए रखा।) इसके अलावा अमेरिका और यूके- दोनों का ही तारिक पर प्रभाव है। हकीकत तो यह है कि यह सुनिश्चित करने की कोशिश की जा रही है कि यह नियंत्रण आगे भी बना रहे। जिस ब्रिटेन ने जनवरी, 1972 में पाकिस्तानियों द्वारा अंतरराष्ट्रीय दबाव में मुजीबुर रहमान को रिहा किए जाने के बाद बेहिचक उन्हें सुरक्षित पनाह देने की पेशकश की थी, उसने बेटी के मामले में (अब तक) वैसा नहीं किया है। 

भारत के लिए यह राहत की बात होगी अगर यूनुस सरकार किसी राजनीतिक दल से जुड़ी न हो। अगर इसमें अवामी लीग विरोधी हस्तियां शामिल होंगी तो यह साउथ ब्लॉक के लिए चिंता की बात होगी। इसमें संदेह नहीं कि अगर विदेश सेवा के अधिकारियों को खुली छूट दी जाए तो वे इस समय उलझ गई गांठों को सुलझा लेंगे। बांग्लादेश, तीन तरफ से भारत और चौथी तरफ से बंगाल की खाड़ी से घिरा हुआ है जहां भारतीय नौसेना की प्रमुख उपस्थिति है। कह सकते हैं कि भू-राजनीतिक रूप से बांग्लादेश कुछ हद तक भारत से घिरा हुआ है। फिर भी, यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत के साथ बांग्लादेश का व्यापार कारोबार यूरोपीय संघ और चीन के साथ व्यापार से भी कम है। भारत का बांग्लादेश को निर्यात वित्त वर्ष 22 के 16.15 अरब अमेरिकी डॉलर से घटकर वित्त वर्ष 23 में 12.20 अरब अमेरिकी डॉलर रह गया।


1971 में बांग्लादेश के संयुक्त राष्ट्र में प्रवेश पर चीन द्वारा पाकिस्तान के इशारे पर वीटो करने के बाद ढाका और बीजिंग के रिश्ते लंबी दूरी तय कर चुके हैं। आज, बांग्लादेश चीनी रक्षा उपकरणों का दूसरा सबसे बड़ा खरीदार है। चीन अकेला देश है जिसके साथ बांग्लादेश का रक्षा सहयोग समझौता है। ये भारत-बांग्लादेश के बीच सौहार्द में खलल भी डालते रहे हैं। 

वह 1994 के आसपास का वक्त रहा होगा। तब हसीना विपक्ष में थीं, और यह पत्रकार सीएनएन का दक्षिण एशिया ब्यूरो प्रमुख हुआ करता था। हसीना हमें (टॉम जॉनसन, सीएनएन अध्यक्ष और मुझे) अपने निवास में ले गई थीं जहां उनके माता-पिता, भाई-बहन की बड़ी-बड़ी तस्वीरें लगी हुई थीं जिनकी हत्या कर दी गई थी। उस मुलाकात के अलावा इफ्तार या किसी भी सामाजिक समारोहों में हुई भेंट के दौरान उन्हें देखकर ऐसा नहीं लगा कि वह प्रधानमंत्री पद के लिए एक काबिल विकल्प हो सकती हैं। लेकिन उनके नेतृत्व में बांग्लादेश की जीडीपी वृद्धि और शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे के मोर्चों पर हासिल कामयाबी से यह धारणा गलत साबित हुई।

कोविड ने जरूर विकास की इस गति को बाधित किया, बेरोजगारी बढ़ी और स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों के प्रति पक्षपात (अदालतों द्वारा खारिज किए जाने के बावजूद) ने मौत की घंटी बजा दी। साफ है, जनवरी में उनका फिर से चुनाव जीतना एक मृगतृष्णा ही थी। उनके खिलाफ विद्रोह केवल नौकरी कोटे के मुद्दे पर नहीं था। यह एक गहरा जख्म था जिसे छात्रों ने कुरेद दिया। भारत को यूनुस शासन से डरने की कोई जरूरत नहीं है। युनूस को अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ का विश्वास प्राप्त है और ऐसा लगता तो नहीं कि वह चीन या पाकिस्तान के साथ गहरे ताल्लुकात रखते हैं। हमारे लिए तो सवाल बस यह है किः यूनुस के बाद कौन?

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