गंगा समेत दुनियाभर की नदियों में एंटीबायोटिक्स की भरमार, मानव स्वास्थ्य के लिए बना खतरा
एंटीबायोटिक की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने को संयुक्त राष्ट्र वर्तमान में स्वास्थ्य की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक मानता है। डब्ल्यूएचओ के अनुसार बैक्टीरिया या वाइरस पर एंटीबायोटिक के बेअसर होने के कारण दुनिया में हर साल 7 लाख से ज्यादा मौतें हो रही हैं।
इंग्लैंड स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ यॉर्क के वैज्ञानिकों के एक दल ने दुनिया के 72 देशों में बहने वाली 91 नदियों में से 711 जगहों से पानी के नमूने लेकर उसमें सबसे ज्यादा इस्तेमाल किये जाने वाले 14 एंटीबायोटिक्स की जांच की है। इसके नतीजे चौंकाने वाले हैं। लगभग 65 प्रतिशत नमूनों में एक या अनेक एंटीबायोटिक्स मिले।
इन नमूनों में से अधिकतर नमूने एशिया और अफ्रीका के देशों के थे। हालांकि, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और दक्षिण अमेरिका के देशों की नदियों में भी अपेक्षाकृत कम मात्रा में ही एंटीबायोटिक्स मिले। इससे स्पष्ट है कि दुनिया भर में नदियों के पानी में एंटीबायोटिक्स मिल रहे हैं।
दूसरी तरफ संयुक्त राष्ट्र एंटीबायोटिक्स की प्रतिरोधक क्षमता समाप्त होने को वर्तमान में स्वास्थ्य संबंधी सबसे बड़ी समस्याओं में से एक मान रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार बैक्टीरिया या वाइरस पर एंटीबायोटिक्स के बेअसर होने के कारण दुनिया में प्रतिवर्ष 7 लाख से अधिक मौतें हो रही हैं और साल 2030 तक यह संख्या 10 लाख से अधिक हो जाएगी।
इसी साल मार्च के महीने में बनारस हिन्दू विश्विद्यालय के वैज्ञानिकों ने वाराणसी में गंगा के पानी के नमूनों की जांच कर बताया कि हरेक नमूने में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया मिले। यह अंदेशा पिछले अनेक वर्षों से जताया जा रहा था, लेकिन कम ही परीक्षण किये गए। एक तरफ तो गंगा में हरिद्वार से लेकर गंगासागर तक एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया पाए गए, वहीं यमुना, कावेरी और अनेक दूसरी भारतीय नदियों की भी यही स्थिति रही। दूसरी तरफ गंगा से जुड़ी सरकारी संस्थाएं लगातार इस तथ्य को नकार रही हैं और समस्या को केवल नजरअंदाज ही नहीं कर रही हैं, बल्कि इसे बढ़ा भी रही हैं।
गंगा के पानी के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसमें बड़ी संख्या में लोग नहाते हैं और आचमन भी करते हैं। आचमन में गंगा के पानी को सीधे मुंह में डाल लेते हैं। इस प्रक्रिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी बैक्टीरिया सीधे शरीर में प्रवेश कर जाता है और अपना असर दिखाने लगता है।
दुनियाभर में एंटीबायोटिक्स का उपयोग बढ़ रहा है। मानव उपयोग के साथ-साथ पशु उद्योग और मुर्गी-पालन उद्योग में भी इसका भारी मात्रा में उपयोग किया जा रहा है। बेकार पड़े एंटीबायोटिक्स को सीधे कचरे में फेंक दिया जाता है। घरों के कचरे, एंटीबायोटिक्स उद्योग, घरेलू मल-जल, पशु और मुर्गी-पालन उद्योग के कचरे के साथ-साथ एंटीबायोटिक्स नदियों तक पहुंच रहे हैं।
इस सदी के आरंभ से ही इस समस्या की तरफ तमाम वैज्ञानिक इशारा करते रहे हैं और अब तो यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि नदियों तक एंटीबायोटिक्स के पहुंचने के कारण बड़ी संख्या में बैक्टेरिया, वाइरस और कवक इसकी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर रहे हैं और हमारे शरीर में प्रवेश कर रहे हैं।
इन सबके बीच केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नदियों के प्रदूषण को उन्हीं पैरामीटर से माप रहा है, जिनसे 1970 के दशक में मापता था। एनजीटी समय-समय पर कहता रहा है कि गंगा प्रदूषित होती जा रही है या फिर गंगा पहले से अधिक प्रदूषित हो गई है। 14 मई 2019 के फैसले में भी एनजीटी ने कहा है कि हरिद्वार से कोलकाता तक कहीं भी गंगा का पानी न तो नहाने लायक है और न ही मानव खपत लायक है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी समय-समय पर बताता है कि गंगा बहुत प्रदूषित है। सवाल यह है कि गंगा का प्रदूषण कोई देख भी रहा है या नहीं?
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) का पैमाना नदियों के प्रदूषण के लिए अजीब सा है। इसने देश भर की नदियों के अलग-अलग खंडों के उपयोग के आधार पर प्रदूषण का पैमाना बनाया है। इस उपयोग के पांच वर्ग हैं- सीधे पीने लायक, नहाने लायक, साफ कर पीने लायक, जलीय जीवन के संवर्धन के लिए और सिंचाई के लिए। इन सभी वर्ग के लिए कुल तीन या चार पैमाने हैं, जिनमें जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा, जैव-रासायनिक ऑक्सीजन मांग (बीओडी) और कॉलिफॉर्म बैक्टीरिया महत्वपूर्ण हैं।
घुलित ऑक्सीजन पानी में घुली हुई ऑक्सीजन की मात्रा है, जो जलीय जीवों के लिए बहुत जरूरी है। बीओडी वह पैमाना है, जिससे पता चलता है कि जल में मौजूद कार्बनिक प्रदूषण को नष्ट करने में कितने घुलित ऑक्सीजन की खपत होगी। नदी में बीओडी अधिक होने पर घुलित ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है। कोलिफॉर्म बैक्टीरिया वह समूह है जिसकी उपस्थिति मानव या मवेशियों के मल-मूत्र से प्रदूषण का संकेत देती है।
सीपीसीबी इन्हीं पैरामीटर के आधार पर 1970 के दशक से नदियों का प्रदूषण देख रहा है। उस समय नदियों में प्रदूषण का मुख्य स्त्रोत आबादी के बीच से निकला गंदा पानी ही था। कुछ जगहों पर उद्योग भी थे। खेतों में सिंचाई की सुविधाएं कम थीं और पर्यटन इतने बड़े पैमाने पर नहीं होता था। लेकिन धीरे-धीरे विकास ने इन सभी चीजों को बदल दिया है। खेतों में सिंचाई की सुविधाएं बढ़ने पर अब खेतों से पानी भी प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर नदियों तक पहुंचने लगा है।
उद्योगों की संख्या बेतहाशा बढ़ी है। आबादी केवल बढ़ी ही नहीं है, बल्कि हमारा पूरा जीवन तरह-तरह के रसायनों के अधीन हो गया है। सुबह से शाम तक हम लगातार रसायनों का उपयोग करते रहते हैं। अब तो रद्दी दवाएं, रसायन से बने पदार्थ और भी अनेक सामान हम नालियों में बहाने लगे हैं जो पहले बाजार में नहीं थीं।
इसके अतिरिक्त जल आपूर्ति की सुविधा ने गंदे पानी की मात्रा को बढ़ाया है। जाहिर है, आज गंदे पानी या फिर फिर नदियों में मिलने वाले नालों में जितने रसायन और हानिकारक पदार्थ हैं, वह पहले नहीं थे। आज तो एंटीबायोटिक्स और नैनो-प्लास्टिक (प्लास्टिक के बहुत बारीक टुकड़े) भी नदियों में एक बड़ी समस्या बनकर उभरे हैं।
इन सबके बाद भी सीपीसीबी आज भी 70 के दशक के पैरामीटर से नदियों में प्रदूषण देख रहा है। इसके पास नदियों के पानी में एंटीबायोटिक्स, कीटनाशकों, हेवी मेटल्स और दूसरे आधुनिक प्रदूषकों के आंकड़ें ही नहीं हैं। समस्या यहीं नहीं खत्म होती है। सीपीसीबी ने जितने ऑटोमेटिक मॉनिटरिंग उपकरण हैं, उन्हें नदियों के बीच में स्थापित किया है, जहां नदी सबसे गहरी होती है और हमेशा पानी का बहाव बना रहता है।
जाहिर है, यहां नदी सबसे साफ अवस्था में होगी। दूसरी तरफ, अगर आप नदियों के प्रदूषण को देखें तो यह हमेशा किनारे से मिलता है। नदी के उपयोग को भी देखें तो जलीय-जीवन संवर्धन को छोड़कर सभी उपयोग किनारे पर ही होते हैं, जहां सबसे अधिक प्रदूषण होता है।
यह एक आश्चर्य का विषय है कि जहां नदियों का सबसे अधिक उपयोग किया जाता है और सबसे अधिक प्रदूषण है, वहां का प्रदूषण नहीं मापा जाता। इसे मापने के समय हम सबसे साफ और बहाव वाली जगह पहुंच जाते हैं। वहां के आंकड़ों पर हम प्रदूषण का स्तर बताते हैं। इससे स्पष्ट है कि नदियों के प्रदूषण के आंकड़ों की तुलना में किनारों का प्रदूषण बहुत अधिक होगा और जब हम नदियों के किनारे जाते हैं, तब इसी प्रदूषण की चपेट में आते हैं।
सीपीसीबी के नदी प्रदूषण के आंकड़े केवल घरों से निकले प्रदूषण को बताते हैं, औद्योगिक या अन्य दूसरे प्रदूषण के बारे में नहीं। इसका कारण ये है कि जितने पैरामीटर के आधार पर नदियों का प्रदूषण बताया जाता है वे सभी सामान्य प्रदूषण ही हैं। उद्योगों के बारे में यह बताया जाता है कि कितना गंदा पानी निकल रहा है और इसमें कितना प्रदूषण है। उद्योगों से निकला प्रदूषण अधिकतर मामलों में एक लंबी यात्रा तय कर किसी नाले में मिलता है और फिर नाला लंबी दूरी तय कर नदियों में मिलता है। पानी के बहाव के साथ-साथ प्रदूषण की मात्रा कम होती जाती है। इसीलिए, उद्योगों के प्रदूषण का वास्तविक प्रभाव नदी पर क्या पड़ रहा है, वह किसी को पता नहीं चलता।
यही हालत नालों की भी है, नाले के प्रदूषण से यह बताना कठिन है कि नाला नदी पर क्या प्रभाव डाल रहा है। यही कारण है कि हमें न तो प्रदूषण की सही जानकारी मिलती है और न ही प्रदूषण कम हो पाता है। लेकिन प्रदूषण की मात्रा और गुणवत्ता लगातार बदल रही है। पहले प्रदूषण था और अब तो पानी विष हो चला है. हम नदियों को मार रहे हैं और नदियां हमें मार रही हैं।
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