दुनिया भर में निरंकुश हिंसक सत्ता का बोलबाला, हम प्रजातंत्र तो दूर, एक समाज के तौर पर भी असफल

पिछले कुछ वर्षों से दुनिया के अनेक देशों में निरंकुश और हिंसक नेता भारी जनसमर्थन के साथ सत्ता पर काबिज होते जा रहे हैं और लम्बे समय तक राज भी कर रहे हैं। राजनैतिक और सामाजिक हिंसा को जनता जायज ठहराती है और तालियां बजाती है।

दुनिया भर में निरंकुश हिंसक सत्ता का बोलबाला
दुनिया भर में निरंकुश हिंसक सत्ता का बोलबाला
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महेन्द्र पांडे

समाज शास्त्री भले ही दावा करें कि विकास के क्रम में हम हिंसा का रास्ता छोड़ते जा रहे हैं, लेकिन दुनिया में इसके ठीक विपरीत नजर आता है। पिछले कुछ वर्षों से दुनिया के अनेक देशों में निरंकुश और हिंसक नेता भारी जनसमर्थन के साथ सत्ता पर काबिज होते जा रहे हैं और लम्बे समय तक राज भी कर रहे हैं। राजनैतिक और सामाजिक हिंसा को जनता जायज ठहराती है और तालियां बजाती है। इससे प्रभावित होकर नेताओं का आचरण ही नहीं बल्कि भाषा भी हिंसक हो गई है – ऐसा पूरी दुनिया में हो रहा है।

दुनिया भर में भले ही प्रजातंत्र का राग अलापा जाता हो, पर वास्तविकता यह है कि निरंकुश राष्ट्रवादी और हिंसक सत्ता लम्बे समय तक जनता पर असर डालती है, जबकि प्रजातंत्र को जनता जल्दी ही भूल जाती है। अमेरिका जैसा विकसित और बड़ी अर्थव्यवस्था वाला देश भी इससे अछूता नहीं है। डोनाल्ड ट्रम्प पर तमाम आरोपों और मुकदमों के बाद भी उनकी लोकप्रियता कम नहीं होती, बल्कि हरेक नए आरोपों के बाद संसद भवन पर हिंसक हमले के आरोपी डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता बढ़ जाती है।

अमेरिका की शिकागो यूनिवर्सिटी का प्रोजेक्ट ऑन सिक्यूरिटी एंड थ्रेट लगभग ढाई वर्ष पहले 6 जनवरी को कैपिटल हिल यानी अमेरिकी संसद भवन पर डोनाल्ड ट्रंप समर्थकों द्वारा हिंसक हमले के बाद से लगातार अमेरिका में वयस्कों का सर्वेक्षण कर प्रजातंत्र और राजनैतिक हिंसा पर उनके विचार का आकलन कर रहा है। अप्रैल 2023 में किये गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 1 करोड़ 20 लाख अमेरिकी वयस्क या 4.4 प्रतिशत वयस्क यह मानते हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प को व्हाइट हाउस तक वापस पहुंचाने के लिए हिंसा जायज है।

प्रोजेक्ट ऑन सिक्यूरिटी एंड थ्रेट के निदेशक रोबर्ट पापे के अनुसार हिंसा का समर्थन करने वाली वयस्कों की संख्या भले ही पिछले सर्वेक्षणों की तुलना में कम हो पर यह प्रजातंत्र के लिए खतरनाक और चिंताजनक संकेत हैं। रोबर्ट पापे ने ऐलान किया है कि अब से लेकर 2024 के राष्ट्रपति चुनावों तक यह सर्वेक्षण नियमित तौर पर हरेक तीन महीने में किया जाएगा। जाहिर है, राजनैतिक हिंसा समाज की मुख्यधारा का अभिन्न अंग बन गयी है और इसे भरपूर समर्थन मिल रहा है।


इस सर्वेक्षण के अनुसार, 55 प्रतिशत वयस्क मानते हैं कि चुनावों से समाज की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होती हैं। 50 प्रतिशत वयस्कों के अनुसार, राजनैतिक लोग समाज का सबसे भ्रष्ट तबका होता है और 77 प्रतिशत लोगों का मानना है कि अमेरिका में रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों पार्टियों के सदस्यों को मिलकर भविष्य में संसद पर हमले जैसे राजनैतिक हिंसा के मामले रोकने के लिए पर्याप्त कदम उठाने से संबंधित संयुक्त आश्वासन देना चाहिए। अमेरिका में 25 प्रतिशत वयस्क मानते हैं कि अश्वेत आबादी धीरे-धीरे गोरों का वर्चस्व कम करने का प्रयास कर रही है। 14 प्रतिशत वयस्क आबादी के अनुसार उसके राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हिंसा जायज है, जबकि 6.1 वयस्कों के अनुसार ट्रंप को किसी भी सजा से बचाने के लिए हिंसा जायज है। वयस्कों के 20 प्रतिशत आबादी के अनुसार, 2020 के चुनावों में डोनाल्ड ट्रंप को हराने के लिए चुनावों में धांधली की गयी थी।

राजनैतिक हिंसा, हिंसक भाषा और हिंसा की भक्ति के मामले में सामाजिक तौर पर हम अमेरिका से कई गुना आगे पहुंच गए हैं। हम आज के दौर में ऐसे समाज में हैं जहां लकड़ी काटने के आरे से हत्या के बाद शवों को काटा जाता है, प्रेशर कूकर का उपयोग शवों के टुकडों को उबालने में, फ्रीज का उपयोग मानव शव के टूकडे रखने में किया जाने लगा है और महंगी एसयूवी गाड़ियां ह्त्या का एक औजार बन गई हैं। कारों के बोनट पर लटका कर कई किलोमीटर कार भगाई जाती है। अब तो बलात्कार और फिर ह्त्या एक सामान्य सी घटना हो चली है, जिसके समाचार रोज पढ़ने को मिलते हैं।

हमारे समाज में सोशल मीडिया पर सहायता की गुहार लगाने पर कोई नहीं आता, फ़ोन करने पर पुलिस भी समय पर नहीं पहुंचती, जबकि एक हिंसक पोस्ट पर हजारों की भीड़ मिनटों में पहुंच कर बीच सड़क पर किसी की भी ह्त्या कर देती है। हमारे प्रधानमंत्री जी बड़े गर्व से देश को प्रजातंत्र की मां बताते हैं, पर प्रजातंत्र तो दूर है, हम तो समाज के तौर पर भी असफल हो चुके हैं। सत्ता को भले ही देश में विकास दिख रहा हो, पर समाज तो लगातार कबीलाई दौर की तरफ जा रहा है, जहां कबीले के सरदार के मुंह से निकला हरेक शब्द क़ानून था और मुखिया समर्थित हिंसा ईश्वर का इन्साफ।

समाज में बढ़ती हिंसा का सबसे बड़ा कारण है, समाज को लगातार बांटने की साजिश। समाज में जितने अधिक वर्ग होंगें, हिंसा उतनी ही अधिक होगी। यही आज देश में हो रहा है- सत्ता हमें धर्म, संप्रदाय, न्याय, लिंग, शिक्षा, रोजगार, व्यवसाय, संसाधनों पर अधिकार और आर्थिक हैसियत के आधार पर विभाजित कर रही है। सरकार जितना सबका साथ सबका विकास का नारा लगाती है, समाज में उतने ही नए वर्ग उभर जाते हैं। वर्गों में बंटे समाज में हरेक वर्ग दूसरे को अपने दुश्मन के तौर पर स्वाभाविक तौर पर देखता है।


जब आप वर्ग हिंसा को जायज मानते हैं और उसका हिस्सा भी बनते हैं तब आप प्राकृतिक तौर पर हिंसक बन जाते हैं और फिर यह हिंसा केवल सामाजिक वर्ग युद्ध में ही नहीं बल्कि हरेक आचरण में समा जाती है। दशकों पहले हत्याएं केवल डकैत या फिर आपसी रंजिश के कारण लोग करते थे, पर अब तो हम इतने हत्यारे हो चुके हैं कि जिसकी ह्त्या करते हैं उसके बारे में पता भी नहीं होता कि उसने किया क्या है।

समाज के तौर पर हम इस कदर हिंसक हो चुके हैं कि वह हमारी भाषा में समा चुका है। पहले हिंसक भाषा केवल अपराधियों की होती थी और कम से कम लिखने में तो अघोषित तौर पर वर्जित थी। पर, आज के दौर में तो यह सत्ता की मातृभाषा और राजनीति की राजभाषा बन चुकी है। सत्ता के शीर्ष से लेकर सत्ता के अदने समर्थक तक बेधड़क हिंसक भाषा का उपयोग माइक और कैमरे के सामने करने लगे हैं। मारपीट, बदला लेना, अर्बन नक्सल, आतंकवादी, उग्रवादी, टुकड़े-टुकड़े गैंग जैसे शब्द तो विशेषण, उपमा और अलंकार जैसे प्रयोग किये जाने लगे हैं।

इस मामले में सत्ता में बैठे पुरुषों और महिलाओं का भेद मिट गया है। धर्म के तथाकथित ठेकेदार तो हाथों में हथियार उठाये सीधे-सीधे ह्त्या की बात भी बड़े गर्व से करते हैं। समाज इन्हीं लोगों को अपना आदर्श मानता है, जाहिर है हिंसा समाज को एक आवश्यक कार्यवाही लगने लगी है। सोशल मीडिया ने हिंसा को एक नया आयाम दिया है- जिन शब्दों को कागज़ पर लिखने से समाज संकोच करता था, वही सारे शब्द सोशल मीडिया पर लोगों ने बेधड़क और बिना संकोच लिखना शुरू कर दिया है।

इन सबके साथ ही फिल्मों, विशेष तौर पर ओटीटी प्लेटफोर्म पर चलने वाली फिल्मों ने भी हिंसा का खूब महिमामंडन किया है, और हिंसा और ह्त्या के नए तरीके सुझाए हैं। हरेक घर में अपनी पहुंच बनाने वाले टीवी समाचार चैनल तो समाज में हिंसा फैला कर और नफरत फैला कर अपना कारोबार आगे बढ़ा रहे हैं। हम भले ही हिंसा के लिए सोशल मीडिया को अधिक दोषी मानते हों, पर सच तो यह है कि सत्ता और पूंजीपतियों के शह पर चलने वाले मेनस्ट्रीम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से अधिक हिंसक और सही अर्थों में देशद्रोही और कोई नहीं है।


जब समाज में उपेक्षित और शोषित लोगों की संख्या बढ़ती है तब भी हिंसा जीवन का एक अंग बन जाता है। आज समाज में दो स्पष्ट वर्ग हैं– एक सत्ता समर्थक और दूसरा शेष आबादी का। सत्ता समर्थक बेधड़क हिंसा इसलिए करते हैं क्योंकि उन्हें क़ानून व्यवस्था की चिंता नहीं है। शेष आबादी हरेक आजादी और अधिकार से वंचित समुदाय है, जिसका सत्ता और समाज हरेक कदम पर शोषण करता है। ऐसे समुदाय में हिंसा सत्ता समर्थकों से अपनी आजादी और अधिकार वापस पाने के लिए की जाती है।

हिंसा विचारों और व्यवहार में शामिल हो जाती है और धीरे-धीरे जीवन का अभिन्न अंग बन जाती है। एक समय ऐसा भी आता है जब हम हिंसा करते हैं और पता भी नहीं चलता। हमारा समाज ऐसे ही दौर में पहुंच गया है। दुखद यह है कि सत्ता ही हिंसा को हवा दे रही है क्योंकि उसका अस्तित्व जनता के वोटों पर नहीं बल्कि हिंसा पर ही टिका है। समाज में जितनी हिंसा फ़ैल रही है, सत्ता उतना ही विकास का शोर मचाती है। सत्ता का सामाजिक हिंसा पर प्रभाव समझना हो तो चुनावों के दौर का आकलन कीजिये– नेताओं के भाषणों में हिंसा की पराकाष्ठा रहती है और इसके असर से समाज में हिंसा बढ़ जाती है।

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