मृणाल पांडे का लेखः उर्दू-हिंदी के धर्म तय करने की कोशिश का हश्र कहीं दो सिर वाले पक्षी जैसा न हो
पुराने ग्रंथ सूखे प्रवचनों की बजाय कहानियों के जरिये देश-समाज की मूल बुनावट के बारे में कई बार बहुत गहरी बात कह डालते हैं। पुराणों में दो सिर वाले पक्षी की कथा भी ऐसी ही है, जिसका एक सिर दूसरे से अकारण वैर पाल लेता है और उसे मारने में खुद भी चल बसता है।
हमारे समाज और सोशल मीडिया पर इन दिनों उर्दू को जबरन सिर्फ मुसलमानों की भाषा मनवाने और हिंदी से सभी फारसी-अरबी मूल के शब्द हटाकर उसका ‘शुद्धीकरण’ करने की एक नादान मुहिम चलाई जा रही है। उसे देख कर लेखिका को एक कहानी बेसाख्ता याद आ गई। समझदारों के लिए पुराने ग्रंथ सूखे प्रवचनों की बजाय कहानियों के माध्यम से देश-समाज की मूल बुनावट के बारे में कई बार बहुत गहरी बात कह डालते हैं। पुराणों में दो सिर वाले पक्षी की कथा भी ऐसी ही है।
इस दुर्लभ पक्षी का एक सिर दूसरे से अकारण वैर पाल बैठा और अपने दुश्मन सिर को मार डालने के लिए उसने खाना-पीना बंद कर दिया। इससे जैसी उसे उम्मीद थी, दुश्मन तो मर गया, लेकिन जल्द ही वह खुद भी चल बसा। दुश्मनी निभाते हुए वह भूल बैठा था कि सरों के बीच मतभेद भले ही हो, दोनों का शरीर तो विधाता ने एक ही बनाया था। इसलिए अगर एक सिर को उसने मार दिया, तो खुद उसका मरना भी अवश्यंभावी हो जाएगा।
भाषाएं राजनेता या व्याकरणाचार्य नहीं, आम जनता बनाती है। कबीलाई समाज एक राष्ट्र-राज्य बनते हुए जैसे-जैसे बहुरंगी, बहुधर्मी होता जाता है, उसकी भाषाई संपदा भी लगातार समृद्ध होती हुई जनता के मुख से साहित्य तक कुलांचें भरने लगती है। मानव एक सामाजिक और बातूनी जीव है। खासकर हमारे उपमहाद्वीप का।
लिहाजा उत्तर भारत में अरबी-फारसी बोलने वालों की फौजों के लिए जब आगरा, दिल्ली का इलाका छावनी बना, तो हर रोज स्थानीय खड़ी बोली ब्रज, पंजाबी, अवधी या भोजपुरी सरीखी भाषाएं उससे सहज मिलने-जुलने लगींः कभी हाट बाजार में, कभी त्योहार- मेलों की भीड़भाड़ में, तो कभी लोक संगीत गाते-सुनाते हुए। यह स्थानीय बोलियां वे थीं जिनको अमीर खुसरो ने अपने (संभवत: पहले लोकभाषा कोष) ‘खालिकबारी’ में हिंदवी और 17वीं सदी के पुर्तगाली व्यापारियों ने इंडोस्तानी (जो बाद को बिगड़कर हिंदुस्तानी बन गया) कहा।
बोलियों को भारतीय लेखक भाषा ही कहते रहे (गोस्वामी तुलसीदास ने कहा, भाषा भनतिमोर मतिथोरी, और हिंदी के नगड़दादा भारतेंदु भी कह गए, निज भाषा उन्नति अहै सबै सुखन को मूल)। भाषाओं के विपरीत क्लासिकी भाषाएं संस्कृत और फारसी आज की अंग्रेजी की ही तरह राज दरबार और राजकाज की, ठसकदार पर सीमित तबकों की भाषाएं बनी रहीं। उनकी अपनी सुघड़ (फारसी और देवनागरी) लिपियां और व्याकरण थे।
आम नागरिक खरीदारी से लोकगायन और कथावाचन तक अपना काम मुखामुखी ही चलाते थे, गंगा गए तो गंगादास, जमुना गए तो जमुनादास की तर्ज पर। बहुत हुआ तो महाजनी हुंडियों में नागरी की एक लिपि भगिनी, ‘कैथी’ सीमित तौर से बनियों की बहियों की शोभा बढ़ाती थी। उर्दू और हिंदी दोनों इसी तरह की व्यावहारिक वाचिक परंपरा के बीच बनी, पली और बढ़ी हैं।
भारत का लिखित साहित्य अक्सर हस्तलिखित होता था, और बहुत कम लोग साक्षर थे। लिहाजा नई प्रिंटिंग मशीनों के आने के सदी बाद भी छपाई और लिपि के सवालों की जकड़बंदी से देश फिरंट बना रहा। संगीत के बड़े घरानों के प्राय: अनपढ़ वाग्गेयकार-उस्ताद भी (अपने घराने की बंदिशें प्रतिद्वंद्वियों के हाथ न लग जाएं इस भय से) सीना-ब-सीना गाकर ही सिखाते थे।
बहुत हुआ तो कभी-कभार बोल कर अपने साक्षर या अर्द्धसाक्षर छात्रों से संगीत की वे बंदिशें उर्दू लिपि में लिखवा देते थे, जिनको 20वीं सदी में जाकर मराठी पंडित भातखंडे ने पहली बार नागरी लिपि में दर्ज किया। मध्यकाल और रीतिकाल के कई कवियों के साथ भी यही हुआ। उनकी कविताओं की ज्यादातर हस्तलिखित प्रतियां नागरी नहीं, उर्दू लिपि में ही उपलब्ध हैं।
मामला बढ़ा जब 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी के साहिबों ने उत्तर भारत की शिक्षा पद्धति को अपने लिए साक्षर कारकुन बनाने के लिए कसना शुरू किया। तब वुड्स नाम के साहिब ने जो रपट दी, उसके अनुसार उत्तर भारत में कंपनी ने अपनी जड़ें मजबूत कर ली थीं, किंतु राजधानी कलकत्ता होने के कारण यह भ्रांति थी कि बांग्ला भाषी बहुसंख्य हैं। सलाह हुई कि दरअसल बहुसंख्य उत्तर भारतीय, हिंदू- मुसलमान एक ही बोली (जिसे पुर्तगाली हिंदुस्तानी कहते हैं) बोलते हैं, वही भाषा स्कूली शिक्षा का माध्यम बने।
अब सवाल आया कि लिपि कौन सी अपनाई जाए? फारसी कि देवनागरी? इस पर साहिब लोगों ने कुलीन घरानों, राजे रजवाड़ों और जमींदारों से पूछताछ की, तो अधिकतर ने कहा कि फारसी चूंकि कई सदियों से राजभाषा रही है, अधिकतर साक्षर वही लिपि जानते हैं। उसी का इस्तेमाल हो। पर फिर पेंच फंसा कि एक सुधारवादी हिंदू राजा राममोहनराय ने तो अंग्रेजी, उर्दू तथा हिंदी इन तीन-तीन भाषाओं में अखबार निकाले। यानी साक्षर हिंदू-मुसलमानों की दो अलग भाषाएं हैं। जो देसी स्कूलों में पढ़ रहे हैं उनमें हिंदू बच्चों की तादाद मदरसों में फारसी पढ़ने वालों से अधिक है।
सच तो यह था कि सारे भारतीय तब बहुभाषा भाषी थे। एक हिंदू हरिहर दत्त ने ‘जाम-ए-जहांनुमा’ अखबार निकाला हुआ था, जिसके संपादक लाला सदासुख थे ।एक अन्य उर्दूअखबार (‘शम्सुल’ अखबार) भी दो हिंदू मित्र मोहनदत्त और मुनीराम ठाकुर निकाल रहे थे।
साहिब लोगों की मति चकराई कि ‘या इलाही’ ये माजरा क्या है! दरअसल उनको नेटिव भाषाओं की न तो परख थी, न ही उनका खौफ। वे 1857 के बाद हिंदू- मुसलमानों की करीबी से खुश न थे और अलगाव का पेंच फंसाने की कोशिश कर रहे थे। इस मुहिम में उनको लिपि की मार्फत नई पीढ़ी के साक्षरों के बीच सांप्रदायिक दीवारें बनाने की सूझी।
खुद वे मूलत: भारत के अंग्रेजी के प्रकाशनों पर कड़ी नजर रखते थे जिनमें छपी उनकी लालची लूट की खबरें ब्रिटेन की महारानी के कान तक पहुंचने से उनका बोरिया बिस्तर गोल हो सकता था। सो उन्होंने उर्दू में लिखी हिंदुस्तानी को मुसलमानों की भाषा और नागरी में लिखी उसी भाषा को हिंदुओं की भाषा मानकर दोनों भाषाओं के मानकीकरण का ठेका फोर्ट विलियम कॉलेज में नियुक्त अपने चार ‘भाषा मुंशियों’ को सौंप दिया। इस तरह उत्तर भारत में एक ही जनभाषा का उर्दू-हिंदी के दो नायाब सरों वाला संस्करण बनने लगा।
यहां से इस पटकथा में धार्मिक चोंगाधारी राजनीति और प्रकाशन व्यवसाय का समवेत प्रवेश होता है, जिसने जाने-अजाने दोनों सरों के बीच अग्रेजों के मंसूबों को धार दे दी। पंजाबी भाषी पंजाब में दयानंद सरस्वती ने 1875 में हिंदी में संस्कृत वेदों के संस्करण छपवा कर जाति-पांति के बंधन तोड़ते हुए जनता को अपने ‘स्व’ की पहचान देने की मुहिम शुरू की, तो उनकी भारी बिक्री ने नवल किशोर सरीखे बड़े प्रकाशन व्यवसायी को भी हिंदी किताबें छापने पर मजबूर कर दिया, गो कि वह खुद अधिकतर उर्दू किताबें ही छाप रहे थे। उधर बनारस में तीन युवा छात्रों ने नागरी प्रचारिणी सभा की नींव डालकर नागरी लिपि को बढ़ाने के काम को हरी झंडी दे दी।
पर हिंदी-उर्दू अभी भी प्रकाशन व्यवसाय की दो भुजाएं बनी रहीं। छपी किताबों में इन्हीं दो भाषाओं की सबसे अधिक बिक्री होती थी। सो दो (मराठी भाषी) हिंदू ब्राह्मणों ने हिंदी में ‘बनारस’ अखबार निकाला, तो उर्दू में ‘बनारस गजट’। इसको बनारस नरेश ने भी माली मदद दी। अब अन्य देसी रजवाड़े भी नींद से जागे। इंदौर के राजा होलकर के प्रेस से ‘मालवा’ अखबार निकला, और जयपुर से ‘राजपूताना’ अखबार जो हिंदी और उर्दू में समवेत खबरें देते थे। बनारस में ‘सुधाकर’ अखबार भी 1853 में नागरी और उर्दू दोनों में छपता रहा, जिसके संपादक पंडित रत्नेश्वर तिवारी थे।
लिहाजा यह एक भारी गलतफहमी है कि हिंदी-उर्दू में कोई पैदायशी वैर था। बात तब हद से जा बिगड़ी जब उर्दू भाषा पाकिस्तान के बनने की एक वजह उन नेताओं द्वारा बना दी गई जो अपनी निजी जिंदगी में कतई अंग्रेजीदां और भाषा विमुख थे। राजनीति की सोहबत में पड़ने के बाद हिंदी भी भारत में वोट बैंक राजनीति का मोहरा बनने लगी। उसे उत्तर भारतीय राजनेताओं द्वारा बढ़ाने के विरोध में दक्षिण भारत भड़क उठा। मामला अंतत: राजा विक्रम के वेताल की तरह वापिस डाल पर जा लटका।
उधर उर्दू की सुनिए। उर्दू को मुसलमानों की जुबान और फारसी-अरबी की संतान के बतौर नव स्वतंत्र पाकिस्तान की राजभाषा बनाने की घोषणा करने वाले पाकिस्तान बनने के बाद, वहां के प्रादेशिक राजनीति को सिंधी, पंजाबी और बलूची भाषा के नाम पर चलाते रहे नेताओं के विरोध के आगे झुक गए तो झुके ही रहे। लिहाजा आज उर्दू भी पाकिस्तान में अपनी अभिशप्त बिछुड़ी बहिन हिंदी की ही तरह राजभाषा का दर्जा नहीं पा सकी है।
हिंदी-उर्दू का यह नायाब गरुड़ जिसने हमको प्रेमचंद दिए, रतननाथ सरशार, मंटो और राजिंदर सिंह बेदी दिए। जिसने मीर, गालिब, फराज और इकबाल, घनानंद, बाबा नागार्जुन, बिहारी की सतसई और सदारंग अदारंग के नायाब खयाल दिए, आज अपनी जड़ें बेवजह मध्यकालीन धर्म और धार्मिक साहित्य में खोजता हुआ उन बोलियोंः ब्रज, अवधी, पंजाबी, हरियाणवी, मैथिली, भोजपुरी से मुंह फेर चुका है, जिन्होंने कभी गंगा-जमुना की तरह उनको सींचा था। उनसे बेहतर तो बॉलीवुड साबित हुआ है जो पार्टीशन के बाद भी दोनों तरफ की आम जनता की मिलीजुली भाषा को उसके हजारों श्रुतियों, अनुश्रुतियों समेत पकड़कर सारे एशिया को अभिभूत कर रहा है।
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