पुतिन, ऑरबन, एर्दोगन की राह पर मोदी, इसीलिए उदारवादी मूल्यों पर इतराने वाली जेएनयू-जामिया पर हमला
मोदी सरकार के लिए वैसी संस्थाओं को शक्तिहीन करना आसान था जो सीधे उसके नियंत्रण में हैं। लेकिन स्वायत्त संस्थाओं को अपनी पटरी पर लाने के लिए सरकार को कई परोक्ष रास्तों का इस्तेमाल करना पड़ा। जेएनयू, जामिया और देश की ऐसी अन्य शैक्षणिक संस्थाओं की यही कहानी है।
जेएनयू के छात्र रहे नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अभिजीत बनर्जी ने सही ही कहा कि देश की छवि को लेकर सतर्क किसी भी भारतीय के लिए 5 जनवरी को जेएनयू में हुई घटनाएं चिंता पैदा करने वाली हैं। इनमें कई सारी ऐसी प्रतिध्वनियां हैं जब जर्मनी नाजी शासन की ओर बढ़ रहा था।
यहां ध्यान रहे, अभिजीत कोई मोदी-विरोधी वामपंथी नहीं हैं। अभी कुछ ही हफ्ते पहले नोबेल सम्मान प्राप्त करने के बाद उन्होंने मीडिया से कहा था कि वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रबंधन में भारत की खुशहाली चाहते हैं। लेकिन पिछले चार हफ्तों में हुई घटनाओं से ही वह इतनी गहरी पीड़ा में आ गए हैं कि उन्हें बिना लाग-लपेट यह कहने में कोई हिचक नहीं हुई कि मोदी का भारत हिटलर की जर्मनी में बदल रहा है। जो अपने को राष्ट्रभक्त भारतीय कहते हैं, उनके लिए यह खतरे की घंटी नहीं होनी चाहिए?
5 जनवरी को निहत्थे छात्रों और शिक्षकों पर हुए हिंसक हमलों पर जेएनयू के विद्यार्थी रहे अन्य महत्वपूर्ण लोगों ने किस तरह की प्रतिक्रिया दी है ? केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और विदेश मंत्री एस जयशंकर ने साफ-साफ शब्दों में इस हिंसा की निंदा की। इस खयाल से, यह सकारात्मक है क्योंकि दोनों पिछले कई महीनों में उस विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के साथ हुई दुखद घटनाओं के मूक दर्शक रहे हैं, जहां के वे छात्र रहे हैं। अब जबकि उन्होंने चुप्पी तोड़ दी है, तो क्या वे बोलेंगे और पूछेंगे कि जामिया कैंपस में कथित उपद्रवकारियों को पकड़ने के लिए घुस जाने वाली दिल्ली पुलिस तब जेएनयू परिसर में क्यों नहीं गई, जब नकाबपोश दंगाई छात्रों और शिक्षकों पर जानलेवा हमले कर रहे थे? वे इसका जवाब जानते हैंः जामिया में तथाकथित दंगाई सरकार के खिलाफ गुस्से में थे जबकि जेएनयू में वास्तविक दंगाई सरकार द्वारा प्रायोजित थे।
जब हम जेएनयू में छात्र थे, तब सीतारमण मेरी समकालीन थीं, जबकि जयशंकर कुछ साल सीनियर थे। अपने तार्किक, आलोचनात्मक विचार वाले, गौरवशाली भारतीय के तौर पर हम इतराते थे। हमें अपने लोकतांत्रिक संविधान पर गौरव था। हम भारत को समावेशी और समृद्ध बनाने को लालायित थे। हिंसा हमारी संस्कृति के लिए अभिशाप थी।
मैं तटीय उड़ीसा के शहर से जेएनयू आया था। तब उस शहर में सभी पार्टियों- जनसंघ, कांग्रेस, सीपीआई और सीपीएम जैसी लेफ्ट पार्टियों तक के छात्र संगठन हिंसक गिरोह थे। वहां हिंसा छात्र राजनीति का अभिन्न अंग था। मेरे लिए जेएनयू की आबोहवा बिल्कुल ताजा हवा की तरह थी। जेएनयू अपने आप में एक द्वीप की तरह था। इसके खेल के अपने नियम थे, ऐसे नियम जिस पर देश के अन्य हिस्से रश्क करते थे। लेकिन जेएनयू में शुरुआती दिनों में ही मैंने वहां कंपन महसूस किया।
एक शाम की बात है। खबर फैली कि कैंपस के उदारवादी छात्र संगठन- फ्री थिंकर्स, के दो कार्यकर्ताओं पर कैंपस में ही सड़क पार करते समय एसएफआई के चार सदस्यों ने हमला कर दिया है। चोट ज्यादा नहीं लगी थी। लेकिन यही बात गहरी उत्तेजना का कारण बना कि एसएफआई कार्यकर्ताओं ने फ्री थिंकर्स वालों पर हाॅकी स्टिक्स से हमला किया। बड़ी संख्या में छात्र उपकुलपति के पास गए और उन्होंने चारों छात्रों के निलंबन की मांग की। उपकुलपति ने हस्तक्षेप किया। चारों ने बिना शर्त माफी मांगी और मामला शांत हुआ। जिन दो लोगों पर हमला हुआ, उनमें से एक अब देश के जाने-माने खेल पत्रकार हैं और जिन लोगों ने हमला किया, उनमें से एक अभी बड़े विद्वान, लेखक और एक्टिविस्ट हैं।
कभी-कभार होने वाले इस तरह के मामूली लड़ाई-झगड़े भी अपवाद ही थे। जेएनयू में होने वाली राजनीतिक बहसें काफी उत्तेजक होती थीं, लेकिन इसमें कभी भी घूंसेबाजी नहीं हुई। यहां तक कि बाता-बाती बहुत आक्रामक होने के बावजूद उसने सामान्य शिष्टाचार की हदें कभी पार नहीं कीं। हम जिस जेएनयू की संस्कृति को जानते थे, उसे बनाने में छात्रों और शिक्षकों के साथ उपकुलपतियों का भी अच्छा-खासा योगदान था। इनमें पहले उपकुलपति जी पार्थसारथी को इसका बहुत कुछ श्रेय जाता है, जिन्होंने परिसर की लोकतांत्रिक संस्कृति की आधारशिला रखने में महती भूमिका निभाई।एसएफआई के प्रकाश करात और फ्री थिंकर्स के आनंद कुमार ने छात्र संघ बनने पर छात्रों की भागीदारी के नियम बनाने में अपनी भूमिकाएं निभाईं। दोनों बारी-बारी से छात्र संघ के अध्यक्ष बने और एक-दूसरे को चुनाव में हराया भी।
यही इस बात को गलत ठहराता है कि जेएनयू शुरू से वामपंथियों का अड्डा रहा है। करात कम्युनिस्ट थे, जबकि कुमार समाजवादी थे जिन्होंने कम्युनिस्ट विचारधारा के हठधर्मी रुख के खिलाफ रहे छात्रों के बीच अपनी पहचान बनाई। बाद के दिनों में अध्यक्ष बने- लेफ्ट के डीपी त्रिपाठी या सीताराम येचुरी, फ्री थिंकर्स के डेविड थाॅमस और अमिय चंद्रा, वाम विचार वाले निर्दलीय अमित सेनगुप्ता या अतिवादी लेफ्ट संगठन- आइसा के चंद्रशेखर, सभी ने कैंपस की लोकतांत्रिक संस्कृति बनाए रखने में काम किए।
मैं 1982-83 में जब अध्यक्ष पद का उम्मीदवार था, मेरे प्रतिद्वंद्वी एसएफआई के सी जयराज मेरे अच्छे मित्र थे। एनएसयूआई के अध्यक्ष पद के उम्मीदवार प्रभाकर परकाला भी उसी तरह मेरे दोस्त थे। प्रभाकर अब केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के पति हैं। उस वक्त जेएनयू परिसर के विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष आदित्य झा भी काफी हंसमुख दोस्त थे। हम सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे के खिलाफ आग उगलते थे लेकिन वहां से उतरकर हाथ मिलाते थे और साथ बैठकर चाय पीते थे, ब्रेड-ऑमलेट खाते थे। यह बात आज गायब है। प्रतिद्वंद्वी छात्र संगठन आज विरोधियों के अतिरिक्त अन्य किसी रूप में आमने-सामने बैठने को राजी ही नहीं हैं।
तर्क-वितर्क के ऐसे दिन खत्म हो जाने का दूसरा कारण एकेडमिक स्तरों में आई कमी है। हमारे समय में सभी विभागों में अधिकतर शिक्षक अपनी विशेषज्ञता के क्षेत्र में सर्वोत्तम थे। यह रोमांचक एकेडमिक वातावरण पैदा करता था। लेकिन बाद के वर्षों में एकेडमिक स्तर में साफ तौर पर गिरावट आई है। जेएनयू के सबसे अच्छे शिक्षकों में से कई अपनी विचारधारा या अन्य कारणों से दूसरे दर्जे के हैं। जब एकेडमिक स्तर पिछड़ा हो और विद्यार्थी बड़े विचारों को लेकर लालायित न हों, तो बाहुबल दिमाग की जगह ले लेता है। जेएनयू में आज यही हो रहा है।
लेकिन जेएनयू का अपना चरित्र खो देने की उससे भी बड़ी वजह यह है कि सरकार फरमाबरदारी और समर्पण जबरिया लागू करने और जेएनयू के स्वतंत्र तथा आलोचनात्मक सोच-विचार को नेस्तनाबूद करने पर तुली हुई है। अपने शुरुआती दिनों से ही विश्वविद्यालय, कुल मिलाकर, व्यवस्था विरोधी रहा है। जब तक सरकार ने इसमें अपनी नाक नहीं घुसेड़ी, स्थिति ऐसी ही रही। यहां तक कि इसकी स्थापना करने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी भी जेएनयू के लिए भिन्न राय रखती थीं क्योंकि वह यकीन करती थीं कि आलोचनात्मक विचार विश्वविद्यालय के सार्वजनिक विचार-विमर्श का अभिन्न अंग हैं।
लेकिन स्थितियां 2014 से बदलना शुरू हुईं जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आई। शैक्षिक संस्थाओं समेत जीवन के हर क्षेत्र में सत्ता की फरमाबरदारी सुनिश्चित करना सरकार का प्रमुख सिद्धांत बन गया। सरकार के लिए वैसी संस्थाओं को शक्तिहीन कर देना आसान था जो सीधे उसके नियंत्रण में हैं। लेकिन स्वायत्त संस्थाओं को अपनी पटरी पर लाने के लिए सरकार को कई परोक्ष रास्तों का इस्तेमाल करना पड़ा। केंद्र सरकार के ग्रांट पर चलने वाले सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को कोप का भाजन बनना पड़ा। अपनी विचार प्रक्रियाओं की रचना में सरकार के अधिकार को ठुकराने वाली संस्थाओं को इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। जेएनयू, जामिया और इन जैसे देश की अन्य शैक्षणिक संस्थाओं की यही कहानी है।
लेकिन यह खतरनाक ट्रेन्ड है। लेकिन सिर्फ मोदी का इंडिया ही ऐसा नहीं कर रहा। पूरी दुनिया की दक्षिणपंथी, दबंग सरकारें यही कर रही हैं। वे विश्वविद्यालयों का विचारधारात्मक हथियारों के रूप में दमन कर रही हैं। अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए, रूस के पुतिन, हंगरी के विक्टर ऑरबन और तुर्की के एर्दोगन रोल माॅडल हैं। इनकी तरह हमारे प्रधानमंत्री भी मानते हैं कि उदारवादी सेकुलर मूल्यों की जगह राष्ट्रवादी मूल्य ही विश्वविद्यालयी शिक्षा की आधारशिला हैं। इसलिए आश्चर्य नहीं है कि सेकुलर और उदारवादी मूल्यों को धारण करने और इन पर इतराने वाली जेएनयू और जामिया राष्ट्रवादी मिशन के निशाने पर हैं।
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