राहुल गांधी ने 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही देश में घुलते सांप्रदायिक जहर को लेकर किया था आगाह, आज हो रहा सच साबित

2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो राहुल को निशाना बनाने के इस अभियान ने सारी हदें पार कर दी हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तो बात ही छोड़िए, भारत के उपराष्ट्रपति भी इस भौंडे खेल में शामिल हो गए।

फोटो: सोशल मीडिया
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अरुण शर्मा

राहुल गांधी शारीरिक और बौद्धिक हिंसा के बीच बड़े हुए हैं। शारीरिक हिंसा का जन्म राजनीतिक सवालों का हल आतंकवाद के रास्ते से खोजने से हुआ। राहुल गांधी की दादी इंदिरा गांधी उन हत्यारों की गोलियों का निशाना बनीं जो उनके बॉडीगार्ड भी थे। यह उस महान महिला के खिलाफ क्रूर विश्वासघात था, जिन्होंने मजहब के आधार पर अपने बॉडीगार्ड को बदलने की सलाह को मानने से इनकार कर दिया था। तब राहुल महज 14 साल के थे। अपनी दादी को खो देने के लिहाज से यह बहुत छोटी उम्र थी। वह दादी जो देश का नेतृत्व करने के अपने व्यस्त काम से फुर्सत निकालकर राहुल को कहानियां सुनाना नहीं भूलती थीं। राहुल ने उस दौरान कैसा महसूस किया होगा, उसे इंदिरा गांधी के अंतिम संस्कार के दौरान राजीव गांधी की उस तस्वीर से समझा जा सकता है, जिसमें उन्हें सुबकते राहुल गांधी को संभालते देखा जा सकता है।

उस घटना के महज सात साल बाद 1991 की 21 मई को राहुल ने अपने पिता राजीव गांधी को भी खो दिया, जिन्हें तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में चुनावी सभा के दौरान लिट्टे के आतंकवादियों ने मार डाला। इस बार भी वजह वही थी- सियासी मकसद को पूरा करने के लिए आतंकवाद का रास्ता अपनाना। इस बार बहन प्रियंका और मां सोनिया गांधी के अलावा उन्हें ढांढस बंधाने वाला कोई नहीं था। इंदिरा और राजीव गांधी की हत्याएं देश के लिए इन महान नेताओं द्वारा किए गए सर्वोच्च बलिदान के उदाहरण थे। लेकिन ये व्यक्तिगत त्रासदियां भी थीं जिन्हें परिवार को सहन करना पड़ा।

बदला लेने की अंधी सोच की कोई सीमा नहीं होती। बड़ा सवाल यह था कि क्या अगला निशाना युवा राहुल होंगे? गांधी परिवार पर तब भी आतंक का साया छाया हुआ था। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव ने सही फैसला किया और सोनिया गांधी, राहुल और प्रियंका को एसपीजी सुरक्षा दी गई। सुरक्षा कारणों से बच्चों को घर पर ही पढ़ाया गया।

यह शारीरिक हिंसा है, लेकिन इससे कहीं क्रूर और निंदनीय है बौद्धिक हिंसा जिसमें उनके राजनीतिक विरोधियों बीजेपी, आरएसएस और उनकी ट्रोल सेना राहुल के चरित्र हनन का अभियान चलाती है। यह निहायत अफसोस की बात है कि राहुल गांधी पर छींटाकशी का अभियान तभी शुरू हो गया था जब वह महज 10 साल के थे। सत्तर के दशक के अंत में जनता पार्टी के एक नेता जो विलय से पहले जनसंघ में थे, ने एक जनसभा में टिप्पणी की- ‘युवाओं के नेता संजय गांधी और बच्चों के नेता राहुल गांधी’।


2004 में राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में प्रवेश करते हैं और उसके बाद बीजेपी/ आरएसएस की ओर से उनपर हमले बेहद तीखे और अपमानजनक हो जाते हैं। उन्हें अपरिपक्व, नौसिखिए और एक बच्चे के रूप में दिखाने के लगातार प्रयास किए गए। उनके लिए अपमानजनक संबोधन ‘पप्पू’ गढ़ा गया। जाहिर है, इसका मकसद उनके व्यक्ततित्व को चोट पहुंचाना और बीजेपी के संभावित प्रतिद्वंद्वी के रूप में उन्हें खत्म करना और उन्हें राजनीति में महत्वहीन बनाना था।

2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो राहुल को निशाना बनाने के इस अभियान ने सारी हदें पार कर दी हैं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह की तो बात ही छोड़िए, भारत के उपराष्ट्रपति भी इस भौंडे खेल में शामिल हो गए। यह अफसोस की बात है कि मोदी ने पिछले आठ वर्षों के दौरान अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के लिए हर तरह की आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया है। इनमें से तमाम तो इतने घटिया हैं कि उन्हें छापा भी नहीं जा सकता। राहुल पर इन लोगों की टिप्पणियां जितनी घटिया रही हैं, वह सबको पता है। इस देश के लोगों ने देखा है कि देश को चलाने वाले लोग कितने घटिया हैं और उन्होंने हमारी सार्वजनिक बोलचाल को कितने निचले स्तर पर पहुंचा दिया है। उनके ‘मानकों’ के लिहाज से राहुल और उनके परिवार के लिए जो सबसे कम आपत्तिजनक बातें कही गईं, वे ही कान में पिघले शीशे की तरह उतरने वाले हैं। नरेंद्र मोदी का राहुल के पिता स्वर्गीय राजीव गांधी को ‘भ्रष्टाचारी’ कहकर बुलाने; मजाक में राहुल को ‘शहजादा’ कहकर संबोधित करने जैसे तमाम उदाहरण मिल जाएंगे। मैंने यह गौर किया है कि अमित शाह हमेशा मजाक में राहुल गांधी को ‘राहुल बाबा’ कहकर पुकारते हैं। क्या यह अमित शाह से नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर वह विपक्ष के एक सम्ममानित नेता के बारे में इस तरह की बातें कैसे कर सकते हैं?

जैसे इतना ही काफी नहीं था, देश के दूसरे सर्वोच्च संवैधानिक पद उपराष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठे वेंकैया नायडू ने संसद में राहुल गांधी को ‘पप्पू’ कहकर संबोधित किया। यह राहुल का इतना बड़ा अपमान नहीं है जितना कि देश की सर्वोच्च संस्था की गरिमा का है जिसे मोदी अक्सर मंदिर कहते हैं।

अगर इस तरह का व्यवहार किसी आम आदमी के साथ किया गया होता तो वह इस तरह टूट चुका होता कि दोबारा खड़ा भी न हो सके, लेकिन राहुल गांधी ऐसे नहीं। विपक्ष उनके हौसले को तोड़ने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हुआ है। इससे राहुल ने न तो अपना आपा खोया और न ही अपनी विचारों की स्पष्टता। राहुल बार-बार कहते रहे कि बीजेपी जिस सांप्रदायिक आग को हवा दे रही है, वह देश के लिए बहुत बुरा है। जिसके लिए उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष बनते ही 2017 में देश को आगाह कर दिया था, आज सही साबित हो रहा है।

राहुल गांधी कितनी मजबूत शख्ससियत के मालिक हैं, इसका अंदाजा लगाने के लिए उनकी तुलना मोदी से कर लें। मोदी 2007 में करण थापर को साक्षात्कार दे रहे थे। यह रिकॉर्ड में है कि गुजरात दंगों से जुड़े एक सवाल से मोदी बुरी तरह असहज हो गए और वह इतना साफ था कि वह एक गिलास पानी के लिए कमरे से बाहर जाना चाह रहे थे जब कि पानी का गिलास उनके सामने ही पड़ा था। कहानी का मूल भाव है: दूसरों के साथ वैसा ही बर्तताव करें जैसा आप चाहते हैं कि वे आपके साथ करें।

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