खरी-खरी: हम भी चल पड़े पाकिस्तान के रास्ते, सोचना होगा कहां पहुंचेंगे

तानाशाह खुद को भगवान से कम नहीं समझते हैं। कोई भगवान से सवाल करने की जुर्रत करे, तो उस पर तानाशाह का कोप टूट पड़ता है। राहुल गांधी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है।

फोटो : विपिन
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ज़फ़र आग़ा

सन 1979 में जब पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो का तख्ता पलट कर जनरल जिया उल हक ने फौजी तानाशाही लगा दी और देश में धार्मिक राजनीति का डंका बज उठा, तो प्रसिद्ध कवि हबीब जालिब ने एक कविता लिखी। उस कविता का पहला शेर थाः  

तुम से पहले वो जो इक शख्स यहां तख्तनशीं था 

उसको भी अपने खुदा होने का इतना ही यकीं था। 

शायद ही तानाशाह की मानसिकता पर इससे अच्छी कोई बात और कही गई हो। तानाशाह अपने को किसी भगवान से कम नहीं समझते हैं। भला कोई भगवान से सवाल करे, यह तो संभव ही नहीं है। यदि कोई सवाल करने की जुर्रत करे, तो फिर तानाशाह का सारा कोप उस पर टूट पड़ता है। नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच इस समय जो कुछ चल रहा है, वह ऐसा ही है। देश में नरेंद्र मोदी का डंका बज रहा है। उनके आगे अब संविधान भी छोटा पड़ रहा है। ऐसे में यदि वह अपने को भगवान समझने लगें, तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। 

लेकिन इस मानसिक स्थिति में राहुल गांधी ने मोदी से लोकसभा पटल से एक सवाल पूछ लिया। सवाल भी यह कि 'मोदी जी अडानी से आपके क्या संबंध हैं और उनकी शेल कंपनियों में 20 हजार करोड़ रुपये की रकम कहां से आई?'

राहुल गांधी ने भला सवाल करने की जुर्रत कैसे की? बस, उन पर सरकार का कोप टूट पड़ा। पहले लोकसभा की कार्यवाही से उनका वह भाषण हटा दिया गया जिसमें उन्होंने सवाल खड़े किए थे। फिर सूरत की एक अदालत ने एक मामले में उनको सजा सुना दी और फिर उनकी लोकसभा सदस्यता आनन-फानन समाप्त कर दी गई। अब उनको घर से बेघर किया जा रहा है।

राहुल गांधी का ‘गुनाह’ केवल इतना है कि उन्होंने प्रधानमंत्री से सवाल कर लिया। भला किसी भगवान से कोई सवाल करता है। लेकिन क्या कीजिए, लोकतंत्र चलता ही सवालों के आधार पर है। अब यह पाठक स्वयं तय करें कि इस समय भारत में तानाशाही का चलन है अथवा सही मायनों में लोकतंत्र अभी भी चल रहा है? 

भारत में अभी भी एक जनता द्वारा चुनी हुई सरकार सत्ता में है। लेकिन इस सरकार से किसी प्रकार का सवाल करना गुनाह है। यह इस बात का लक्षण है कि देश में लोकतंत्र पर काले बादल छाए हुए हैं। इसी के साथ एक बात और तय है कि गांधी परिवार, विशेष रूप से राहुल गांधी पर अभी और क्या-क्या आफत टूटे, यह कहना तनिक कठिन है। कारण यह है कि राहुल गांधी ने लोकसभा की सदस्यता खोने के बाद यह ऐलान कर दिया कि वह सवाल पूछते रहेंगे। और उनका सवाल वही है जो उन्होंने लोकसभा पटल से पूछा था। वह जानना चाहते हैं कि मोदी-अडानी के बीच क्या संबंध हैं।


यह तीखा सवाल है। सत्ता पक्ष एवं उसके नेता इस सवाल का जवाब नहीं दे सकते हैं। तभी तो यह बौखलाहट है। जब कोई सत्ता की चरम सीमा पर हो और उसका प्रतिद्वंद्वी उससे तीखे सवाल पूछ ले, तो फिर आफत तो आनी ही है। राहुल गांधी पर अब यही आफत आन पड़ी है। लेकिन यह आफत केवल राहुल गांधी की नहीं है। यह समस्या तो भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली की समस्या है। क्योंकि यदि सरकार से सवाल पूछना ही गुनाह ठहरा, तो लोकसभा एवं राज्यसभा का क्या महत्व? केवल इतना ही नहीं, फिर तो चुनावी रैलियों में सरकार से सवाल पूछने पर भी नेता जेल जा सकते हैं। ऐसे डर के माहौल में चुनाव प्रणाली भी कुछ ऐसी हो सकती है जैसी कि अरब देशों में होती है। देखिए, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब आगे-आगे होता है क्या?

लेकिन परिस्थितियां जब ऐसी हों, तो शासक वर्ग से गलतियां भी होती हैं। सत्ता पक्ष की ओर से राहुल गांधी पर जो आफत टूटी है, उससे बीजेपी को दो बड़े धक्के भी लगे हैं। पहला यह कि वह राहुल गांधी जिसको पिछले आठ वर्षों में ‘पप्पू’ बनाने के लिए लाखों करोड़ रुपये खर्च किए गए, वही राहुल गांधी अब विपक्ष के सबसे बड़े नेता हैं। दूसरा, बीजेपी के लिए चिंता की बात यह है कि वह विपक्षी एकता जो कुछ सप्ताह पूर्व तक एक सपना थी, अब वह सपना साकार हो चुका है। देश का लगभग पूरा विपक्ष इस समय एकजुट है। यह लगभग तय है कि अब इनमें से अधिकांश दल कांग्रेस के नेतृत्व में अगला लोकसभा चुनाव मिलजुल कर लड़ेंगे। यह बीजेपी के लिए बुरी खबर है। 

इसी के साथ-साथ एक बात और तय हो चुकी है और वह यह कि अब सरकार से सवाल तो सदन के भीतर ही नहीं बल्कि सड़कों पर भी पूछे जाएंगे। अर्थात सरकार ने विपक्ष के लिए सड़क की राजनीति के अतिरिक्त कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है। इसलिए अब सड़कों पर संघर्ष की राजनीति होगी। यह भी संभव है कि कुछ समय बाद पूरा विपक्ष सदन से त्यागपत्र देकर केवल सड़कों पर सरकार का विरोध करे।  

लेकिन अपनी ‘खुदाई’ पर यकीन करने वाले शासक अपना विरोध सहन नहीं कर सकते हैं। साफ है कि देश में दमन बढ़ेगा। फिर घूम-फिरकर बात वही पाकिस्तान तक पहुंच गई। जैसे जनरल जिया उल हक ने भुट्टो का तख्ता पलट कर देश में दमन की राजनीति का कोप चला दिया, वैसा ही कुछ अब भारत में हो सकता है। वहां तानाशाही कोप का निशाना भुट्टो परिवार था, यहां गांधी परिवार निशाने पर होगा। जैसे पाकिस्तान में दमन की राजनीति को न्यायसंगत ठहराने के लिए वहां पर इस्लाम धर्म की रणनीति अपनाई गई, वैसे ही भारत में हिन्दुत्व की रणनीति और तेज हो जाएगी। निष्कर्ष यह कि भारत भी पाकिस्तान के रास्ते पर चल पड़ा है। यह देश एवं देश की जनता के लिए चिंताजनक समय है। 


सच तो यह है कि भारतीय राजनीति का पाकिस्तानीकरण सन 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के साथ ही आरंभ हो चुका था। यह बात उसी समय एक पाकिस्तानी कवि फ़हमीदा रियाज़ ने महसूस की और अपनी कविता ‘तुम बिल्कुल हम जैसे निकले’ में व्यक्त कर दी थी। दुखद बात यह है कि इस राजनीति का अंत विनाश ही होता है। पाकिस्तान में जो हो रहा है, सबके सामने है। हमारा क्या होगा, यह तो समय ही बताएगा।

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