मोदी सरकार की एक और योजना जुमला साबित, बंद होने के कगार पर है फसल बीमा योजना

मोदी सरकार को पता है कि अनिवार्यता की शर्त खत्म होते ही किसान फसल बीमा लेना बंद कर देंगे। चूंकि राज्यों की आर्थिक दशा इतनी मजबूत नहीं कि वे किसानों के बीमा की किस्त भर दें। ऐसे में योजना के फेल होने पर बीजेपी राज्यों को दोषी ठहराकर अपना पीछा छुड़ा लेगी।

फोटोः सोशल मीडिया
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एस राहुल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक और योजना जुमला साबित हुई है। किसानों को फसल के नुकसान की भरपाई के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना बंद होने के कगार पर है। केंद्र की मोदी सरकार ने इस योजना से हाथ खींचने शुरू कर दिए हैं और किसानों को राज्यों और बीमा कंपनियों के भरोसे छोड़ दिया है।

उल्लेखनीय है कि पिछले सप्ताह हुई मंत्रिमंडल की बैठक के बाद एक खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई बैठक में किसानों को राहत देते हुए फैसला लिया गया कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को ऐच्छिक बना दिया गया है। पहले उन किसानों को फसल बीमा में शामिल होना अनिवार्य था, जिन्होंने सरकार की किसी भी योजना या बैंकों से लोन लिया हुआ हो। अब सरकार ने यह शर्त हटा दी है। इसे किसान संगठन अपनी जीत बता रहे थे, लेकिन इसके साथ ही एक और निर्णय भी लिया गया था, जिसकी चर्चा नहीं हुई।

दरअसल, अब तक बीमा कंपनियों को जब प्रीमियम भरा जाता है तो किसान को केवल दो फीसदी भरना होता है, शेष 98 फीसदी प्रीमियम केंद्र और राज्य सरकारें आधा-आधा भरती थीं, लेकिन अब 19 फरवरी को हुई मंत्रिमंडल की बैठक में निर्णय लिया गया कि केंद्र सरकार सिंचित क्षेत्र में 25 फीसदी और गैर सिंचित क्षेत्र में 30 फीसदी बीमा प्रीमियम का भुगतान करेगी। तो शेष प्रीमियम का भुगतान कौन करेगा?

जब यह मुद्दा कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने उठाया कि केंद्र के हिस्से का 25 फीसदी प्रीमियम भी किसान को भरना पड़ेगा तो इसके जवाब में कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी का बयान जारी कर दिया गया कि किसानों से प्रीमियम राशि नहीं भरवाई जाएगी। इस मामले में कृषि मंत्री ने बयान क्यों नहीं दिया, इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि केंद्र सरकार इसे कितनी गंभीरता से ले रही है और आखिर चल क्या रहा है।

मंत्रिमंडल की बैठक के बाद से लेकर अब तक सरकार की ओर से राज्यों को कोई स्पष्ट निर्देश जारी नहीं किए गए, लेकिन मंत्रालय के सूत्र इतना तो तय मान रहे हैं कि केंद्र सरकार चाहती है कि राज्य सरकारें 70 से 75 फीसदी प्रीमियम का भुगतान करें। हालांकि, ऐसा नहीं लगता कि राज्य सरकारें इसके लिए तैयार हो जाएंगी। हाल ही में हरियाणा ने अपने बजट में इस आशय के संकेत दे दिए हैं।


हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में सरकार बनी है। यहां के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा है कि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत अब ट्रस्ट मॉडल को अपनाया जाएगा। इसका मतलब साफ है कि हरियाणा सरकार फसल बीमा योजना से अपना पिंड छुड़ा रही है। फिलहाल सरकार ने बीमा का प्रीमियम मुख्यमंत्री परिवार समृद्धि योजना की राशि से भरने का निर्णय लिया है। मुख्यमंत्री परिवार समृद्धि योजना के ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) परिवारों (जिनकी आमदनी 1.80 लाख सालाना हो), दो हेक्टेयर तक की भूमि जोत वाले किसानों के लिए प्रत्येक परिवार 6000 रुपये सालाना दिए जाते हैं, जिसका उपयोग पेंशन और बीमा के लिए किया जाता है, लेकिन यदि प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के लिए इस मद से पैसा निकाला जाता है तो जाहिर सी बात है कि अन्य वर्ग को इस योजना का कम लाभ मिलेगा।

दरअसल, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में अपनी हिस्सेदारी कम करने के पीछे नरेंद्र मोदी सरकार की दो तरह की मंशा है। एक तो खजाना खाली होने के कारण वह अपना वित्तीय बोझ राज्य सरकारों पर डालना चाह रही है। दूसरा, इस योजना से अनिवार्यता की शर्त खत्म करके किसानों की वाहवाही तो लूट रही है, लेकिन सरकार को भी पता है कि अनिवार्यता की शर्त खत्म होते ही किसान फसल बीमा बंद कर देंगे। ऐसे में, सरकार इसके लिए राज्य सरकारों को दोषी ठहरा कर अपना पीछा छुड़ा लेगी। केंद्र सरकार भी जानती है कि राज्यों की आर्थिक दशा इतनी मजबूत नहीं है कि बीमा प्रीमियम भर दें। ऐसी स्थिति में केंद्र इस योजना के फेल होने का कारण राज्य सरकारों को बता सकती है।

इस योजना को लागू करने के पीछे केंद्र सरकार की मंशा शुरू से ही ठीक नहीं रही। केंद्र की मंशा कुछ प्राइवेट बीमा कंपनियों को फायदा पहुंचाने की थी। इसलिए सबसे पहले यह योजना उन किसानों के लिए अनिवार्य की गई, जिन पर किसी न किसी तरह का कर्ज है। अनुमान है कि देश में लगभग 50 फीसदी किसानों पर कर्ज है। इनके नाम से फसल बीमा किया गया और कर्जदाता बैंकों से ही उनका प्रीमियम भी जमा करवा दिया गया। हालांकि 98 फीसदी केंद्र और राज्य सरकारों ने भरा, लेकिन जब क्लेम की बारी आई तो निजी बीमा कंपनियों ने किसानों को परेशान करना शुरू कर दिया।

पिछले तीन साल से मौसम की मार की वजह से किसानों को नुकसान भी बहुत हुआ और जब किसान क्लेम के लिए कंपनियों के पास पहुंचे तो बीमा कंपनियों की सांसें अटक गईं। पिछले साल 2019 में परेशान होकर चार बीमा कंपनियों ने फसल बीमा योजना के तहत बीमा करने से इंकार कर दिया। कृषि मंत्रालय के एक अधिकारी बताते हैं कि कुछ और कंपनियां भी इसमें मुनाफा न देख इस साल फसल बीमा योजना छोड़ सकती हैं।


खासकर, ऐसी स्थिति में जब इसकी अनिवार्यता की शर्त खत्म हो गई है तो किसान भी बीमा कंपनियों के रिकॉर्ड को देखते हुए खुद से बीमा करवाने के लिए आगे नहीं आएंगे और एक से दो साल के बीच यह योजना बंद हो सकती है। तीन राज्यों ने तो इस योजना का क्रियान्वयन रोक भी दिया है। इसके अलावा भी कई राज्यों ने केंद्र को यह नोटिस दिया है कि वे भी ऐसा ही करेंगे। इसी के मद्देनजर केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने पहले ही यह घोषणा कर दी है कि वह राज्यों के लिए विशेष तौर पर तैयार वैकल्पिक कार्यक्रम पेश करेगा। अब देखना यह है कि यह विशेष मॉडल क्या है?

हालांकि अभी यह भी देखना होगा कि फसल बीमा कंपनियां तो अपना मुनाफा समेट कर जा रही हैं, लेकिन क्या किसानों को उनका पुराना बकाया क्लेम मिलेगा? पिछले दिनों सदन को दी गई जानकारी में बताया गया था कि 2016-17 का 5.2 करोड़ रुपये, 2017-18 का 145 करोड़ रुपये और 2018-19 का 3,595.7 करोड़ रुपये का भुगतान बीमा कंपनियों ने किसानों को करना है। जबकि 2019-20 में मानसून ने खरीफ की फसल को काफी नुकसान पहुंचा है। इसका आंकड़ा आना अभी बाकी है कि 2019-20 का कितना क्लेम किसानों को नहीं मिला है।

जहां तक कमाई की बात है तो कंपनियों ने 2016- 17 में 21 हजार 896 करोड़ रुपये का प्रीमियम इकट्ठा किया और भुगतान 16 हजार 657 करोड़ रुपये का किया गया। इसी तरह अगले वर्ष 25,461 करोड़ रुपये का प्रीमियम आया और क्लेम का भुगतान 21,694 करोड़ रुपये किया गया। इसी तरह 2018-19 में कंपनियों के पास प्रीमियम के रूप में 28,802 करोड़ रुपये पहुंचे और उन्होंने किसानों के दावे का भुगतान 17,790 करोड़ रुपये किया। यानी इस योजना का लाभ किसानों को कम कंपनियों को ज्यादा हुआ। बावजूद इसके कंपनियां अधर में योजना को छोड़ कर भाग रही हैं ।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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