आकार पटेल का लेख: जनसंघ के घोषणापत्र और बीजेपी की वर्तमान नीतियों के असली रंग

बीजेपी के दर्शन और नीतियों में असंगतियों की पड़ताल से पता चलता है कि जिन वादों और संकल्पों को दशकों से जनसंघ ने संजोए रखा था, उन्हें बीजेपी ने दरकिनार कर दिया है।

2019 लोकसभा चुनाव के लिए घोषणा पत्र जारी करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह (फाइल फोटो)
2019 लोकसभा चुनाव के लिए घोषणा पत्र जारी करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह (फाइल फोटो)
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आकार पटेल

बीजेपी ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है, ‘एकात्म मानववाद का दर्शन व्यक्ति को केवल एक भौतिक वस्तु के रूप में नहीं बल्कि एक आध्यात्मिक आयाम वाले व्यक्ति के रूप में देखता है। यह आर्थिक विकास के लिए अभिन्न दृष्टिकोण की बात करता है जिसके मूल में परिवार, समाज और राष्ट्र से जुड़ा व्यक्ति है।’

इन शब्दों का क्या अर्थ है? किसी सरकार और राजनीतिक पार्टी का आध्यात्मिक आयाम से क्या लेना-देना है और यदि यह संभव भी है तो भी सरकार इस आध्यात्मिक आयाम का लाभ कैसे उठा सकती है? बीजेपी के घोषणापत्र में या बीजेपी के बजट में क्रियाशील नीतियों के माध्यम से ये शब्द कैसे प्रतिबिंबित होते हैं? अगर होते हैं तो फिर अन्य दलों की नीतियों में किस तरीके से ये शब्द गायब दिखते हैं?

चलिए बीजेपी/जनसंघ के कुछ घोषणापत्रों को देखते हैं जो पार्टी ने कुछ सालों में प्रकाशित किए हैं। पाठकों को यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि पार्टी की सोच में या तो बहुत ही कम या फिर बिल्कुल भी निरंतरता नहीं है और महत्वपूर्ण मुद्दों पर इसने बिना किसी कारण के अपने रुख को क्यों पलट लिया है।

अपने 1954 के घोषणापत्र में, और फिर 1971 में भी जनसंघ ने 20:1 के औसत को बनाए रखते हुए सभी भारतीय नागरिकों की मासिक आय अधिकतम 2000 रुपए और न्यूनतम 100 रुपए सीमित करने का संकल्प लिया था। और, कहा था कि इस दिशा में तब तक काम जारी रहेगा जब तक कि यह 10:1 के आदर्श औसत तक नहीं पहुंच जाता और सभी भारतीयों की अपनी हैसियत के मुताबिक इस सीमा में ही आमदनी होनी चाहिए। इस सीमा से ऊपर अर्जित अतिरिक्त को सरकार 'योगदान, कराधान, अनिवार्य ऋण और निवेश के माध्यम से' विकास आवश्यकताओं के लिए इस्तेमाल करेगी।

पार्टी ने शहरों में आवासीय मकानों का आकार भी तय करते हुए कहा था कि इनका अधिकतम आकार 1000 वर्ग गज से अधिक नहीं होना चाहिए (कोई इस बारे में अंबानी और अडानी को बताएगा क्या)।

1954 में इसने कहा था कि, ‘ट्रैक्टर का इस्तेमाल सिर्फ ऊसर या सूखी जमीन की खुदाई के लिए होगा। आम जुताई जैसे कामों के लिए इनके इस्तेमाल को हतोत्साहित किया जाएगा।' यह निःसंदेह इसलिए कहा गया था क्योंकि यह बैल और सांड को वध से बचाने की कोशिश थी। 1951 में, गोहत्या पर प्रतिबंध को 'गाय को कृषि जीवन की आर्थिक इकाई बनाने के लिए' आवश्यक कदम के रूप में समझाया गया था। 1954 में, इसकी शब्दावली अधिक धार्मिक थी और गोरक्षा को 'पवित्र कर्तव्य' कहा गया था।


भले ही पार्टी कहती है कि समान नागरिक संहिता की समर्थक है, लेकिन इसने तलाक और एकल परिवारों का लगातार विरोध किया है। इसके घोषणापत्र (1957 और 1958) में कहा गया है कि 'संयुक्त परिवार और अविभाज्य विवाह हिंदू समाज का आधार रहे हैं। इस आधार को बदलने वाले कानून अंततः समाज के विघटन का कारण बनेंगे। इसलिए जनसंघ हिंदू विवाह और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को रद्द कर देगा।’

जातीय हिंसा पर जनसंघ का 1973 के विश्लेषण से पता चलता है कि ज्यादातर मामलों में संघर्ष हरिजनों और जातीय हिंदुओं के बीच नहीं हुए हैं, बल्कि हरिजनों और सत्ता में मौजूद लोगों के एक समूह के बीच हुए है, जो ऊंची जातियों से भी आते हैं।' मतलब यह कि जाति स्वयं संघर्ष का स्रोत नहीं है।

सांस्कृतिक तौर पर, पार्टी मदिरा सेवन के खिलाफ है और राष्ट्रव्यापी शराबबंदी की समर्थक है। साथ ही यह अंग्रेजी की जगह सभी क्षेत्रों में स्थानीय भाषाओं और विशेषरूप से हिंदी लागू करना चाहती है।

सबसे रोचक तो यह है कि जनसंघ ने यूएपीए जैसे कानूनों को खत्म करने का आह्वान यह कहते हुए किया था कि यह व्यक्तिगत स्वतंत्रता का उल्लंघन है। इसी वादे को 1950 के दशक में भी दोहराया गया था। लेकिन 1967 आते-आते इसने मांग उठाना शुरु कर दी कि ‘ऐसी व्यवस्था की जाएगी कि पांचवें स्तंभकार और विघटनकारी तत्वों को बुनियादी अधिकारो का दुरुपयोग नहीं करने दिया जाएगा।’ समय के साथ संघ और बीजेपी निरोधात्मक हिरासत के प्रबल समर्थक बन गए।

1954 में पार्टी ने कहा था कि वह संविधान के उस पहले संशोधन को तार्किक प्रतिबंध लगाकर खत्म कर देगी जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाई गई है। इस संशोधन के तहत अभिव्यक्ति की आजादी खत्म कर दी गई थी क्योंकि तार्किक प्रतिबंध की सूची बहुत ही विशाल और व्यापक थी। जनसंघ को लगा कि यह ऐसा मुद्दा है जिसे बिना चुनौती दिए नहीं छोड़ा जाना चाहिए। लेकिन 1954 के बाद बोलने की आजादी, जुड़ाव और लोगों का इकट्ठा होने जैसे अधिकारों को बहाल करने के वादे जनसंघ के घोषणापत्र से बिना कारण लुप्त हो गए।


बीजेपी संविधान के मुताबिक एकात्म मानववाद ही पार्टी का आधारभूत दर्शन है। बीजेपी यह कहकर भाषाई राज्यों के विचार का विरोध करती है (3 और 24 अप्रैल, 1965 को दिए गए भाषण) कि, 'संविधान का पहला पैरा "इंडिया दैट इज़ भारत राज्यों का एक संघ होगा", यानी बिहार माता, बंग माता, पंजाब माता, कन्नड़ माता, तमिल माता, इन सभी को मिलाकर भारतमाता बनाई गई है। यह हास्यास्पद बात है।

हमने राज्यों की भारतमाता की भुजाओं के रूप में कल्पना की है, न कि व्यक्तिगत माताओं के रूप में। इसलिए, हमारा संविधान संघीय के बजाय एकात्मक होना चाहिए।' जरा याद कीजिए कि आखिरी बार हमें बीजेपी कब इस बारे में जोर देते हुए दिखाई या सुनाई दी है?

जनसंघ अपने बहुसंख्यकवाद को उतनी स्पष्टता और पूरे ज़ोर-शोर से व्यक्त करने में असमर्थ रहा, जितना बाद में बीजेपी ने करती रही है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसमें मुस्लिम विरोधी भावनाओं को भड़काने के लिए एक विशिष्ट कार्यक्रम का अभाव था, मसलन बाबरी मस्जिद के खिलाफ अभियान। भले ही जनसंघ के गठन से कुछ महीने पहले ही मूर्तियों को मस्जिद में रख दिया गया था, लेकिन 1951 से 1980 तक जनसंघ के किसी भी घोषणापत्र में अयोध्या या वहां राम मंदिर होने का कोई संदर्भ नहीं दिया गया था।

एक बार सत्ता हाथ में आ गई तो वे सभी बातें जिनके दावे जनसंघ ने किए थे और जिस पर वह दशकों से कायम है, और उसमें उसके घोषणापत्र और उसके 'बुनियादी दर्शन' भी शामिल हैं, उन्हें दरकिनार कर दिया गया है।

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