अमेरिका: सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में मरते बच्चे, हैरान करने वाली है वजह!

अमेरिका में पूंजीवाद और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की धमक के बीच बढ़ती शिशु मृत्यु दर ही एक समस्या नहीं है, बल्कि वहां गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर भी तेजी से बढ़ रही है।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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महेन्द्र पांडे

अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और सबसे अधिक संख्या में अरबपतियों वाला देश है। इन दिनों अमेरिका में अनेक स्टार्टअप और चिकित्सा से जुडी कम्पनियां बड़े पैमाने पर जीवन अवधि, यानि आयु, बढाने से सम्बंधित अनुसंधान में जुटी हैं, और इन्हें वहां के तमाम अरबपति आर्थिक मदद कर रहे हैं। अब तक के आकलन के अनुसार संभव है कि अगले कुछ वर्षों के दौरान मनुष्य की औसत उम्र 90 वर्ष से बढ़ाकर 120 वर्ष तक पहुंचा दी जाए। मनुष्य की आयु बढाने के प्रयासों के बीच में हाल में ही अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन, सीडीसी, ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की है जिसके अनुसार अमेरिका में वर्ष 2022 के दौरान शिशु मृत्यु दर में वर्ष 2021 की तुलना में तीन प्रतिशत की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी है। यह बृद्धि पिछले 20 वर्षों बाद देखी गयी है और इससे पहले शिशु मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी वर्ष 2001-2002 में दर्ज की गयी थी।

शिशु मृत्यु दर का आकलन पैदा हुए प्रति एक हजार शिशुओं में एक वर्ष के भीतर मृत्यु की संख्या से किया जाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार शिशु मृत्यु दर के दो सबसे प्रमुख कारणों – प्रसव के दौरान जटिलता और शिशुओं में बैक्टीरिया जनित मैनिंजाइटिस – के मामले भी वर्ष 2022 में बढे हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ़ मेरीलैंड की शिशुरोग विशेषज्ञ मेंरी थोमा ने कहा है कि शिशुओं के स्वास्थ्य में विकास पीछे की तरफ जा रहा है और यह निश्चित तौर पर चिंताजनक है। अमेरिकन अकैडमी ऑफ़ पीडियाट्रिक्स के अध्यक्ष डॉ एरिक एइचेन्वल्द ने इस रिपोर्ट पर कहा कि हमें अपने स्वास्थ्य सेवाओं के कार्य की समीक्षा की जरूरत है।

 इस रिपोर्ट में बढ़ती शिशु मृत्यु दर का कोई निश्चित कारण तो नहीं बताया गया है, पर अनुमान है कि ऐसा बढ़ती गरीबी और गर्भवती महिलाओं के अपर्याप्त देखभाल के कारण हो सकता है। अमेरिका में वर्ष 2021 में शिशु मृत्यु दर 5.44 थी, जो वर्ष 2022 में 5.6 तक पहुंच गयी। मृत्यु दर में यह अंतर भले ही मामूली नजर आता हो, पर वास्तविक संख्या में यह अंतर बड़ा नजर आता है। वर्ष 2022 में अमेरिका में 20500 शिशुओं की मृत्यु दर्ज की गयी, यह संख्या वर्ष 2021 की तुलना में 610 अधिक है। अमेरिका के 50 राज्यों में से 30 में शिशु मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी देखी गयी, पर ऐसे सबसे अधिक मामले चार राज्यों – जोर्जिया, आयोवा, मिसौरी और टेक्सास – में दर्ज किये गये। रिपब्लिकन पार्टी द्वारा शासित टेक्सास में वर्ष 2021 की तुलना में वर्ष 2022 के दौरान 251 अधिक शिशुओं की मृत्यु हुई जबकि रिपब्लिकन गवर्नर वाले जोर्जिया में 116 अधिक शिशुओं की मृत्यु दर्ज की गयी।


वर्ष 2022 में शिशु मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी के बीच अमेरिका में सामान्य मृत्यु दर में 5 प्रतिशत की गिरावट आई है। इस रिपोर्ट की मुख्य लेखिका डेनियाले एली ने कहा है कि हम यह बताने में असफल रहे हैं कि मृत्यु दर में बढ़ोत्तरी केवल एक वर्ष के लिए है, या फिर एक खतरनाक दीर्घकालीन प्रवृत्ति की शुरुआत है।

अमेरिका में पूंजीवाद और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की धमक के बीच बढ़ती शिशु मृत्यु दर ही एक समस्या नहीं है, बल्कि वहां गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर भी तेजी से बढ़ रही है। इन महिलाओं की मृत्यु दर में सरकारी और सामाजिक स्तर पर नस्लभेद और रंगभेद का प्रभाव स्पष्ट है। कुल गर्भवती महिलाओं की मृत्यु में से लगभग 70 प्रतिशत अश्वेत महिलायें हैं। किसी भी बड़े औद्योगिक और तथाकथित विकसित देश की तुलना में अमेरिका में शिशु मृत्यु दर और गर्भवती महिला मृत्यु दर लगभग दोगुनी है। गर्भवती महिला मृत्यु दर का आकलन प्रति एक लाख गर्भवती महिलाओं में मृत्यु की संख्या द्वारा किया जाता है। अमेरिका में वर्ष 2021 में यह दर 32.9 थी। वर्ष 2020 में वहां 861 गर्भवती महिलाओं की मृत्यु हुई थी, जबकि वर्ष 2021 में यह आंकड़ा 40 प्रतिशत अधिक यानि 1205 तक पहुँच गया। श्वेत गर्भवती महिलाओं की तुलना में अश्वेत गर्भवती महिलाओं के मृत्यु की संभावना 3 से 4 गुना अधिक रहती है, न्यूयॉर्क जैसे शहर में तो यह संभावना 8 गुना अधिक है।

गर्भवती महिलाओं और शिशुओं के प्रति स्वास्थ्य सेवाओं की लापरवाही का आलम यह है कि सीडीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार इनमें से 84 प्रतिशत मौतें उचित देखभाल और इलाज से रोकी जा सकती थीं। अमेरिका में शिशु मृत्यु दर 5.6 की तुलना में यूरोपियन यूनियन के देशों में औसतन यह दर 3.1 है, यूनाइटेड किंगडम में यह दर 3.4 है। शिशु मृत्यु दर का वैश्विक औसत 26.05 है, जबकि दुनिया में पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, तमाम अरबपतियों के बढ़ते मुनाफे, विश्वगुरु और आयुष्मान भारत के नारे के बीच भारत में यह दर दुनिया में सबसे अधिक में से एक, 27.7, है। हमारे पड़ोसी देशों में केवल पहिस्तान में 57 और म्यांमार में 35 के साथ हमसे पीछे हैं। श्रीलंका में यह दर 6, चीन में 13, भूटान में 23 और बंगलादेश और नेपाल में प्रत्येक में 24 है।

हमारे देश में शिशु मृत्यु दर के सन्दर्भ में सबसे खराब प्रदर्शन उत्तर प्रदेश, असम और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों का है, जहां के विकास की गाथा हमारे प्रधानमंत्री जी हमेशा सुनाते हैं। मध्य प्रदेश में यह दर 43 है, उत्तर प्रदेश में 38, असम और ओडिशा में 36, राजस्थान में 32 और हरियाणा में 28 है। शिशु मृत्यु दर के सन्दर्भ में सबसे पीछे के राज्यों में से किसी में भी बीजेपी का शासन नहीं है। देश में न्यूनतम शिशु मृत्यु दर वाला राज्य केरल है, जहां यह दर महज 6 है, इसके बाद दिल्ली में 12 और तमिलनाडु में यह दर 13 है।


भारत गर्भवती महिलाओं की मृत्यु दर के मामले में भी बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सबसे पिछड़ा देश है। यहाँ ऐसी मृत्यु दर प्रति एक लाख गर्भवती महिलाओं में 97 है। इस सन्दर्भ में भी सबसे अच्छी स्थिति में केरल है, जहां यह दर महज 19 है। राष्ट्रीय औसत से अधिक मृत्यु दर वाले राज्यों में सबसे आगे बीजेपी शासित राज्य हैं। सबसे खराब स्थिति में असाम है, जहां यह दर 195 है, इसके बाद मध्य प्रदेश में 173, उत्तर प्रदेश में 167, छत्तीसगढ़ में 137, ओडिशा में 119, बिहार में 118, राजस्थान में 113, हरियाणा में 110, पंजाब में 105, और पश्चिम बंगाल में यह दर 105 है।

इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि बड़ी अर्थव्यवस्था किसी भी देश की सामान्य जनता के लिए एक बड़ा छलावा है। बड़ी अर्थव्यवस्था में जनता को बुनियादी सुविधाएं मिलें, यह जरूरी नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के अत्यधिक गरीबी और मानवाधिकार के विशेषज्ञ ओलिविएर देस्चुत्टर गरीबों की स्थिति का आकलन करने युनाइटेड किंगडम के दौरे पर थे। वहां की गरीबी पर दिए गए उनके कथन – “सबसे पहले तो पूंजीवाद द्वारा फैलाए गए इस भ्रम को छोड़ना पड़ेगा कि बड़ी अर्थव्यवस्था का मतलब समाज के सारे तबके का विकास है – अधिकतर उदाहरण इसके विपरीत इशारा करते हैं और बड़ी अर्थव्यवस्था में आर्थिक और सामाजिक असमानता तेजी से बढ़ती है” – बिलकुल सही नजर आता है। इन आंकड़ों से यह भी स्पष्ट है कि कट्टरपंथी, दक्षिणपंथी और राष्ट्रवादी सरकारों के लिए शिशु और महिलाओं का स्वास्थ्य कोई मायने नहीं रखता। ऐसी अर्थव्यवस्था में पूंजीपतियों की संपत्ति लगातार बढ़ती रहे, उनकी सुविधाएं बढ़ती रहें – बस यही निश्चित है।

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