खरी-खरीः कोरोना संकट में केजरीवाल के सारे झूठ और धोखे का आडंबर ध्वस्त, फिर भी शर्म नहीं आती!
दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘मोहल्ला क्लीनिक’ केजरीवाल के प्रचार में छाया हुआ था। लेकिन आज जब दिल्ली में कोरोना महामारी का आतंक है तो वे क्लीनिक कहीं नजर ही नहीं आ रहे। आखिर ‘मोहल्ला क्लीनिक’ में खर्च होने वाले कई सौ करोड़ रुपये कहां गए, उनको कौन खा गया!
अरविंद केजरीवाल राजनीतिक जगत के बौने निकले यह बात तो उसी समय सिद्ध हो गई थी जब दिल्ली के विधानसभा चुनाव समाप्त होते ही वह नरेंद्र मोदी और अमित शाह की गोद में जा बैठे थे। सिद्धांतों के आडंबर में लिप्त केजरीवाल ने हिंदुत्व की राजनीति से खुला समझौता करके न केवल बड़ी संख्या में अपने वोटरों को निराश किया, अपितु 2015 में एक नई आशा के रूप में उभरे ‘साफ-सुथरी’ राजनीति के प्रतीक का भी अस्त हो गया।
एक समय था कि केजरीवाल देश में ‘तीसरा विकल्प’ देने की बात कर रहे थे। वही केजरीवाल अब एक बौने के समान अमित शाह के पीछे-पीछे गर्दन झुकाए चलते हैं। सिद्धांतों से समझौता गर्दन उठाने का अवसर नहीं देता है। केजरीवाल की गर्दन अब ऐसी झुकी है कि अब कदापि कभी उठेगी ही नहीं।
खैर, राजनीतिक जगत में गर्दन झुकना और नाक कटना आम बात हो चुकी है। परंतु इससे भी हैरतनाक बात यह है कि केजरीवाल एक निकम्मे शासक भी सिद्ध हुए। इस समय दिल्ली में कोरोना वायरस की महामारी को लेकर जो बदहाली छाई हुई है, वह इस बात का प्रतीक है कि केजरीवाल का प्रशासन संपूर्णतयः असफल है।
जरा गौर कीजिए, यदि हम और आप इस महामारी का शिकार हो जाएं तो किसी अस्पताल में हमको एक बेड मिल जाए, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। मेरे एक परिचित के साथ यही हुआ। वह पहले चार गैर सरकारी अस्पतालों का दरवाजा खटखटा आए और कुछ नहीं हुआ। अंततः वह एक बड़े सरकारी अस्पताल पहुंचे, भर्ती हुए, परंतु उनको वेंटिलेटर नहीं मिल सका। बेचारे दो घंटे के अंदर भगवान को प्यारे हो गए।
यह इस समय दिल्ली महानगरी की आम कहानी है। दर्जनों की तादाद में लोग बगैर किसी इलाज के मर रहे हैं। अस्पतालों की यह दुर्दशा है कि जो जाता है, वह बच कर आ जाए तो बड़ी बात है। और तो और, लाशों को रखने के लिए अब ‘मॉर्चरी’ में भी जगह नहीं मिलती है। वहीं, श्मशान घाट और कब्रिस्तान में भी जगह नहीं मिल रही है। यह केजरीवाल की वह दिल्ली महानगरी है जिसको वह न्यूयॉर्क बनाने का सपना दिखा रहे थे। इसको आप प्रशासनिक निकम्मापन नहीं तो और क्या कहेंगे?
परंतु दिल्ली में महामारी को लेकर जो बदहाली है, उसका आखिर कारण क्या है? सीधी सी बात है कि सरकार में मुख्यमंत्री से लेकर संतरी तक किसी को चिंता ही नहीं थी कि महामारी से कैसे निपटा जाए। डॉक्टर और विशेषज्ञ मार्च के अंत से यह भविष्यवाणी कर रहे थे कि जून-जुलाई तक दिल्ली में लाखों लोग इस महामारी के शिकार हो जाएंगे। परंतु केजरीवाल सरकार गहरी नींद में थी। अंततः जून का पहला पखवाड़ा समाप्त होते-होते वही हुआ। रोज कई हजार मरीज और कई सौ लोग प्रतिदिन मरने लगे। हजारों की तादाद में मरीज अस्पतालों के दरवाजे पर। अस्पतालों का आलम यह कि जमीन पर भी लिटाने की जगह नहीं। स्थिति बिगड़ने लगी।
पहले तो केजरीवाल सरकार ने झूठ का सहारा लिया। मरीजों और मरने वालों के आंकड़ों के साथ खिलवाड़ हुआ। फिर तो दुर्दशा ऐसी हो गई कि कुछ छिपाने को नहीं बचा। अब न तो अस्पतालों में जगह है और न ही श्मशान घाट और कब्रिस्तान खाली हैं। बस यूं समझिए, केजरीवाल की दिल्ली अब भगवान भरोसे है।
जब स्थिति यहां तक बिगड़ गई तो केंद्र सरकार को होश आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गृह मंत्री को हुकूम दिया, कुछ कीजिए। अमित शाह ने केजरीवाल को फटकार लगाई, विचार-विमर्श हुआ, नई घोषणाएं हुईं। ऐलान हुआ कि रेल के पांच सौ डिब्बे और स्टेडियम अस्पताल बना दिए जाएं। चलो भाई, बेड की तो कुछ व्यवस्था हो सकती है। परंतु अब पंद्रह दिन के अंदर हजारों डॉक्टर, नर्सें, लैब टेक्नीशियन और दूसरे स्वास्थ्यकर्मी कहां से आएंगे!
जाहिर है, दिल्ली जल्दी ही ‘कोरोना कैपिटल’ बन जाएगी और केजरीवाल अपनी फोटो के साथ समाचार पत्रों में विज्ञापनों के माध्यम से दिल्ली सरकार की उपलब्धियां गिनवाएंगे। यह बेशर्मी नहीं तो और क्या है! केजरीवाल ने पिछले पांच साल से झूठ और धोखे का जो एक आडंबर खड़ा कर रखा था, वह अब ध्वस्त हो रहा है।
सबसे पहले तो केजरीवाल ने दिल्ली ही नहीं, सारे देश को ‘भ्रष्टाचार मकु्त’ राजनीति का झांसा दिया। हमारे मध्य वर्ग को, पता नहीं, ‘भ्रष्टाचार मिटाने’ की इस कदर चिंता क्यों है कि जो भ्रष्टाचार मिटाने का ढोंग रच दे, मध्य वर्ग उसका प्रेमी हो जाता है। 1980 के दशक में विश्वनाथ प्रताप सिंह इसी नारे पर प्रधानमंत्री बन बैठे। फिर 2012 में अन्ना हजारे और केजरीवाल- जैसे ढोंगियों ने वैसा ही ड्रामा रचा और राजनीति में केजरीवाल चमक गए।
केजरीवाल प्रशासन को अब पांच वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। क्या दिल्ली में भ्रष्टाचार समाप्त हो गया? अरे, एक ऑटोवाला मीटर से चलने को तो राजी नहीं, और तो सब जाने दीजिए। यह भ्रष्टाचार नहीं तो और क्या है! ये केजरीवाल ‘भ्रष्टाचार मुक्त’ शासन क्या देंगे। पूरा अन्ना आंदोलन एक ढोंग था, जिसका दुरुपयोग करके मोदी और केजरीवाल जैसे लोग सत्ता पर काबिज हो गए।
मोदी के राज में करोड़ों बेरोजगार हो गए और केजरीवाल के राज में हजारों महामारी से मर रहे हैं। भ्रष्टाचार मिटाओ केवल एक धोखा और सत्ता प्राप्ति का औजार नहीं तो और क्या था! स्पष्ट है कि केजरीवाल का राजनीतिक जन्म ही एक धोखा था। अभी छह माह पहले दिल्ली विधानसभा चुनाव में ‘मोहल्ला क्लीनिक’ प्रचार का एक सैलाब आया हुआ था। ऐसा लगता था, मानो ‘मोहल्ला क्लीनिक’ विश्व में स्वास्थ्य क्रांति का एक प्रतीक हो। मानो, दिल्ली में अब कोई बीमार ही नहीं बचा। दिल्ली वाला बीमार पड़ा और बस, मोहल्ले में ही उसके इलाज की व्यवस्था हो गई।
लेकिन आज जब दिल्ली में कोरोना महामारी का आतंक फैला हुआ है तो वे ‘मोहल्ला क्लीनिक’ कहीं नजर ही नहीं आ रहे हैं। अगर होते तो मोहल्ले-मोहल्ले वे क्लीनिक आज कोरोना टेस्टिंग का माध्यम बन सकते थे। ‘मोहल्ला क्लीनिक’ का वह पूरा तंत्र और उसमें खर्ज होने वाले कई सौ करोड़ रुपये कहां गए, उनको कौन खा गया! क्या यह एक खुला भ्रष्टाचार और रैकेट नहीं है।
इसी प्रकार सरकारी स्कूलों और दिल्ली की दूसरी सरकारी स्कीमों का भी हाल है। जनता हर क्षेत्र में परेशान है और केजरीवाल दिल्ली की गद्दी पर विराजमान होकर सत्ता के मजे लूट रहे हैं। दिल्ली प्रशासन हर स्तर पर बुरी तरह विफल हो चुका है। इस महामारी में इस समय मौत का बाजार गर्म है। अस्पतालों में जगह नहीं है। मुर्दाखानों में लाशों के लिए स्थान नहीं बचा। श्मशान घाट में अंतिम संस्कार के लिए समय नहीं मिल रहा है। और केजरीवाल मजे से हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। क्या अब ऐसे पाखंडी मुख्यमंत्री केजरीवाल से त्यागपत्र की मांग नहीं करनी चाहिए!
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