अग्निपथ नहीं, ‘विनाशपथ’ कहिए जनाब!

अग्निवीर योजना न सिर्फ सेना की क्षमता-दक्षता को कम करेगी बल्कि इसके सामाजिक दुष्प्रभाव भी स्वाभाविक ही हैं जिनके बारे में सरकार ने सोचा नहीं

अग्निवीर योजना के खिलाफ देश के युवा और कई संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं (फोटो : Getty Images)
अग्निवीर योजना के खिलाफ देश के युवा और कई संगठन लगातार विरोध कर रहे हैं (फोटो : Getty Images)

सैन्य व्यावसायिकता के गुण होते हैं कर्तव्य के प्रति प्रतिबद्धता; राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति जिम्मेदारी की दृढ़ भावना; सैन्य समझ-बूझ, रणनीति और प्रौद्योगिकी में विशेषज्ञता; नैतिक मानदंड, निरंतर व्यावसायिक प्रशिक्षण और राजनीतिक तटस्थता। छोटी सेवा और बड़ी कमाई के कारण अग्निपथ योजना सैन्य व्यावसायिकता की बुनियाद को ही खोखला कर रही है। 

यही वजह है कि जून, 2022 में अग्निपथ योजना शुरू करने के दो साल के भीतर ही इसे खत्म करने की मांग ने जोर पकड़ लिया है। लेकिन सरकार ने तो जैसे कसम खा रखी है कि इसे वापस नहीं लेगी और उसने विपक्ष पर आरोप लगाया है कि वह योजना के बारे में ‘झूठ’ फैला रहा है।

हालांकि सिर्फ लोकसभा में नेता विपक्ष और राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि भारतीय नौसेना के दो सेवानिवृत्त प्रमुखों- एडमिरल अरुण प्रकाश और एडमिरल के.बी. सिंह सहित बड़ी संख्या में पूर्व फौजी भी अग्निपथ के खिलाफ खुलकर बोल रहे हैं। पूर्व सेना प्रमुख जनरल नरवणे की अभी तक जारी न हुई किताब (जो सरकार से सुरक्षा मंजूरी का इंतजार कर रही है) के अंश इस बात को साबित करते हैं कि इस योजना को तीनों सेना मुख्यालयों से सलाह लिए बिना ही लागू कर दिया गया। 

इस योजना को सेना कमांडरों के द्वि-वार्षिक सम्मेलनों में भी नहीं रखा गया। यह भारतीय सेना के वरिष्ठतम नेतृत्व का ऐसा चर्चा समूह है जिसमें नीति निर्धारण से लेकर किसी भी तरह के सुधार, आधुनिकीकरण और सेना में नई हथियार प्रणालियों को शामिल करने पर विचार-विमर्श किया जाता है। सरकार ने पूरी दृढ़ता के साथ दावा किया है कि योजना को लागू करने से पहले ‘हितधारकों और विशेषज्ञों’ के साथ इसकी बारीकियों पर चर्चा की गई थी। ‘अग्निपथ’ योजना को लागू करने में शामिल रहे सेवानिवृत्त सेना अधिकारियों ने टीवी पर आकर कहा है कि सेना ने इसे हाथों-हाथ लिया है लेकिन यह दावा हकीकत से कोसों दूर है। 

ज्यादातर पूर्व सैनिक इस योजना से स्तब्ध हैं जिसमें छह महीने की ट्रेनिंग के बाद सेना में चार साल का निश्चित रोजगार मिलता है। वे इस बात से और भी ज्यादा हैरान हैं कि सरकार ने एक झटके में ही इस पर अमल शुरू कर दिया। योजना के व्यावहारिक आकलन के लिए पायलट प्रोजेक्ट भी नहीं चलाया गया। इससे भी बुरी बात यह है कि 2020 में आए कोरोना की वजह से इस योजना को तीन साल के लिए रोक दिया गया और इसके तहत कोई भर्ती नहीं हुई। इस योजना के तहत 60,000 की औसत सालाना भर्ती के हिसाब से जिन 1.6 से 1.8 लाख युवाओं को इस दौरान सेना में शामिल होना चाहिए था, वे नहीं हुए। 


आधुनिकता पर बुरा असर 

इस योजना ने न केवल ग्रामीण भारत के लाखों युवाओं की आशाओं और आकांक्षाओं को मिट्टी में मिला दिया बल्कि इसने सेना और उसकी इकाइयों पर भी बुरा असर डाला। एक सैनिक को टैंक, बीएमपी (पैदल सेना का लड़ाकू वाहन), वायु रक्षा और तोपखाने की हथियार प्रणालियों को चलाने में निपुण होने में 7-8 साल का समय लगता है। सेना में अत्याधुनिकता को बनाए रखने के लिए तकनीकी प्रशिक्षण काफी अहम होता है जिसे अग्निपथ योजना में नजरअंदाज कर दिया गया है। प्रशिक्षण अवधि में भारी कटौती का सीधा-सा मतलब है कि अर्द्ध-प्रशिक्षित अग्निवीरों को सेना की इकाइयों और सीमा पर भेजना। इसी का असर है कि अब तक कई अग्निवीर मारे जा चुके हैं या उन्होंने अफसोसनाक तरीके से अपनी जान दे दी। 

अग्निवीरों और स्थायी सैनिकों के लिए अलग-अलग नियम और शर्तों के कारण इकाइयों में मानव-प्रबंधन से जुड़े मसले उभर रहे हैं। अग्निवीरों को कोई तकनीकी प्रशिक्षण नहीं दिया जा सकता है, उन्हें सैन्य पाठ्यक्रमों के लिए नहीं भेजा जा सकता है और न ही उन्हें संवेदनशील तैनाती पर भेजा जा सकता है। उन्हें नियमित सैनिकों को मिलने वाली 90 दिनों की छुट्टी के विपरीत साल में केवल 30 दिनों की छुट्टी दी जाती है। चार साल के बाद स्थायी होने के लिए अग्निवीरों के बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा भी सेना में बुरा माहौल बनाती है क्योंकि सेना में उसकी लड़ाकू ताकत सौहार्द और परस्पर टीम भावना पर निर्भर करती है और यह सेना का मूल चरित्र है। 

इसके अलावा, सामने आ रही जानकारी के मुताबिक, बैरकों में अग्निवीरों का जीवन बहुत खुशहाल नहीं है। अपने भविष्य को लेकर अनिश्चित इन जवानों को ज्यादातर संतरी की ड्यूटी दी जाती है और अक्सर नियमित सैनिक उनका मखौल उड़ाते हैं। एक सेवारत अधिकारी कहते हैं, ‘कुछ यूनिटों में तो इस बात की सख्त हिदायत दी गई है कि अग्निवीरों को संतरी की ड्यूटी भी नहीं दी जाए, जब तक उनके काम पर सीधे नजर रखने वाला कोई सुपरवाइजर न हो।’ 

यह योजना न केवल भर्ती होने वाले को बल्कि उसके पूरे परिवार को भारी मनोवैज्ञानिक तनाव में डालती है। ज्यादातर अग्निवीर ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं। जब उनमें से 75 फीसद चार साल बाद लौटकर अपने गांव जाएंगे तो उन्हें खारिज किए हुए व्यक्ति के तौर पर देखा जाएगा और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा आहत होगी और सेना से वापस भेज दिए जाने का टैग उनके साथ हमेशा लगा रहेगा जिसका उन्हें खामियाजा भुगतते रहना होगा। इतना ही नहीं,  केन्द्रीय अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस में पूर्व सैनिकों की लैटरल भर्ती के वादे शायद ही कभी पूरे किए गए हैं। इसका एक और खतरनाक पक्ष यह है कि सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त बेरोजगार युवा समाज को कई तरह से नुकसान ही पहुंचा सकते हैं। 

अभी हम इस तरह की खबरें सुन रहे हैं कि हमारे युवा रूसी और फ्रांसीसी सेना में शामिल हो रहे हैं। यह योजना भविष्य में और ज्यादा समस्याएं पैदा करेगी। 


असल मुद्दा तो यह है कि क्या यह भर्ती योजना हमारी युद्ध प्रभावशीलता को बेहतर बनाती है और सेनाओं को श्रेष्ठ लोगों को भर्ती करने में मदद करती है? अगर अल्पकालिक भर्ती सेना और देश के लिए वाकई अच्छी है, तो अधिकारियों की भर्ती के मामले में भी ऐसी ही योजना क्यों नहीं शुरू की जाती? राज्य पुलिस और केन्द्रीय अर्धसैनिक संगठनों में भी ऐसी योजना क्यों नहीं लाई जाती? अग्निवीर योजना शुरू करने की असली वजह रक्षा सेवाओं के बढ़ते ‘वेतन और पेंशन’ बिल को कम करना बताया जा रहा है।

विडंबना यह है कि नौकरशाही, अन्य केन्द्रीय सरकारी सेवाओं और सुरक्षा बलों के ‘वेतन और पेंशन’ के मामले में तो ऐसी ही तत्परता नहीं दिखाई जा रही है! सामान्य तौर पर दिए जाने वाले इस तर्क में दम है कि भविष्य के युद्धों में पैदल सैनिकों की तुलना में नई तकनीक का अधिक उपयोग होगा और इसलिए सेना का आकार कम हो जाएगा। हालांकि इसके उलट इस तर्क को भी खारिज नहीं किया जा सकता कि चूंकि भारतीय सेना का काम चीन के साथ जम्मू एवं कश्मीर और उत्तर पूर्व एलएसी के पहाड़ी इलाकों की सुरक्षा करना है, भारत की पैदल सैनिकों की जरूरत बनी रहेगी। 

इस योजना पर शुरू से ही मेरी राय एक ही रही है- यह एक विनाशकारी फैसला है और इससे पहले कि और अधिक नुकसान हो, इसे खत्म कर दिया जाना चाहिए। टीवी पैनल चर्चाओं में कई पूर्व सैनिकों ने ऐसी ही चिंताएं जताई हैं। भारतीय नौसेना के पूर्व प्रमुख एडमिरल अरुण प्रकाश ने कहा, ‘युवा अग्निवीरों के साथ असमान सलूक और सेना से निकाल दिए जाने के बाद उनका क्या होगा, इस पर काफी चिंता जताई जा रही है। यह सही भी है लेकिन क्या इस बात की किसी को फिक्र है कि लड़ाकू यूनिटों को वैसे रंगरूटों को अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिनके पास जरूरी प्रशिक्षण नहीं है और उन्हें केवल संतरी के तौर पर तैनात किया जा सकता है?’ 

नौसेना के एक अन्य पूर्व प्रमुख एडमिरल के.बी. सिंह जो इस योजना के शुरू होने से बमुश्किल सात महीने पहले ही सेवानिवृत्त हुए थे, कहते हैं: ‘जिन्हें भी राष्ट्रीय सुरक्षा की समझ है, उन्हें अच्छी तरह पता है कि यह योजना युद्ध प्रभावशीलता को कम कर देगी।’


मैं बड़ी संख्या में युवाओं से मिलता-जुलता रहता हूं और मेरा अपने गांव से रिश्ता भी कभी नहीं टूटा। मैं शहीदों के कई परिवारों को जानता हूं और उनके बूढ़े माता-पिता को हर महीने मिलने वाली मासिक पेंशन कितनी प्यारी है, यह बात वे अपने जवान बेटों को खोने के बहुत समय बाद भी जानते हैं। हर महीने वे उन शहीदों को याद करते हैं और कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि राष्ट्र उनके बच्चों के बलिदान को नहीं भूला है। भारतीयों के लिए सशस्त्र बलों में सेवा करना पीढ़ियों-पीढ़ियों से यही मायने रखता है। अग्निवीरों को इस तरह के विशेषाधिकारों से वंचित करना न तो उचित है और न ही तर्कसंगत। पिछले कई सालों के दौरान केन्द्र सरकार का बजट कई गुना बढ़ गया है और सैनिकों को पेंशन देने से बचने के लिए इस तरह की योजनाओं को लाने का कोई तर्क नहीं हो सकता जब सरकार के पास अपने प्रचार के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है। 

मुझे लगता है कि इस योजना को वापस ले लिया जाना चाहिए और इसे एक ‘टेस्ट केस’ के तौर पर देखा जाना चाहिए। पुरानी भर्ती प्रक्रिया को बहाल करने के मामले को अहंकार का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि इसका सबसे बड़ा नुकसान तो रक्षा बलों में काम करने वालों की गरिमा का हुआ है। इस योजना ने एक झटके में सेना में काम करने को राज्य पुलिस और अर्धसैनिक बलों के भी नीचे ला खड़ा किया है। इसके साथ ही थल सेना, नौसेना और वायु सेना के लिए श्रेष्ठ प्रेरित युवा न मिलने का दीर्घकालिक नुकसान निश्चित ही गंभीर चिंता का विषय है। 

पाकिस्तान और चीन के साथ हमारी 7,000 किलोमीटर से भी लंबी अशांत अंतरराष्ट्रीय सीमा है। क्या हम अपने सशस्त्र बलों के लिए आधुनिकता में पिछड़ जाना और इसकी मूल मजबूती का कमजोरी में बदलना बर्दाश्त कर सकते हैं?

(ए जे प्रबल के इनपुट के साथ)

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