अफगानिस्तान में बिना अमेरिकी सहयोग के नहीं निकलेगा रास्ता, क्या यहीं से बनेगी चीन से बातचीत की भूमिका!

वैश्विक एजेंडे पर अब भी अफगानिस्तान सबसे ऊपर है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जा किए एक महीना पूरा हो गया है, पर अस्थिरता कायम है। अफगानिस्तान के भीतर और बाहर भी। इस दौरान कई अंतरराष्ट्री सम्मेलन हो चुके हैं। लेकिन अभी कुछ भी तय नहीं हुआ है।

फोटो : सोशल मीडिया
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प्रमोद जोशी

वैश्विक एजेंडे पर अब भी अफगानिस्तान सबसे ऊपर है। अफगानिस्तान पर तालिबान के कब्जा किए एक महीना पूरा हो गया है, पर अस्थिरता कायम है। अफगानिस्तान के भीतर और बाहर भी। इस दौरान एक शिखर सम्मेलन व्लादीवोस्तक में ईस्टर्न इकोनॉमिक फोरम का हुआ, फिर 9 सितंबर को दिल्ली में ब्रिक्स का शिखर सम्मेलन। उसके बाद दुशान्बे में शंघाई सहयोग संगठन का सम्मेलन। इस बार संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक में सबसे अहम अफगानिस्तान का ही मसला रहने वाला है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इसमें भाग लेंगे, पर उनकी यात्रा का ज्यादा महत्वपूर्ण एजेंडा है राष्ट्रपति जो बाइडेन से मुलाकात का। अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत के बीच अनौपचारिक रणनीतिक मंच क्वॉड के नेताओं का 24 सितंबर को ह्वाइट हाउस में पहला ऐसा शिखर सम्मेलन होने जा रहा है जिसमें सभी भौतिक रूप से मौजूद रहेंगे। इसमें बाइडेन के साथ नरेंद्र मोदी, स्कॉट मॉरिसन और योशिहिदे सुगा शामिल होंगे। भारतीय राजनय के लिहाज से वह महत्वपूर्ण परिघटना होगी, पर वैश्विक-दृष्टि से एक और मुलाकात संभव है। संयुक्त राष्ट्र के हाशिये पर चीन और अमेरिका के राष्ट्रपतियों की मुलाकात। खासतौर से अफगानिस्तान के संदर्भ में।

बाइडेन और शी जिनपिंग के बीच 9-10 सितंबर को करीब 90 मिनट लंबी बातचीत ने इस सवाल को जन्म दिया है कि अफगानिस्तान को भटकाव से बचाने के लिए अमेरिका और चीन का आपसी सहयोग क्या संभव है? दोनों नेताओं के बीच सात महीने से अबोला चल रहा था। इस फोन-वार्ता की पेशकश अमेरिका ने की थी। पर्यवेक्षकों के अनुसार, दोनों देशों के लिए ही नहीं, दुनिया के भविष्य के लिए भी दोनों का संवाद जरूरी है।

इस बातचीत में बाइडेन ने कहा कि हमारे टकराव का कोई कारण नहीं है। हम निष्कपट आदान-प्रदान और रचनात्मक संवाद को तैयार हैं, ताकि गलतफहमियों से बचा जा सके। जो बाइडेन के राष्ट्रपति बनने के बाद से दोनों नेताओं के बीच यह दूसरी बातचीत थी। दोनों के बीच इसके पहले एकमात्र वार्ता फरवरी में हुई थी। आमने-सामने की बात हुई नहीं क्योंकि महामारी के बाद से शी जिनपिंग चीन से बाहर निकले ही नहीं हैं।

बाइडेन और शी जिनपिंग का व्यक्तिगत परिचय आज का नहीं है। दोनों जब अपने देशों के उपराष्ट्रपति थे, तब का है। दोनों के बीच अच्छी छनती थी और घंटों गहरी बातें हुआ करती थीं। बाइडेन का कहना है कि शी को जितनी अच्छी तरह मैं जानता हूं, दूसरा कोई अमेरिकी नहीं जानता। बाइडेन-शी वार्ता के बाद चीनी टीवी मीडिया सीजीटीएन के एक प्रेजेंटर ल्यूशिन ने ट्वीट किया, अमेरिका-चीन संवाद सारी दुनिया के हित में है।


व्यापक विमर्श

क्या अमेरिका अकेले इसका फैसला कर लेगा? उसे भी तो सहयोगी देशों से विमर्श करना होगा। इनमें यूरोप के अलावा भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया शामिल हैं। वह ताइवान और दक्षिण चीन सागर से जुड़े देशों का साथ भी छोड़ नहीं सकेगा। चीन को भी इन देशों से समन्वय करना होगा। दूसरी तरफ, उत्तरी कोरिया और ईरान-जैसे देश हैं जिन पर चीनी प्रभाव है। इस लिहाज से बाइडेन-शी वार्ता का महत्व है। चीन को मुख्यधारा की वैश्विक राजनीति से जोड़ने की एक महत्वपूर्ण कड़ी वह साबित हो सकते हैं। बावजूद इसके तमाम किंतु-परंतु अभी बाकी हैं।

चीनी-दोस्ताने की बातें गुजरे जमाने की थीं जो डोनाल्ड ट्रंप के दौर में खत्म हो गईं। बाइडेन ने भी तय किया कि चीन के साथ रिश्ते अब बेहतर नहीं होने वाले। इस दौरान अमेरिका और चीन के बाद कुछ बातें हुई भी, तो अमेरिका का रुख काफी कड़ा बना रहा। आम धारणा थी कि डोनाल्ड ट्रंप का रुख चीन के प्रति काफी कड़ा था। शायद बाइडेन का रुख उतना कड़ा नहीं होगा। यह धारणा गलत थी।

अभी तक बाइडेन प्रशासन का चीन के प्रति रुख काफी कड़ा रहा है। कम-से-कम चार घटनाएं इस बात की ओर इशारा कर रही हैं। अलास्का में अमेरिकी और चीनी प्रतिनिधियों के बीच 18 और 19 मार्च को दो दिन की वार्ता बेहद टकराव के माहौल में हुई। पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह बैठक कुछ वैसी रही, जैसी शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका और सोवियत संघ की शुरुआती बैठकें होती थीं।

चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ‘पीपुल्स डेली’ ने अपनी खबर में इस वार्ता को लेकर शीर्षक दिया— ‘दूसरों को नीचा दिखाने वाली हैसियत से अमेरिका को चीन से बात करने का अधिकार नहीं है।’ चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ ली जियन ने कहा, ‘अमेरिकी पक्ष ने चीन की घरेलू तथा विदेश नीतियों पर हमला करके उकसाया। इसे मेजबान की अच्छी तहजीब नहीं माना जाएगा।’

इस वार्ता में चीन का प्रतिनिधित्व विदेश मंत्री वांग यी और कम्युनिस्ट पार्टी के विदेशी मामलों के सेंट्रल कमीशन के निदेशक यांग जिएशी ने किया। अमेरिका की ओर से विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जैक सुलीवन थे। इस बैठक से ठीक पहले अमेरिका ने हांगकांग और चीन के 24 अधिकारियों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए प्रतिबंधों की घोषणा की थी।

चीनी घेराबंदी

इसके पहले 12 मार्च को क्वॉड देशों के शीर्ष नेताओं की वर्चुअल शिखर-वार्ता ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन की घेराबंदी का आगाज कर दिया था। लगता है कि बाइडेन प्रशासन ने क्वाड को सुरक्षा समूह बनाने के बजाय व्यापक क्षेत्रीय समझौते की शक्ल देने का विचार बनाया है। केवल क्वॉड ही नहीं, अमेरिका अब यूरोपीय देशों के साथ ट्रांस अटलांटिक गठबंधन की योजना भी बना रहा है।

चीन के शिन जियांग प्रांत में मानवाधिकारों के हनन के आरोप को लेकर यूरोपियन यूनियन और चीनके बीच तनाव बढ़ गया है और अब ईयू और चीन के बीच कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) का भविष्य अनिश्चित हो गया है। यह समझौता गत 31 दिसंबर को हुआ था। उस समय तक जो बाइडेन ने पदभार संभाला नहीं था, पर ईयू को उन्होंने अपनी राय बता दी थी, पर उनकी धारणा नजरंदाज करते हुए ईयू ने समझौता कर लिया था। ईयू ने इसकी पुष्टि नहीं की थी और यूरोपीय संसद ने इस विषय पर विचार के लिए बुलाई अपनी बैठक रद्द कर दी। यह समझौता अब खटाई में पड़ गया।


इन बातों को देखते हुए 9-10 सितंबर की फोन-वार्ता महत्वपूर्ण है। पहली नजर में इसका उद्देश्य संवाद-मार्ग को खोलना है। बाइडेनअब वह काम कर रहे हैं जिसे उन्होंने शुरू में नहीं किया। उन्होंने शी जिनपिंग के साथ अपने व्यक्तिगत रिश्तों के आधार पर संपर्क किया है। अब सवाल है कि ऐसा उन्हें क्यों करना पड़ा?

इस समय वैश्विक एजेंडा में तीन बातें सबसे ऊपर हैंः एक, जलवायु परिवर्तन, दूसरा महामारी, तीसरा अफगानिस्तान। पहली दो बातों के मुकाबले अफगानिस्तान नवीनतम परिघटना है जिसमें अमेरिका का गणित गलत साबित हुआ है। तालिबान की निर्णायक और इतनी जल्दी विजय का अनुमान उसे नहीं था।

अमेरिकी फजीहत

अमेरिकी रणनीति की फजीहत न केवल उसके मित्र देशों के बीच हो रही है बल्कि अपने देश के भीतर उससे भी ज्यादा हो रही है। अब जो बाइडेन के सामने हालात को काबू करने की चुनौती है, वर्ना अगले साल होने वाले मध्यावधि चुनाव में देश की आंतरिक राजनीति में बाजी पलट जाएगी। अफगानिस्तान को ऐसे ही छोड़ दिया, तो आने वाले वक्त में वहां अराजक स्थितियां भी पैदा हो सकती हैं।

हाल ही में विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन ने विदेश-संबंधों से संबद्ध संसदीय समिति के सामने पहली बार अमेरिकी नीति-रणनीति पर बयान दिया। अमेरिका पर हड़बड़ी में अफगानिस्तान से भागने का आरोप है। इस सुनवाई में दो बातों पर जोर थाः एक, अमेरिकी नागरिक आतंकवादियों के हाथों मिली किसी भी पराजय को बेहद अपमानजनक मानते हैं और दो, अफगानिस्तान में चीनी प्रभाव बढ़ने की संभावना को खतरनाक।

सामरिक विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका के हटने के बाद इस इलाके में रूस, चीन, तुर्की और ईरान का प्रभाव बढ़ेगा। कई सरकारें अपनी अमेरिका-नीतियों पर पुनर्विचार करेंगी। इस सुनवाई में ब्लिंकेन ने पाकिस्तान को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातें कहीं। बोले, हम पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों पर पुनर्विचार करेंगे। आने वाले दिनों में हम देखेंगे कि 20 साल में पाकिस्तान ने क्या भूमिका अदा की। और यह भी देखेंगे कि आने वाले वर्षों में हमारी भूमिका क्या होगी।

बड़ा मोड़

लगता है कि अमेरिकी विदेश-नीति किसी बड़े मोड़ पर खड़ी है। इस लिहाज से चीनी राष्ट्रपति के साथ बाइडेन की लंबी बातचीत उसकी पृष्ठभूमि तैयार कर रही है। यह रणनीति अफगानिस्तान में चीन के साथ टकराव मोल लेने की है या मिलकर काम करने की, यह फिलहाल स्पष्ट नहीं है, पर जल्द ही यह भी सामने आ जाएगा।

जो बाइडेन कुछ समय से लोकतांत्रिक देशों के साथ सहयोग बढ़ाने और निरंकुश देशों के साथ टकराव मोल लेने की बातें भी करते रहे हैं। हालांकि किसी देश ने तालिबान सरकार को अभी तक मान्यता नहीं दी है, पर चीन सरकार ने जुलाई के महीने में ही तालिबान शिष्ट मंडल का स्वागत करके अनौपचारिक मान्यता दे दी है। काबुल में चीन और रूस के दूतावास तालिबान की सुरक्षा में खुले हुए हैं।

तालिबान ने कतर और अमेरिका के मार्फत बातचीत करके अपनी विजय को सुनिश्चित किया है, पर ऐसा लगता है कि तालिबान के भीतर ‘दोहा-समूह’ और ‘पाकिस्तान-समूह’ दो अलग-अलग दृष्टियां काम कर रही हैं। पाकिस्तानी रास्ते से ही चीन का प्रवेश होगा, पर वह बगैर अमेरिकी सहयोग के अफगानिस्तान में सफल नहीं होगा क्योंकि अफगानिस्तान की आर्थिक-सहायता करने की सामर्थ्य अकेले चीन के पास नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय संगठनों के माध्यम से अमेरिका ही यह मदद पहुंचा सकता है। कुल मिलाकर अफगानिस्तान एक ऐसा बिंदु है, जहां दुनिया भर के हित आकर मिलते हैं। इस इलाके को मध्ययुग की भेंट चढ़ने से रोकना है, तो सभी देशों को यहां अपनी भूमिका निभानी होगी। पर उसके लिए भी अमेरिका और चीन दो किनारों को जोड़ने वाले पुल की जरूरत है।

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