आकार पटेल का लेख: जब दबे-कुचले लोग खुद के लिए खड़े होते हैं, तो समाज को उनके लिए जगह छोड़नी पड़ती है

चंद्रशेखर एक जन नायक बन चुका है और आने वाले दिनों में भीम आर्मी एकता मिशन एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभर सकती है। ‘दि ग्रेट चमार’ लिखे बोर्ड सहारनपुर के 160 गांवों में लगे हैं। बदलाव ऐसे ही हुआ करते हैं। जब सताए हुए लोग अपने लिए खुद खड़े होते हैं, तो समाज को उनके लिए जगह देनी ही पड़ती है।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

मानवाधिकारों की वकालत करने वाली जिस संस्था में मैं काम करता हूं वहां ऐसा कभी कभी ही होता है जब हमें नागरिक अधिकारों को लेकर जारी लड़ाई में साफ जीत मिली हो। पिछले दिनों धारा 377 का खत्म किया जाना ऐसी ही एक जीत थी। इसके बाद सहारनपुर जेल में बंद दलित नेता चंद्रशेखर आज़ाद की रिहाई भी जीत है। हमारे समाज में बहुत से ऐसे पहलू हैं जिन्हें लोग अच्छी नजर से नहीं देखते हैं, और चंद्रशेखर ने अपने नाम के साथ रावण लगाकर हमें यह मानने पर मजबूर किया है कि हम समाज के हर पहलू को स्वीकार करें।

पिछले साल दिल्ली से महज 5 घंटे की दूरी पर बसे सहारनपुर में दलितों ने अपनी पहचान स्थापित करने की कोशिश की। दलितों ने अपनी जमीन पर एक बोर्ड लगाकर उस पर लिख दिया, “दि ग्रेट चमार”। इलाके के ठाकुरों को इससे गुस्सा आ गया, क्योंकि वे तो जीवन भर चमारों को उनकी औकात बताते आए हैं। ठाकुरों ने इस बोर्ड को हटाने की कोशिश की और यहीं से हिंसा भड़क उठी।

इसी हिंसा के लिए चंद्रशेखर रावण को 5 महीने के लिए जेल में डाल दिया गया। पिछले साल नवंबर में उसे जैसे ही जमानत मिली, उस पर रासुका लगा कर फिर जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया। रासुका ऐसा कानून है जो सरकारों को यह अधिकार देता है कि वह किसी को भी बिना मुकदमा चलाए एक साल तक जेल में रख सकती हैं। यह ऐसा कानून है जो किसी भी सभ्य लोकतंत्र में नहीं होना चाहिए। एक दलित नेता को इस कानून के तहत जेल में रखा जाना तो और भी अपमानजनक है।

रासुका में प्रावधान है कि जो भी व्यक्ति देश की सुरक्षा में बाधा पैदा करे, भारत के दूसरी विदेशी ताकतों के साथ रिश्तों और भारत की रक्षा के लिए बने कानूनों का उल्लंघन करता पाया जाएगा, उसे जेल में डाल दिया जाएगा। यह कानून इतना अस्पष्ट है कि हम में से किसी को भी बिना अपराध के ही सरकार इस कानून के तहत गिरफ्तार कर जेल में डाल सकती है। रासुका में कहा गया है कि अगर सरकरा को लगता कि कोई व्यक्ति को देश की रक्षा में बाधा पैदा करने या कानून-व्यवस्खा बनाए रखने और लोगों के लिए जरूरी सेवाओं में रुकावट डालता है, तो उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाए। सभी राज्य सरकारें रासुका को परिभाषित करती इसी भाषा का फायदा उठाती हैं और असहमति की आवाज़ों को दबाने के लिए उसका इस्तेमाल करती हैं। दुर्भाग्य से हमारी अदालतें भी इस बारे में कुछ नहीं कर पातीं।

इसी 10 सितंबर को मैं सहारनपुर जेल में चंद्रशेखर से मिला था। जेल के अंदर एक उद्यान जैसी जगह है जहां कैदी और उनके आगंतुक एक दूसरे से खुलकर मिलते हैं, बातें करते हैं। पाठकों को शायद न मालूम हो कि जब जेल में आप किसी से मिलने जाते हैं तो आपकी हथेली पर या कलाई पर एक मुहर चार बार लगाई जाती है। आपको अंगूठे का निशान देना होता है, फिर एक बड़ी सी गोल मुहर लगाई जाती है, जिस पर उस दिन का जिक्र होता है जिस दिन आप जेल में किसी से मिलने गए हैं।

हमारी मुलाकात सोमवार को हुई थी, लेकिन मुहर पर गुरु यानी गुरुवार लिखा था। एक तिकोनी मुहर थी, जिस पर ‘गेट मुलाकाती’ लिखा था और फिर एक लाल रंग की गोल मुहर थी। इन मुहरों की जांच जेल में जाते वक्त नहीं होती, लेकिन जब मुलाकात के बाद हम जेल से बाहर आते हैं तो इन मुहरों की जांच होती है। इसके पीछे मकसद यह है कि कहीं मुलाकात के समय में कोई विचाराधीन कैदी आगंतुकों के साथ जेल से बाहर न चला जाए। दिन का नाम लिखी मुहर एक चाल है और उसे आकस्मिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, इसीलिए जब मैं सोमवार को जेल गया था तो मुहर पर गुरु लिखा था।

चंद्रशेखर करीब 30 साल का युवा है और काफी सुंदर भी है। वह नुकीली मूंछे रखता है, जैसा कि गुजराती राजपूत क्रिकेटर रवींद जडेजा रखते हैं। यह मूंछे दूसरों के लिए एक ऐलान भी होती हैं। भीम आर्मी एकता मिशन के जितने भी कार्यकर्ताओं से मैं मिला, उनमें से ज्यादातर ने ऐसी ही मूंछे रखी हुई हैं। यह सभी अपने हाथ में स्टील का एक मोटा कड़ा भी पहनते हैं, लेकिन कोई धार्मिक धागा कलाई में नहीं बांधते। चंद्रशेखर से जेल में मिलने के लिए रोज तमाम युवक-युवतियां आते थे। चंद्रशेखर को दलितों का जबरदस्त समर्थन हासिल है, और उसे लोगों से दूर करने की उत्तर प्रदेश सरकार की सारी कोशिशें नाकाम रहीं, तभी उसे 13 सितंबर को रिहा करने के आदेश देने पड़े।

जेल में चंद्रशेखर से मिलन के बाद मैं सहारनपुर गया ताकि अंदाज़ा लगा सकूं कि भीम आर्मी जमीनी स्तर पर क्या काम कर रही है। वहां जाकर पता लगा कि यह दलित बच्चों के लिए करीब 300 स्कूल चलाती है, जहां दलित कार्यकर्ता स्कूल के नियमित समय के बाद शाम को लोगों को पढ़ाते हैं। ऐसा ही एक स्कूल किसी के घर में चलता है। घर के बड़े से बरामदे में करीब 35 बच्चों को तीन कतारों में बिठाया जाता है। इन बच्चों की उम्र 5 से 10 साल के बीच थी। एक युवा लड़की और एक किशोर को उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी दी गई है। जय भीम के नारे के साथ बच्चे एक दूसर का अभिवादन करते हैं। उन्हें बाबा साहब भीमराव आंबेडकर की जीवनी भी याद है।

चंद्रशेखर एक जन नायक बन चुका है और आने वाले दिनों में भीम आर्मी एकता मिशन एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभर सकती है। जब मैंने पूछा कि दि ग्रेट चमार लिखे हुए बोर्ड कितनी जगह लगे हैं, तो पता चला कि सहारनपुर के गांवों में ऐसे 160 बोर्ड हैं। बदलाव ऐसे ही हुआ करते हैं। जब सताए हुए लोग अपने लिए खुद खड़े होते हैं, तो समाज को उनके लिए जगह देनी ही पड़ती है।

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