आकार पटेल का लेख: कश्मीरी बोलेंगे तभी पता चलेगा उनके साथ अच्छा हुआ या बुरा
केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाकर कश्मीर का विशेष दर्जा ही खत्म नहीं किया, कश्मीरियों से उनका राज्य भी ले लिया गया। यह फैसला कश्मीरियों के लिए अच्छा है या बुरा, यह तो तब ही पता चलेगा जब कश्मीरियों को बोलने का मौका मिलेगा।
कश्मीर के साथ हमने क्या कुछ किया है, वह आने वाले वक्त में हमें धीरे-धीरे पता चलेगा।
फिलहाल बाकी देश को जो संदेश दिया जा रहा है वह यह है कि कश्मीर और कश्मीरियों के साथ बहुत अच्छ हुआ है। जिन लोगों को कश्मीर के विशेष दर्ज से झुंझलाहट होती रही है वे खुश हैं क्योंकि देश का एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य अब केंद्र शासित प्रदेश बनकर सीधे बीजेपी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार के नियंत्रण में आ गया है। निस्संदेह कुछ और राज्यों को भी विशेष दर्जा मिला हुआ है, लेकिन सिर्फ धर्म के आधार पर कश्मीर को अलग चश्मे से देखा गया।
हममें से बहुत से लोगों को लगता था कि कश्मीर को सिर्फ धर्म के आधार पर विशेष दर्जा दिया जाना सही नहीं है। और ऐसे लोग जो मानते थे कि धारा 370 अपने मूलरूप में सही थी और जम्मू-कश्मीर को स्वायत्तता देना सही था, उनकी संख्या काफी कम है।
इसके अलावा कश्मीर से जुड़ा एक आर्थिक पहलू भी है। खासतौर से श्रीनगर से जुड़ा हुआ, क्योंकि श्रीनगर गरीबी, साक्षरता और अन्य मानव विकास संकेतकों के मामले में दूसरे राज्यों से बेहतर है। कश्मीरी बहुत उद्यमी होते हैं और सिर्फ देश में ही नहीं बल्कि दुनिया भर में कारोबार करते हैं। इसलिए ऐसा नहीं है कि कश्मीर आर्थिक रूप से पिछड़ा राज्य था। एक तर्क यह है कि अब दूसरे राज्यों के लोग भी कश्मीर में निवेश कर पाएंगे क्योंकि वे अब वहां संपत्तियां खरीद सकते हैं। लेकिन यह तर्क ऐसा है जिसे समझने के लिए थोड़ा वक्त चाहिए।
एक तीसरा पहलू यह है कि केंद्र के कदम से एक नए किस्म की राजनीतिक का जन्म होगा। कश्मीरियों को परिवारवाद पर चलने वाली पार्टियों से मुक्ति मिलेगी और उन्हें सही अर्थों में लोकतंत्र का मौका मिलेगा। लेकिन सवाल यह है कि कश्मीरी किस हद तक इन कथित परिवारवादी राजनीतिक पार्टियों पर भरोस करते हैं। बाहर के लोगों को यह कहने का कोई हक नहीं कि कश्मीरी किस राजनीतिक दल को वोट दें या न दें। बात यह है कि हम इस बात पर भरोसा करें कि कश्मीर में अब तक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए या नहीं। और अगर हुए तो फिर हमें उन राजनीतिक दलों को स्वीकारन होगा जिन्हें कश्मीरियों ने वोट दिया है और हम जिन्हें अपशब्द कहते रहे हैं।
अगर यह सच है कि कश्मीर में एक नए राजनीतिक गुंजाइश ने जन्म लिया है, तो देखना होगा कि यह जगह कैसे भरेगी। आज की तारीख में कश्मीर की जो सबसे ताकतवर लोकप्रिय ताकते हैं वे अलगाववादी हैं जो चुनाव में हिस्सा नहीं लेते। हुर्रियत और उससे जुड़े कट्टरपंथी जमाते इस्लामी को यह कहने का मौका मिल सकता है कि कश्मीरियों को परंपरागत राजनीतिक दल वह नहीं दे पाए, जो कश्मीरियों को चाहिए था। उम्मीद करनी चाहिए कि केंद्र सरकार ने इस पहलू पर भी विचार किया होगा।
देश के बाकी हिस्सों को कश्मीर के बारे में सोचने का बहुत ज्यादा मौका दिया ही नहीं गया क्योंकि घाटी में कर्फ्यू लगा दिया गया और कश्मीरियों से संपर्क के सारे साधन बंद कर दिए गए। वैसे कश्मीरियों को इसकी आदत रही है। कश्मीर में अकसर फोन और इंटरनेट लंबे समय के लिए बंद किए जाते रहे हैं, शायद यही कारण है कि भारत मीडिया फ्रीडम इंडेक्स में आखिरी पायदान पर पहुंच गया है। पिछले साल ही यह दो पायदान खिसककर 140 वें नंबर पर पहुंचा है। मोदी सरकार के इस कदम पर कश्मीरियों की क्या प्रतिक्रिया है, इस बारे में हमें उनकी असली आवाज़ें अभी तक सुनाई नहीं दी हैं।
अभी तक तो सिर्फ सोशल मीडिया पर ही कुछ कश्मीरी आवाज़े सुनाई दे रही हैं जिनकी सत्यता प्रामाणिक नहीं है।
अब जब भी कभी कर्फ्यू हटेगा, संचार माध्यम खुलेंगे, तभी देश के साथ ही पूरी दुनिया को भी कश्मीरियों की असली प्रतिक्रिया के बारे में पता चलेगा। वैसे भी हमारे देश में जो कुछ कहा जाता है, उसका कोई खास अर्थ तो होता नहीं है, बीते तीन दशक से तो ऐसा ही हो रहा है। कश्मीरी खुद के अपने कानूनी हक के लिए संघर्षरत मानते हैं और हम उन्हें पत्थरबाज और आतंकी मानते हैं।
पूरी दुनिया की कश्मीर को लेकर दिलचस्पी है। संयुक्त राष्ट्र के कुछ सधे हुए संदेशों और प्रस्तावों के अलावा किसी और पर अमल नहीं किया जा सकता। चूंकि यह भारत का अंदरूनी मामला है, इसलिए इसमें किसी बाहरी दखल की कोई चिंता भी नहीं है। वैसे भी भारत के सुरक्षा परिषद के ज्यादातर सदस्यों के साथ अच्छे संबंध हैं, और उसे अब रूसी वीटो की भी फिक्र नहीं है। इन दिनों जो कर्फ्यू और कम्यूनिकेशन ब्लैकआउट है, उसकी वैसे भी दुनिया को कोई खास चिंता नहीं है, क्योंकि तीन दशक से दुनिया ये सब देख रही है।
एक आखिरी बात जो हमें ध्यान रखनी होगी, वह यह है कि देश के तीन और हिस्सों में जो आतंकी हिंसा होती है उस पर हमारा क्या रुख है। पूर्वोत्तर, आदिवासी इलाकों और कश्मीर में। ज्यादातर हिस्सों में जो भी हिंसा होती है वह स्थानीय होती है। सांप्रदायिक दंगे और जवाबी हिंसा तो पूरे देश में होती रहती है। 1992 और 2002 तो इसकी मिसालें हैं ही। लेकिन कश्मीर को लेकर कुछ अलग बात है। इस बारे में शायद बहुत ज्यादा सोचा नहीं गया है।
फिलहाल अनुच्छेद 370 को रद्द किए जाने को एक अच्छा कदम साबित करने की बात कही जा रही है। लेकिन असल बात तो तब ही पता चलेगी जब कश्मीर के लोग अपनी बात खुलकर सामने रख पाएंगे, और तभी सरकार के इस कदम के असली मायने समझ में आएंगे।
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